रंगमंच तथा विभिन्न कला माध्यमों पर केंद्रित सांस्कृतिक दल "दस्तक" की ब्लॉग पत्रिका.

रविवार, 6 नवंबर 2011

पारसी रंगमंच


अंग्रेजों के शासनकाल में भारत की राजधानी जब कलकत्ता (1911) थी, वहां 1854 में पहली बार अंग्रेजी नाटक मंचित हुआ। इससे प्रेरित होकर नवशिक्षित भारतीयों में अपना रंगमंच बनाने की इच्छा जगी। मंदिरों में होनेवाले नृत्य, गीत आदि आम आदमी के मनोरंजन के साधन थे। इनके अलावा रामायण तथा महाभारत जैसी धार्मिक कृतियों, पारंपरिक लोक नाटकों, हरिकथाओं, धार्मिक गीतों, जात्राओं जैसे पारंपरिक मंच प्रदर्शनों से भी लोग मनोरंजन करते थे। एक समय में सम्पन्न पारसियों ने नाटक कंपनी खोलने की पहल की और धीरे-धीरे यह मनोरंजन का एक लोकप्रिय माध्यम बनता चला गया। इसकी जड़ें इतनी गहरी थीं कि आधुनिक सिनेमा आज भी इस प्रभाव से पूरी तरह मुक्त नहीं हो पाया है।


पारसी रंगमंच, 19वीं शताब्दी के ब्रिटिश रंगमंच के मॉडल पर आधारित था। इसे पारसी रंगमंच इसलिए कहा जाता था क्योंकि इससे पारसी व्यापारी जुड़े थे। वे इससे अपना धन लगाते थे। उन्होंने पारसी रंगमंच की अपनी पूरी तकनीक ब्रिटेन से मंगायी। इसमें प्रोसेनियम स्टेज से लेकर बैक स्टेज की जटिल मशीनरी भी थी। लेकिन लोक रंगमंच-गीतों, नृत्यों परंपरागत लोक हास-परिहास के कुछ आवश्यक तत्वों और इनकी प्रारंभ तथा अंत की रवाइतों को पारसी रंगमंच ने अपनी कथा कहने की शैली में शामिल कर लिया था। दो श्रेष्ठ परंपराओं का यह संगम था और तमाम मंचीय प्रदर्शन पौराणिक विषयों पर होते थे जिनमें परंपरागत गीतों और प्रभावी मंचीय युक्तियों का प्रयोग अधिक होता था। कथानक गढ़े हुए और मंचीय होते थे जिसमें भ्रमवश एक व्यक्ति को दूसरा समझा जाता था, घटनाओं में संयोग की भूमिका होती थी, जोशीले संवाद होते थे, चट्टानों से लटकने का रोमांच होता था और अंतिम क्षण में उनका बचाव किया जाता था, सच्चरित्र नायक की दुष्चरित्र खलनायक पर जीत दिखायी जाती थी और इन सभी को गीत-संगीत के साथ विश्वसनीय बनाया जाता था।


औपनिवेशिक काल में भारत के हिन्दी क्षेत्र के विशेष लोकप्रिय कला माध्यमों में आज के आधुनिक रंगमंच और फिल्मों की जगह आल्हा, कव्वाली मुख्य थे। लेकिन पारसी थियेटर आने के बाद दर्शकों में गाने के माध्यम से बहुत सी बातें कहने की परंपरा चल पड़ी जो दर्शकों में लोकप्रिय होती चली गयी। बाद में 1930 के दशक में आवाज रिकॉर्ड करने की सुविधा शुरू हुई और फिल्मों में भी इस विरासत को नये तरह से अपना लिया गया। वर्ष 1853 में अपनी शुरुआत के बाद से पारसी थियेटर धीरे-धीरे एक 'चलित थियेटर' का रूप लेता चला गया और लोग घूम-घूम कर नाटक देश के हर कोने में ले जाने लगे। पारसी थियेटर के अभिनय में ‘‘मेलोड्रामा’’ अहम तत्व था और संवाद अदायगी बड़े नाटकीय तरीके से होती थी। 80 वर्ष तक पारसी रंगमंच और इसके अनेक उपरूपों ने मनोरंजन के क्षेत्र में अपना सिक्का जमाए रखा। फिल्म के आगमन के बाद पारसी रंगमंच ने विधिवत् अपनी परंपरा सिनेमा को सौंप दी। पेशेवर रंगमंच के अनेक नायक, नायिकाएं सहयोगी कलाकार, गीतकार, निर्देशक, संगीतकार सिनेमा के क्षेत्र में आए। आर्देशिर ईरानी, वाजिया ब्रदर्स, पृथ्वीराज कपूर, सोहराब मोदी और अनेक महान दिग्गज रंगमंच की प्रतिभाएं थीं जिन्होंने शुरुआती तौर में भारतीय फिल्मों को समृद्ध किया।


पारसी रंगमंच की प्रमुख विशेषताएँ

पारसी रंगमंच की चार प्रमुख विशेषताएँ हैं। पहला, पर्दों का नायाब प्रयोग। मंच पर हर दृश्य के लिए अलग अलग पर्दे प्रयोग में लाए जाते हैं ताकि दृश्यों में गहराई और विश्वसनीयता लाई जा सके। आजकल फिल्मों में अलग अलग लोकेशन दिखाए जाते हैं। पारसी रंगमंच में ये काम पर्दों के सहारे होता है। इसलिए पारसी रंगमंच की मंच सज्जा का विधान बड़ा ही जटिल होता है। दूसरी खासियत उनमें संगीत, नृत्य और गायन का प्रयोग है। पारसी नाटकों में नृत्य और गायन का यही मेल हिंदी फिल्मों में गया। इसी वजह से भारतीय फिल्में पश्चिमी फिल्मों से अलग होने लगीं। तीसरी खूबी वस्त्र सज्जा यानी कॉस्ट्यूम है। पारसी रंगमच पर अभिनेता (या अभिनेत्री) जो कपड़े पहनते हैं उसमें रंगों और अलंकरण का खास ध्यान रखा जाता है। चूंकि दर्शक बहुत पीछे तक बैठे होतें हैं इसलिए उनको ध्यान में ऱखते हुए वस्त्रों और पात्रों के अलंकरण में रंगों की बहुतयात होती है। पारसी रंगमंच की चौथी बड़ी खूबी लंबे संवाद हैं। पारसी नाटकों के संवाद ऊंची आवाज में बोले जाते हैं इसलिए संवादों में अतिनाटकीयता भी रहती है।
पारसी थियेटर में गाना एक अहम तत्व था और इसमें अभिनेता अपनी गूढ़ भावनाओं को अभिव्यक्त करने के लिए गाने का सहारा लेते थे। पारसी थियेटर में एक अभिनेता के लिए एक अच्छा गायक होना बेहतर माना जाता था क्योंकि आधी कहानी गानों में ही चलती थी। पारसी थियेटर का ही प्रभाव है कि आज हमारे हिन्दी फिल्मों में गाने का भरपूर प्रयोग किया जाता है। गानों के बगैर आज भारतीय दर्शक फिल्म को अधूरा मानते हैं। हमारी आधुनिक हिन्दी फिल्में पश्चिम के रिएलिज्म से प्रभावित दिखने लगी है लेकिन आज भी यह पारसी थियेटर की, गाना गाकर बात कहने की परंपरा को कायम रखे हुए है। हिन्दी फिल्मों की सफलता के लिए पासपोर्ट बन चुके आइटम सॉन्गकी जड़ें दरअसल पारसी थियेटर तक जाती है और आज भले ही सिनेमा और रंगमंच से इस प्राचीन शैली के अभिनय के तत्व गायब हो गये हों लेकिन इस नाट्य शैली के गाने गाकर अपनी भावनाओं से दर्शकों को उद्वेलित करने की अदा आज भी कायम है।


विकिपीडिया से साभार 

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