‘‘राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय अब एक मसाज पार्लर में तब्दील हो चुका है। एन.एस.डी ऐसे कलाकार तैयार कर रही है जो कलाकार कम महज क्राफ्ट व लेबर है। इनमें किसी तरह की सामाजिक जिम्मेवारी का कोई अहसास नही है। इसी समझदारी की वजह से मैं कठोर से कठोर शब्दों में राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय की निन्दा करता हूं। नाट्य विद्यालय आज कलाकार कम क्राफ्ट कर रहा है और जिम्नास्टिक लेबर ज्यादा तैयार कर रहा है। एन.एस.डी अब एक डूबता जहाज है।’’ ये बातें वरिष्ठ रंगकर्मी कुणाल ने रंगकर्मियों-कलाकारों के साझा मंच ‘हिंसा के विरूद्ध संस्कृतिकर्मी’ द्वारा आयोजित बातचीत ‘राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय एवं बिहार रंगमंच’ में बोलते हुए कहा।
यह बातचीत युवा रंगकर्मी विकास की स्मृति में आयोजित किया गया था। कुणाल ने आगे कहा, ‘‘रंगमंच की प्रकृति है कि वो हमेशा स्थानीय होगी। अगर वह स्थानीय होगा तो अपने आस-पास के समाज व उसके संर्घर्षों से अवश्य जुड़ा रहेगा।राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय का पूरे थियेटर की समझदारी में ही यह निहित है उसे स्थानीय नहीं राष्ट्रीय होना है।’’ प्रेमचंद रंगशाला में आयोजित इस कार्यक्रम में सर्वप्रथम आए सभी लोगों ने विकास की तस्वीर पर माल्यार्पण किया। तत्पश्चात् विकास के दोस्त रहे सुभाष ने विकास के बारे में लोगों को बताया। ज्ञातव्य हो कि विकास की मौत 26 जून 2003 को पटना से अपने गाव जाने के दौरान हो गयी थी। विकास की उम्र उस वक्त मात्र 21 साल की थी। विकास थियेटर और समाज के प्रति बेहद प्रतिबद्ध रंगकर्मी था और बहुत कम दिनों में उसने अपनी पहचान और ख्याति अर्जित की थी। विकास के सहपाठी रहे सुभाष, जो खुद भी लंबे समय से रंगकर्म से जुड़े रहे हैं, ने विकास के जीवन के बारे में उपस्थित लोगों क बताया कि कैसे वो थियेटर, छात्र राजनीति,संगीत एवं अपनी सामाजिक प्रतिबद्धता में एक समन्वय बना कर चलने वाला रंगकर्मी था। उसने हमेशा एक मूल्य को जीने की कोशिश की।
विनोद अनुपम ने अपना वक्तव्य देते हुए कहा, ‘‘बातचीत का विषय काफी अहम है और काफी दिनो से चला आ रहा है। एक समय बिहार से काफी लड़के राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय गये, जिसका दुष्प्रभाव यहा के रंगमंच पर पड़ा. वे दुबारा बिहार से जुड़ नहीं पाये। इसलिए बिहार के लिए ये बड़ी बात नहीं है कि यहां से किसी का एन.एस.डी. में नहीं हुआ ! पर सवाल यह है कि जनता के पैसों से चल रहे इस संस्थान में आखिर बिहार के लड़के क्यों नहीं ? क्या बिहारी प्रतिभा से डर गया है ये संस्थान ? या इसका कोई राजनैतिक कारण है, जो बिहार को जगह नहीं देना चाह रहा है।’’
सर्वप्रथम कुमार अनुपम ने सभा को संबोधित करते हुए विस्तार से बताया, ‘‘एक संस्थान के रूप मे थियेटर का प्रतिनिधित्व करने लायक संस्था नहीं है। अब राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय पूरी तरह भ्रष्ट हो चुका है।’’ प्रो संतोष कुमार ने अपने संबोधन में कहा‘‘ बिहार का रंगमंच हमेशा से विरोध का रंगमच रहा है। जिससे एन.एस.डी डरती रही है। इन्हीं वजहों से एन.एस.डी. बिहार के रंगकर्मियों के साथ इस तरह का व्यवहार करती रही है। अस्सी के दशक में मै भी सक्रिय था और उस समय विरोध का रंगमंच था। विरोध हमेशा सरकार का, व्यवस्था का होता है। यह मामला राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय के साथ भी है। बिहार के लड़को के साथ गलत हुआ है। विरोध की आवाज मुखर होनी ही चाहिए और हमे अपने हक के लिय खुद लड़ना होगा’’ ज्ञातव्य हो कि 2012 में बिहार से एक भी रंगकर्मी का चयन फाइनल परीक्षा में नहीं हुआ। जानकार बताते हैं कि ऐसा राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय ने जानबूझ कर किया है। क्योकि बिहार के रंगकर्मी हमेशा से उसकी गलत बातों का विरोध करते रहे हैं।
2009 में शशिभूषण वर्मा की मौत के बाद जब पटना के रंगकर्मियों ने शशि की मौत के कारणों पर आवाज उठायी तबसे पूरा राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय प्रशासन चिढ़ा हुआ है। इसी चिढ़ के परिणामस्वरूप एन.एस.डी. ने बिहार से किसी का एडमिशन नहीं लिया। एन.एस.डी. के इस रवैये से पूरे पटना रंगमंच में बेहद आक्रोश है। इसी आक्रोश क अभिव्यक्ति देते हुए मनीष महिवाल ने बताया कहा‘‘ रंगकर्मियों के बीच आपसी मतभेद के कारण एकजुटता नहीं हो पाती है।अगर एकजुटता रही तो हमलोग एन.एस.डी. को सबक सिखा सकते हैं। हमारे बीच के ही लोगों की वजह से आज राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय इस तरह के कदम उठा रहा है।’’ राजीव रंजन श्रीवास्तव ने अपने लंबे अनुभव को शेयर करते हुए बताया‘‘ कि आज तक राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय ने पटना में एक भी वर्कशाप का आयोजन नहीं किया है। इसके साथ-साथ राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय से जुड़े लोग प्रदेश के प्रति जिम्मेवारी को नहीं निभाते।’’
राजीव रंजन श्रीवास्तव ने आगे बताया, ‘‘ झारखंड, बिहार और उत्तर प्रदेश जैसे हिन्दी पट्टी क्षेत्रों में बड़े फलक पर रंगमंच में काम हो रहा है पर इन क्षेत्रों से किसी का ना चुना जाना भारी आश्चर्य में डालता है। वर्कशाप से लगातार खबरें आ रहीं थीं की बिहार के छात्र का काफी अच्छा कर रहें हैं पर अंत में किसी का ना होना राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय पर कई सारे सवाल एक साथ खड़ा करता है। इस बात का ताकत से विरोध होना चाहिए।’’ युवा रंगकर्मी अजीत कुमार ने कहा‘‘ मैं भी कल तक राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय जाने की सोचता था। लेकिन आज मेरा मोहभंग हो गया है। बिहार के जो एन.एस.डी के पासआउट हैं उनकी कोई हैसयित एन.एस.डी के भीतर नहीं है। वे सब के सब चुप रहते हैं। बिहार के प्रति राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय का पूर्वाग्रह काफी दिनों से है जिसके खिलाफ बोलने का वक्त आ गया है।’’ सहजानंद ने कहा, ‘‘मुझे एन.एस.डी. के लोगों पर कभी भरोसा नही रहा। पटना सिटी से लेकर दानापुर तक के रंगकर्मियों को एक मंच पर लाने की आवश्यकता है अन्यथा हम इस लड़ाई का आगे नहीं ले जा पायेंग। मैं इस लड़ाई में हमेशा आप लोगों के साथ रहूंगा।’’
अनीश अंकुर ने भी कड़े शब्दों में राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय के खिलाफ विरोध दर्ज करते हुए कहा, ‘‘नाट्य विद्यालय एक ऐसा थियेटर ला रहा है जिसका कोई समाजिक सरोकार नहीं है। लाखों रूपय खर्च कर नाटक को डेकोरेशन और सजावट की वस्तु बना दिया है। ऐक्टर को सब्जेक्ट के बजाय आब्जेक्ट में तब्दील कर दिया गया है।’’ अनीश अंकुर ने आगे कहा, ‘‘आज कुछ बिहारी एन.एस.डी. छात्रों द्वारा भ्रम फैलाया जा रहा है कि अगर आप राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय का विरोध करते हैं तो इस से बिहार की छवि खराब होगी। मुझे लगता है कि उन्हें यहां आकर देखना चाहिए की विद्यालय की क्या छवि बची है बिहार में? इन्हीं वजहों से एन.एस.डी का अब नाम हो गया है ‘नौट सीरियस अबाउट ड्रामा’।’’
सभा को वरिष्ठ रंगकर्मी ध्रव कुमार ने भी संबोधित किया। सभा में सुरेश कुमार हज्जू, युवा रंगकर्मी गौतम, अभिषेक, कुंदन, आशुतोष, अभिज्ञ, पंकज, मनोज, मोनार्क, सामाजिक कार्यकर्ता चंद्रशेखर, गजेंद्रकांत शर्मा, पत्रकार नवीन रस्तोगी आदि मौजूद थे। सभा का संचालन किया युवा रंगकर्मी जयप्रकाश ने। तमाम उपस्थित लोगों ने राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय के खिलाफ मुहिम को तेज करने की अपील लोगों से की।
सुभाष पटना के युवा संस्कृतिकर्मी हैं और अभी ईएफएल, हैदराबाद में स्पेनिश के छात्र है।
एनएसडी हमारे ‘सिस्टम’ का ही एक अंग है और यह शुष्क पूँजीवादी रुझान और कई विरोधाभासों का शिकार है | नतीजतन यह कला प्रशिक्षण संस्थान, एक कलावादी और रूपवादी नाट्य ‘मॉडल’ के केंद्र के रूप में परिवर्तित होता जारहा या होगया है | किन्तु फिर भी इसे ‘मसाज पार्लर’ कहना अनुचित है, कुंठित मानसिकता का परिचायक है |
भारतीय उप-महाद्वीप के रंगमंच के क्षेत्र में एनएसडी के साकारात्मक योगदान को कम करके नहीं आँका जासकता | आवश्यकता है आज उसकी भूमिका की वस्तुनिष्ठ समीक्षा की जाए |
मुझे स्वर्गीय नेमिचन्द्र जैन के साथ जन-नाट्य की समस्या पर नब्बे के दशक में हुई मुसलसल बहस की याद आरही है | नेमिजी ‘इप्टा’ के प्रारंभिक दौर के संगठनकर्ता थे, किन्तु तब वे उससे अलग होगये थे और उसकी आलोचना किया करते थे | उन्होंने तब कहा था ” इप्टा या पीपुल्स थियेटर से जुड़े नाट्यकर्मियों को ‘क्या करना है’, यह तो पता होता है; किन्तु ‘कैसे करना है’, यह नहीं पता होता | ” दरअसल वे थियेटर में ‘फॉर्म’, ‘क्राफ्ट’ और ‘डिजाइन’ के महत्त्व को रेखांकित करना चाहते थे | उनकी बात एक हद तक प्रासंगिक भी थीं, परन्तु ‘थियेटर सिर्फ ‘फॉर्म’, ‘क्राफ्ट’ या ‘डिजाइन’ नहीं है | अगर पारम्परिक शब्दावली का प्रयोग करें तो, यह (डिजाइन) रंगमंच के केन्द्रीय तत्त्व ‘अभिनय’ का एक अंग ‘आहार्य’ मात्र है | फॉर्म या रूप के प्रति आक्रामक आग्रह का सबसे बड़ा जो नुकसान हुआ है वह है – अभिनेता का महत्त्वहीन होते जाना | ऐसे दौर में, रंगमंच रूपवाद से कैसे बच सकता है |
हर नाट्य-रचना कथ्य के अनुसार ही अपना रूप या फॉर्म चुनती है और यही दर्शकों की रंगमंच की ज़रुरत के अनुसार, उनकी नाट्य-भाषा में, उनकी आशाओं-आकांक्षाओं को अभिव्यक्त करने में सक्षम भी होती है |
अब जहाँ तक मित्रों द्वारा उठाए गए प्रश्नों का सवाल है – मैंने जहाँ अपनी टिपण्णी का अंत किया है वहीं से अपनी बात शुरू करता हूँ – ” हर नाट्य-रचना कथ्य के अनुसार ही अपना रूप या फॉर्म चुनती है और यही दर्शकों की रंगमंच की ज़रुरत के अनुसार, उनकी नाट्य-भाषा में, उनकी आशाओं-आकांक्षाओं को अभिव्यक्त करने में सक्षम भी होती है ” – क्या यह स्पष्ट नहीं है कि ये पंक्तियाँ एनएसडी, जिसे मैंने ‘पूँजीवादी रुझान और कई विरोधाभासों का शिकार, कलावादी-रूपवादी नाट्य केन्द्र’ के रूप में रेखांकित किया है, के लिए हैं और यह भी कि एनएसडी, दर्शकों की नाट्य-भाषा में, उनकी आशाओं-आकांक्षाओं की अभिव्यक्ति कर पाने में सक्षम नहीं है ? अब इसे एनएसडी के प्रति मेरे ‘नर्म रुख’ के रूप में देखा जाए, तो इसका मैं क्या जवाब दूँ ?
एनएसडी ही नहीं लगभग हर सत्ता-संपोषित संस्थान, अपने मूल-उद्देश्य के प्रति लापरवाह है या विरोधाभास का शिकार है | यह कितना बड़ा विरोधाभास है कि जिस राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय को नाट्य-कला के प्रशिक्षण के उद्देश्य से स्थापित किया गया; वह रंगमंच के लिए नहीं, बल्कि सिनेमा और टीवी के लिए मानव-संसाधन जुटाने के केन्द्र के रूप में काम कर रहा है | क्या यह भी सच नहीं है कि एनएसडी में प्रवेश के इच्छुक अधिकांश रंगकर्मी, अंततः सिनेमा में जाने की सीढ़ी के रूप में ही एनएसडी का उपयोग करना चाहते हैं ? ठीक वैसे ही, जैसे आईआईटी या मेडिकल स्नातक, भारतीय प्रशासनिक सेवा (आईएएस) में प्रवेश के लिए इंजीनियरिंग या मेडिकल कॉलेज को सीढ़ी की तरह इस्तेमाल करते हैं | किन्तु दोष केवल युवकों का नहीं है, बल्कि यह पूरे ‘सिस्टम’ के विरोधाभास का परिचायक है |
जहाँ तक एनएसडी के वर्चस्व की बात है, तो इसे क्षेत्रीय स्तर पर नाट्य विद्यालय की स्थापना से निरस्त किया जा सकता है | बिहार में एक उच्च-स्तरीय नाट्य प्रशिक्षण केन्द्र की ज़रूरत से क्या हम इनकार कर सकते हैं ? आईसीसीआर (भारतीय सांस्कृतिक सम्बन्ध परिषद्) की राज्य शाखा पटना में खुल रही है | क्या एनएसडी को बिहार सहित कुछ अन्य राज्यों में अपनी इकाई नहीं शुरू करनी चाहिए ?
रा.ना.वि. की आलोचना से इतर एक कार्य मुख्य है कि इन सालों में बिहार के रंगमंच पर कितना महत्त्वपुर्ण काम हुआ? क्या बढ़िया रंगमंच के लिये हम रा.ना.वि. का मूंह जोहते रहेंगे! भारतीय रंगमंच पर आज जो प्रतिभाशाली निर्देशक उभर रहें हैं, जो प्रतिबद्धता से सक्रिय हैं उनमें अधिकांश रा.ना.वि. से नहीं है. मोहित ताकलकर, शंकर, अतुल कुमार, मानव कौल, सुनील शानबाग इत्यादि को देखिये इनमें से कोई रा.ना.वि. से नहीं हि लेकिन हां इनमें से कोई बिहार से भी नहीं है.
बिहार के रंगमंच के स्तर को बढ़ाने की जिम्मेवारी क्या बिहार के रंगकर्मियों की नहीं है? क्या रा.ना.वि को अप्रासंगिक मानकर राज्य के रंगमंचीय विधाओं के सरंक्षण , संवर्द्धन और प्रशिक्षण की जिम्मेवारी राज्य सरकरा की नहीं है? हमने कितनी बार राज्य सरकार पर दबाव बनाया है.
आलोचना का एक प्रकार है सर्जना..लफ़्फ़ाज आलोचना खुद को हास्यास्पद बना देती है.
कोई भी व्यक्ति किसी के प्रति अपशब्द का प्रयोग करता है तो यकीन जानिए की वह उससे उतना ही दुखी है। यह दुख ज़रूरी नहीं की वैयक्तिक हो। कुणाल के शब्द ओछी मानसिकता के नही, बल्कि खेद और दुख के परिचायक है। नाटक के साथ यह हो रहा है कि उसे अपने ही लोगों का समर्थन नाही मिल पाता है। परवेज़ ज़ी ने बहुत अच्छी बात उठाई है कि एनएसडी के अवदान को नकारा नाही^ जा सकता। नकार कोई नाही^ रहा है। हर कोई आज की स्थिति को लेकर अपनी बात रख रहा है। नाटक के कैथी और प्रयोग की दिशा को ध्यान में रखकर नाटक किए जा रहे हैं। यह स्वागत योगी है। नाटक पहले भी जीवित था, आज भी है और कल भी रहेगा। लेकिन हमें संयम बरतना होगा और यूं ही किसी को दाखिल खारिज नाही करना होगा, जैसा के आजकल कुछ स्वनयमधानी लोग रंगकर्म के नाम पर कर रहे हैं।
परनिंदा के परनाले बहा दिए जातें हैं, बातचीत की तीसरी और अंतिम कोटि हीं सबसे अच्छी होती है. मैं परवेज़ दा की बातों से पुरी तरह सहमत हुं। मुझे लगता है हमारे कुछ प्रगतिशील मित्रों को व्यक्तिगत टिप्पणी से बचते हुए, उनकी सटिक टिप्पणी फिर से पढ़नी चाहिए।