“ मुझे
एक ऐसी भाषा की तलाश है,जो दृश्य हो,जो
मंच की भाषा हो, ज्यादा प्रत्यक्ष, ज्यादा
जिला देने वाली और अपने प्रभावों में शब्दों से भी कहीं अधिक शक्तिशाली हो साथ ही
जो पुरानी कथानकों को नया रूप दे सकता है |”(आयनेस्को)[1]
जो दृश्य हो, मंच
की भाषा हो, ज्यादा प्रत्यक्ष, जीवंत
और शब्दों से अधिक प्रभावशाली तथा अंत में अभिनेता का सन्दर्भ (जिसे आयनेस्को ने
कलाकार कहकर अपने उपरोक्त कथन में संबोधित किया है), जो इस
सभी स्थितियों को अपने भीतर एकाकार करके मंच पर किसी पुराने कथानक को दर्शकों के
सम्मुख एक नया कलेवर दे सकता है अथवा देता है | वह दर्शकों
के सम्मुख, रंगभाषा की पूरी रचना–प्रक्रिया
को सामने रख रहा होता है | कथानक नया हो अथवा पुराना,
वह जिस अभिनेता का माध्यम बनता है, उतने दफे
उसके सन्दर्भ और पाठ नए और अधिक तात्कालिक होकर सामने आते हैं, क्योंकि मंच के केंद्र में मूलतः और अंततः अभिनेता ही सम्प्रेषण का मुख्य
माध्यम होता है, बाद में अन्य तत्व आते हैं | तो नाटकों के रंगभाषा का मुख्य प्रश्न ही अभिनेता से जुड़ता है, क्योंकि “रंगभाषा अभिनेता से बनती है – जीवित, तत्काल, प्रत्यक्ष |”[2]
यानी रंगभाषा (रंगमंच की भाषा) का निर्माणक अभिनेता होता है |
यदि हम रंगभाषा को अभिनेता की मंच पर उसकी उपस्थिति, अभिनटन, अथवा उसकी भंगिमाओं या देहभाषा (Body
language) / हरकत की भाषा से समझें, तो एक बात
साफतौर पर उभरकर सामने आती है कि रंगभाषा एक जीवंत अनुभव है और यह ऐसा जीवंत अनुभव
है, जिसमें अभिनेता प्रत्येक बार अपने कौशल से रचता है,
जो हर बार तात्कालिक होकर उभरता है |
अभिनेता लिखित शब्द, वाक्-संयोजन,
गतियों, नृत्य, मुद्राओं,
वाद्य-ध्वनियों के साथ मिलकर एक दृश्य-बिम्ब को रचकर सम्प्रेषण का
एक अनूठा संसार प्रत्यक्ष करता है | मंच के अनेक अभिनेताओं
के अलावा इसका एक सबसे बड़ा उदाहरण लोकमंच के वे अनेक लोक कलाकार हैं, जिनकी प्रस्तुतियों को देखने के लिए हजारों दर्शकों का हुजूम अपलक खड़ा हो
जाता है | रंग समीक्षक जयदेव तनेजा इसे और स्पष्ट करते हुए
इसे एक जैविक इकाई की तरह देखते हैं | उनका मानना है कि “नाटक की भाषा केवल शब्द आश्रित नहीं होती | वह एक
संश्लिष्ट जैविक इकाई की तरह होती है | इसमें सार्थक (शब्द)
और निरर्थक ध्वनियों के अतिरिक्त मौन, क्रियाकलाप, मूकाभिनय, मुद्राएँ/भंगिमाएँ, दृश्य-बिम्ब,(स्थापत्य,चित्रकला), मंच-उपकरण,
संगीत, नृत्य, छायालोक,
वस्त्राभूषण और रूपसज्जा जैसे तमाम अवयव मिलकर रचनाकार/चरित्र के
जटिल जीवन-अनुभव और अस्तित्व के सूक्ष्म-गहन स्तरों को अधिकाधिक प्रामाणिक,
विश्वसनीय एवं जीवंत रूप में प्रेक्षकों तक संप्रेषित करने का
प्रयत्न करते हैं |”[3] इस कथन को भी देखें तो स्पष्ट है कि
शब्द और हरकत का सम्मिलित व्यवहार प्रदर्शन को सहृदय/प्रेक्षक तक पहुँचाता है |
अब यहाँ रंगभाषा का एक दूसरा महत्वपूर्ण अवयव ‘दर्शक’ भी उभरता है | प्रख्यात
रंगकर्मी बी.वी.कारंथ ने इस स्थिति को और स्पष्ट किया है | उनका
कहना है कि “रंगभाषा का मुख्य द्वार दर्शक होता है | दर्शकों की माँग के अनुसार, उनकी माँग के कारण
रंगभाषा अलग होती है | कभी-कभी नाट्य या प्रस्तुति के आधार
पर भी रंगभाषा अलग होती है |”[4] अब कारंथ के इस कथन पर
विचार करें तो इस संबंध जो बात ध्वनित होती है, वह अभिनेता
और दर्शक के बीच की आपसी भाषा है, जिसमें दोनों का तादात्म्य
होता है | यह भाषा उनके ‘आपसी
अंडरस्टैंडिंग’ की भाषा है | इसमें अगर
एक पक्ष अभिनेता का है तो दूसरा पक्ष दर्शकों से जुड़ता है और मोटे तौर पर कहा जाये
तो यह सामूहिक प्रयत्न का प्रतिफलन है | यह देहगति/हरकत,
लय, ध्वनि, संकेत,
मौन, दृश्य-विधान, आदि
का मिश्रित व्यवहार है | इन सभी के केंद्र में अभिनेता का वह
क्रियावयापार है, जो मूलतः उसके द्वारा रंगकला के सम्प्रेषण
को उसकी सम्पूर्णता में मंच पर निर्मित किया जाता है | आर्तो
इसे और खोलते हुए कहते हैं कि – “रंगमंच एक ठोस मूर्त
दृश्यत्व प्रधान स्थल है, जिसे ‘भराव’
की आवश्यकता होती है और इसीलिए उसे ‘ठोस भाषा’
बोलने की इजाजत होनी चाहिए | तात्पर्य यह कि
यह शारीरिक और भौतिक भाषा इन्द्रिय अनुभव जाग्रत करने की क्षमता से युक्त हो |
यह तभी संभव है, जब वह ऐसे दृश्यमूलक तत्वों
से निर्मित हो, जिससे मंच की खाली जगह को भरा जा सके,
जिन्हें दिखाया जा सके, भौतिक रूप से
अभिव्यक्त किया जा सके |”[5] आर्तो का यह विचार भी मंच के
केंद्र में अभिनेता की और उसके मार्फ़त वह जिस खाली जगह के भराव की पैरवी करता है,
वह भी उसके आंगिक क्रियाओं और लिखित पाठ के समन्वय से रंगभाषा की
सर्जना के सन्दर्भ में ही व्याख्यायित होती है |
रंगभाषा का एक महत्वपूर्ण पहलू उसके लिखित पाठ से भी
जुड़ता है | यह नाट्य-प्रदर्शन के समय अभिनेता के
लिए अनिवार्यतः जरुरी होता है | जब बोलियों के रंगमंच पर बात
होनी शुरू तथा हबीब तनवीर जैसे रंग-धूनियों ने नाट्य-सम्प्रेषण/प्रदर्शन की भाषा
का अपना पाठ रचा, तब यह और मुखर होकर सामने आया | चूँकि प्रत्येक अभिनेता एक किरदार को जीवंत करता है और हर किरदार एक खास
भौगोलिक वातावरण से सम्बंधित होता है, तब उस किरदार को
विश्वसनीय, प्रभावी, स्वाभाविक और
संप्रेषणीय बनाने के लिए इसकी जरुरत महसूस हुई | दरअसल,
“नाटक की भाषा पूरी तरह ठोस होती है, इसके
बावजूद उसमें ’खोल’ होता है | खोल न हो तो अभिनेता उसमें कैसे घुसेगा ?....इसमें
अभिनेता, निर्देशक, दर्शक के लिए पूरा
स्थान रहता है |”[6] अभिनेता जिस कैरेक्टर को जीता है,
वह उसे उसके सम्पूर्णता में जीता है, ताकि उस
पात्र की विश्वसनीयता संदिग्ध न रहे और दर्शकों से उसका संवाद बिना बाधा के जुड़े |
निर्देशक नाम का जीव इस हेतु जरुरी निर्देश (कभी-कभी नाटककार पाठ
में खुद ही ऐसे संकेत रखता है,परन्तु यह निर्देशक पर निर्भर
है कि वह उन संकेतों को प्रदर्शन में रखे अथवा नहीं) देता है | इस क्रियाव्यापार त्रयी (पात्र/अभिनेता, दर्शक,
निर्देशक) का सारा संयोजन रंगभाषा की निर्मिति के लिए ही होता है |
जैसा कि कहा गया है कि इसी राह की एक कड़ी नाटकों की
भाषा भी है, तो नाटक की भाषा जब अभिनेताओं के
किरदारों के अनुरूप होने लगी, तब अभिनेताओं और लिखित पाठ तथा
दर्शकों की पारस्परिक सहभागिता से रंगभाषा और पुष्ट हुआ | इसके
प्रारंभिक उदाहरण हमें भारतेंदु के नाटकों में मिलते भी हैं, जिसे बाद के नाटककारों ने अपना लिया | रंगमंच पर इस
लिखित भाषा अथवा पाठ का गतिमान/क्रियाशील रूप ही नाट्य-भाषा के लक्ष्य की पूर्ति
कार् सकता है और यह अनिवार्य जरुरत भी है | अभिनेता के सहारे
नाट्यभाषा की यह सब स्थितियाँ दर्शकों के मानस में अमूर्त को मूर्त करती हैं,
उसकी कल्पनाशक्ति को जागृत करती हैं | अभिनेता
और अभिनय की महत्ता ही शायद वह वजह रही होगी, जो भरतमुनि ने
नाट्यभाषा के विवेचन में अभिनय को दृष्टि में रखा और इस पर विस्तार से चर्चा की |
आखिर वक्ता (अभिनेता) का श्रोता (दर्शक) से यह सर्जनात्मक संवाद ही
उन स्थितियों की रचना करता है, जिससे मानवीय संवेदन
(प्रेक्षक का) प्रभावित होता है | अभिनेता का आश्रय लेकर
रंगभाषा का ध्येय भी तो प्रेक्षक के इन्हीं संवेदन तंतुओं से संवाद स्थापित करना
होता है | वास्तव में, अपने प्रेक्षकों
से संवाद कर सकने की अभिनेता की यही कुशलता नाटक को सफल बनाती है और बाकी के सहायक
उपकरण यथा – रंग-संगीत, मंच-सज्जा,
रूप-सज्जा आदि एवं निर्देशक के दृश्य-रचना और वातावरण की सृष्टि कर
सकने की योग्यता भी इसमें हैं ही, पर यह द्वितीयक ही होते
हैं |
रंगकला एक जटिल कलारूप है |
यह अपने प्रदर्शन में, सम्प्रेषण में एक
सम्पूर्णता (Totality) की माँग करता है | यह बात इसलिए जरुरी हो जाती है, क्योंकि अभिनेता जिस
शब्द, वाक् संयोजन, कलात्मक गतियों,
नृत्य, संगीत, मुद्राओं,
वाद्य-ध्वनियों, प्रकाश आदि के सहारे एक
रंगभाषा, एक दृश्य-बिम्ब की रचना कर उसे एक नवीन अर्थ प्रदान
करता है, वह एक सम्पूर्ण दक्षता की माँग करती है | पर यह जरुरी तथ्य नहीं कि, सम्प्रेषण के समय रंगभाषा
का जो अर्थ मंच से रचा जा रहा है, वही अर्थ प्रेक्षक तक भी
पहुँचे | कई दफे रंगभाषा का वह अर्थ टूट भी जाता है |
उदहारण के तौर पर देखा जाये, तो संजय उपाध्याय
के निर्देशन में भिखारी ठाकुर रचित ‘बिदेसिया’ (भोजपुरी लोकनाटक) का चरित्र ‘बिदेसी’ (जिसके नाम पर यह लोकनाटक है) नेपथ्य में चला जाता है और नायिका ‘प्यारी सुन्दरी’ की विरह-व्यथा ही मंच पर रह जाती है
| तो रचने और संप्रेषित करने के क्रम में निर्देशक ने
परिकल्पना की, अभिनेता ने जो साकार किया और दर्शकों पर तो संप्रेषित
हुई, वह रंगभाषा की तीन अलग-अलग अर्थों की स्थितियाँ हैं |
दरअसल, अभिनेता,
निर्देशक और प्रेक्षक तीनों ही रंगभाषा के नियामक तत्व हैं, जिनमें अभिनेता प्रमुख होता है | वह अभिनेता ही होता
है, जो अपने शरीर की भाषा और अन्य सहायक उपकरणों (जो दरअसल
इस खेल में द्वितीयक उपकरण होते हैं) से अमूर्त को मूर्त करता है | रंगभाषा एक जीवंत अनुभव है और यह जीवन्तता लोकनाटकों की जान होती है |
लोकमंच पर यह रंगभाषा अभिनेता की शक्ति का परिचायक है, जो हर बार कुछ नया करता है, हर बार उसकी भाषा की चमक
और निखरती तथा संप्रेषणीय होती है | मंच के केंद्र में
अभिनेता है, तो रंगभाषा के मूल में भी अभिनेता ही है |
यद्यपि कुछ वर्षों से निर्देशक की भाषा अपना स्थान
लेती जा रही है, पर अभिनेता के वृत्त (जो वह मंच पर
अपने इर्द-गिर्द खींचता है) को भेद नहीं पाई है और न भेद सकेगी | अगर रंगभाषा एक जीवित अनुभव है, तो अभिनेता उसका
जीवित सर्जक है | इतना ही नहीं, वह
रंगभाषा का प्रत्यक्ष भागीदार और अनिवार्य अंग है | अभिनेता
का सम्पूर्ण व्यक्तित्व रंगभाषा का कार्य करता है, बाकी
रंगोपकरण/आयोजन उसके सहयोगी की भूमिका निभाते हैं |
बी.वी.कारंथ ने रंगभाषा के केंद्र में जिस अभिनेता के
होने की बात की है, दरअसल वह हमारे लोकनाटकों पर अधिक
लागू होती है, जहाँ केंद्र में अभिनेता ही प्रमुख होता है,
परन्तु प्राथमिक तौर पर अभिनय उनका ध्येय नहीं बल्कि लोकरंजन मुख्य
अभीष्ट होता है | यह भी एक सच्चाई है कि कोई लोक कलाकार या अभिनेता
अपनी बोली/भाषा के परफार्मेंस में जितना स्वाभाविक होता है, वह
उसी कथा के साथ किसी दूसरी बोली/भाषा में निष्प्रभावी हो जाता है |
भारतीय रंगमंच केवल समृद्ध ही नहीं है बल्कि बहुरंगी
और गतिमान भी है | हिंदी पट्टी के नाट्य-रूपों के
अतिरिक्त कश्मीर का ‘जश्न’, राजस्थानी
का ‘ख्याल’,गुजरात का ‘भवाई’, बंगाल का ‘जात्रा’,असम का ‘अंकिया नाट’, महाराष्ट्र
का ‘तमाशा’, आन्ध्र प्रदेश का ‘वीथी भागवत’, तमिलनाडु का ‘थेरुकुट्टू’,
कर्नाटक का ‘यक्षगान’, केरल
का ‘कथकली’ इत्यादि अन्य लोकनाट्य रूप
हैं, जो भारतीय रंगमंच की उपलब्धि हैं | अपने विशाल देश में जिस ‘कम्पोजिट कल्चर’(साझी संस्कृति), अनेकता में एकता की बात की जाती है,
वह इन लोकनाट्यों में दिखायी देती है | यह
एकता कथानक, प्रदर्शन, पूर्वरंग,
अभिनय, दर्शक-प्रभाव आदि से बनती है | जहाँ तक इनकी प्रस्तुति का गणित है, तो वह भी अलिखित
तौर पर लगभग एक जैसा दिखाई पड़ता है | दरअसल, “इन लोकनाट्यों के पात्र अपनी परंपरागत शैली में मंच पर अभिनय करते हैं,
किन्तु कोई भी यथार्थवादी शैली अपनाने का प्रयास नहीं करता |
यहाँ तक कि किस गीत के साथ कैसा अभिनय, संवाद
या नृत्य होगा, यह रूढ़ हो गया है | परिणामतः
लोकनाट्यों का सम्पूर्ण आनंद उनकी परंपरागत शैली में निहित है | दर्शकगण उसकी तड़क-भड़क की अपेक्षा उसके काव्य-पक्ष का रस लेते हैं |”इतना ही नहीं, भरतमुनि ने अभिनय की जिन तीन
प्रवृतियों अनुरूपा, वृहदरूपा (विरूपा), अविरुपानुरूपा (रुपानुरुपा) का उल्लेख किया है, वह
किसी-न-किसी रूप में लगभग सभी अंचलों के लोकनाट्यों में मौजूद हैं | कला और साहित्य के अभिजनवादी मानसिकता के लिए यह रंगमंच शायद उसकी जड़ीभूत
सौन्दर्याभिरुची को तुष्ट न् करता हो, पर भारतीय लोक की
जातीय संस्कृति के इन कलारूपों से गहरी नजदीकी है | लोकनाट्य
का संबंध लोकजीवन के उस संवेदन पक्ष से है, जो उसके जीवन
जीने के, संस्कृति निर्माण के सन्दर्भ से जुड़ती है | इन लोकनाट्यों में बहुजन/ लोक के सांस्कृतिक अस्मिता के चिन्हों के
अतिरिक्त इनके जनजीवन के जीवन-संघर्षों और जीवन-मूल्यों की आवाज़ भी पाई जाती है |
[1] देखे आयनेस्को का कथन,रंगभाषा,गिरीश रस्तोगी,पृ.१५८
[2] वही,बी.वी.कारंथ का साक्षात्कार,वही,पृ.१८६.
[3] आधुनिक भारतीय रंगलोक,जयदेव तनेजा,पृ.७०.
[4] देखें,बी.वी.कारंथ का साक्षात्कार,रंगभाषा,गिरीश रस्तोगी,पृ.१८६.
[5] अन्तोनिन आर्तो का कथन,नाट्यभाषा,गोविन्द चातक,पृ.२२.
[6] लक्ष्मीनारायण लाल का साक्षात्कार,समकालीन हिंदी नाटक और रंगमंच,जयदेव तनेजा,पृ.१५८.
[1] देखे आयनेस्को का कथन,रंगभाषा,गिरीश रस्तोगी,पृ.१५८
[2] वही,बी.वी.कारंथ का साक्षात्कार,वही,पृ.१८६.
[3] आधुनिक भारतीय रंगलोक,जयदेव तनेजा,पृ.७०.
[4] देखें,बी.वी.कारंथ का साक्षात्कार,रंगभाषा,गिरीश रस्तोगी,पृ.१८६.
[5] अन्तोनिन आर्तो का कथन,नाट्यभाषा,गोविन्द चातक,पृ.२२.
[6] लक्ष्मीनारायण लाल का साक्षात्कार,समकालीन हिंदी नाटक और रंगमंच,जयदेव तनेजा,पृ.१५८.
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