रंगमंच तथा विभिन्न कला माध्यमों पर केंद्रित सांस्कृतिक दल "दस्तक" की ब्लॉग पत्रिका.

बुधवार, 21 दिसंबर 2011

जो सवाल दिल में कुलबुलाते थे वही सामने रख दिए

अदम गोंडवी 
दिवंगत अदम गोंडवी का मां-बाप का दिया नाम था रामनाथ सिंह. वह खुशकिस्मत थे कि उनकी पहली ही रचना चमारों की गलीछप कर आयी और चारों ओर छा गये. फिर तो वे साहित्य को मुफलिसों की अंजुमन, बेवा के माथे की शिकन, रहबरों के आचरण और रोशनी के बांकपन तक ले चलने का आह्वान करते देशभर में घूमते रहे. लेकिन वे  ज़्यादातर उत्तर प्रदेश के गोंडा जिले के आटा परसपुर गांव के गजराज पुरवा में ही रहने लगे. निधन से कुछ ही महीनों पहले लेखक/पत्रकार कृष्ण प्रताप सिंह से हुई बातचीत में उन्होंने दुख जताया था कि बेहतर समाज निर्माण के सारे संघर्ष बीच में छोड़ दिये गये हैं. पेश हैं उस बातचीत के प्रमुख अंश :

साहित्य जगत आपको चमारों की गलीसे जानता है. इससे पहले की कुछ चीजें बताइये अपनी शिक्षा - दीक्षा वगैरह के बारे में?

22 अक्तूबर 1947 को पैदा हुआ तो देश को आजाद हुए दो ही महीने हुए थे. जरूर हर्ष-उल्लास का वातावरण रहा होगा. लेकिन होश संभाला तो पाया कि इस हर्ष-उल्लास का कोई मतलब ही नहीं. शोषण और अत्याचार तो खत्म होने को ही नहीं आ रहे. कम से कम जिस ग्रामीण परिवेश का मैं हिस्सा था और अब भी हूँ, वहां तो बदहाली ही राज करती आ रही है. मुझे ज्यादा औपचारिक शिक्षा नहीं मिली. लेकिन प्राइमरी शिक्षा के दौरान ही यशपाल, प्रेमचंद और रांगेय राघव जैसे रचनाकारों को प़ढ डाला था. फिर अपने कस्बाई स्कूल की लाइब्रेरी में जिन भी लेखकों की रचनाएं प्राप्त कर पाया, प़ढता रहा. प़ढता तो कई सवाल कुलबुलाने लगते थे. बाद में इन्हीं सवालों को मैंने अपने पाठकों व श्रोताओं से पूछना शुरू कर दिया. मसलन, सौ में सत्तर आदमी जब देश में नाशाद है, दिल पर रख कर हाथ कहिये देश ये आजाद है? इस तरह के अनेक सवाल मेरे आसपास और जेहन में बिखरे रहते थे. आज भी रहते हैं. इन्हें ढूंढने में मुझे ज्यादा मशक्कत नहीं करनी पड़ती अलबत्ता, मेरे साथ कभी ऐसा नहीं हुआ कि कोई रचना अचानक बन गयी हो. मैंने अपनी सभी रचनाओं पर काफी मेहनत की है

रचनाकर्म की शुरुआत कैसे हुई?
प़ढने की आदत शुरू से ही थी. गोंडा शहर में मेरे एक मित्र के घर पर कवियों- लेखकों का आना-जाना लगा रहता था. वहीं मुझे भी अनेक कवियों, लेखकों से मिलने का अवसर मिल जाता था. बाद में उनमें से ही कुछ मेरी प्रेरणा बन गये. उन दिनों मेरे एक साथी स्वामी चिन्मयानंद भी थे, जो बाद में अटल जी की सरकार में गृह राज्यमंत्री बने. मैंने और चिन्मयानंद ने साथ ही तुकबंदी शुरू की थी, लेकिन बाद में हमारे रास्ते अलग हो गये. मैं मेरा दागिस्तान’’ और रामचरितमानस से भी बहुत प्रभावित हुआ. औपचारिक शिक्षा की कमी को मैं अब भी अपने अध्ययन से पूरी करने में लगा रहता हूं. किसी विषय को ठीक से जान-समझ कर ही उस बाबत अपना नजरिया तय करता हूं.

आप तो भूख के एहसास को शेरो सुखन तक ले चलने का आह्वान करते हुए आये थे?
हा, दुष्यंत से पहले गजल आशिक और माशूक के बीच ही सिमटी रहती थी. दुष्यंत उसकी बेडियाँ तोड़ कर नयी जमीन पर ले आये. बदलाव का औजार बनाया उसको. मैं उनको बहुत पसंद करता था और उन्हीं की परंपरा में कुछ अलग करना चाहता था. वैसे भी रूमानियत ने मुझे कभी प्रभावित नहीं किया. इसलिए अपनी प्रतिबद्धता जताते हुए मैंने वह गजल रची जिसका आप जिक्र कर रहे हैं. इसी प्रतिबद्धता को आज तक निभाने की कोशिश की है.

लेकिन रहबरी का आचरण तो कहीं दिखता नहीं?

ठीक कह रहे हैं. बहुत दुख होता है, जब मैं देखता हूं कि बेहतर समाज निर्माण के सारे संघर्ष बीच में ही छोड़ दिये गये हैं. इस संघर्ष का अलम लिये फिरनेवाली पाटियां भी बाजारू संस्कृति का हिस्सा बनने के लिए समझौते कर रही हैं. आश्चर्य नहीं कि ऐसे में हमारा समाज बेहतर होने के बजाय और बीमार होता जा रहा है. लोग पहले से ज्यादा आत्मकेंद्रित होते जा रहे हैं. कवियों, लेखकों और बुद्धिजीवियों में भी कई तरह की बीमारियां घर कर गयी हैं. उनका सृजन संघर्ष की आंच में तप कर नहीं आ रहा. समाज और सृजन का एक दूसरे पर असर होता है. अच्छा सृजन सामाजिक संघर्षो व आंदोलनों से ही निकल कर आ सकता है. हां, अच्छे सृजन के लिए उपयुक्त समाज बनाने की जिम्मेदारी भी सजृना करने वाले की ही है. इस जिम्मेदारी से मुंह मोडना अपनी प्रतिबद्धताओं से विचलित होना है.

मध्यप्रदेश सरकार ने आपको पहला दुष्यंत पुरस्कार दिया था कैसा लगा था तब?

इस अर्थ में अच्छा लगा था कि इस पुरस्कार की शुरुआत मुझ जैसे वामपंथी सोचवाले रचनाकार से हुई. उम्मीद जागी थी कि शोषितों के साथ में खड़े रचनाकारों के सम्मान की परंपरा कायम होगी. लेकिन दूसरे अर्थ में पुरस्कारों को मैं ज्यादा अहमियत नहीं देता. असली सम्मान तो रचनाओं को अपनी जनता द्वारा स्वीकार किया जाना है. मैं खुश हू कि यह असली सम्मान मेरे हिस्से में भी खूब आया.

कवि के तौर पर आप की कोई अधूरी आकांषा?

आकांषा भी है और सपना भी. मैंने तो काफी पहले ही बता दिया था-‘‘एक सपना है जिसे साकार करना है. तुम्हें, झोपड़ी से राजपथ का रास्ता हमवार हो’’ दुख की बात है कि यह रास्ता अभी तक हमवार नहीं हुआ. उलटे और अवरोधों से ब़ढ गया. अब तो हालत यह है कि ‘‘हमने अदब से हाथ उठाया सलाम को, समझा उन्होंने इससे है खतरा निजाम को’’.

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