रंगमंच तथा विभिन्न कला माध्यमों पर केंद्रित सांस्कृतिक दल "दस्तक" की ब्लॉग पत्रिका.

शनिवार, 26 नवंबर 2011

थियेटर करने का एक सामाजिक कारण होना चाहिए


सुप्रसिद्ध रंगकर्मी और साहित्यकार प्रसन्ना से अनीश अंकुर की बातचीत. प्रसन्ना से यह बातचीत मार्च 2001 में पटना की गई है. जाहिर है, रंगमंच और दुनिया के दृश्य पर तब से अब तक बहुत कुछ बदल चुका है. लेकिन इस बातचीत के सवाल लगातार प्रासंगिक बने हुए हैं. यहां पेश है वह पूरी बातचीत.

अभी बंगलोर में कर्नाटक के रंगकर्मियों के साथ जो खुली बातचीत हुई, उस बातचीत का मुख्य कन्सर्न क्या था?

जो बातचीत हुई उसका पहला उद्देश्य था उस समारोह को भारतीय रंगकर्म बनाया जाए, जिसकी 2-3 वजहें हैं. पहला तो यह कि आजादी के बाद हम थियेटर वाले कभी एक साथ मिले ही नहीं. इससे पहले थियेटर ने दूसरे माध्यमों से आगे बढ़कर नेशनल मूवमेंट में भाग लिया था और उस वजह से बहुत सारे कलाकार सामने आए मसलन असम से भूपेन हजारिका,बंगाल से रविशंकर, सलिल चौधरी.

आजादी के बाद थियेटर के लोग कभी एकजुट नहीं हुए. मुझे ये बहुत खला क्योंकि छोटे-छोटे प्रोफेशन चाहे वो बैंक हो या एलआईसी, सबका अपना प्रोफेशनल ऑर्गनाइजेशन है. इससे पहले हम लोगों ने नेशनल कन्वेंशन बुलाने की सोची थी जो नहीं हो पायी, वजह थी केन्द्र सरकार का रुख.
हमने कहा कि बंगलोर में हम अपने खर्चे पर 1000 लोगों को बुलाकर कन्वेंशन करेंगे और उस समय जो रंग महोत्सव दिल्ली में होता है, उसको सरकार बंगलौर में करें.दिल्ली का अपना कोई ऑडियेन्स तो है नहीं, वो आई ए एस अफसरों का शहर है. हो सकता है कि पुरानी दिल्ली में हों लेकिन नई दिल्ली में तो नहीं है. फिल्म महोत्सव आप दिल्ली में कीजिए लेकिन रंग महोत्सव दूसरे शहरों में भी करें. सरकार इसके लिए तैयार भी हो गई लेकिन बाद में यह मामला राजनीतिक वजहों से लटक गया.

बाद में हमने कन्वेंशन तो किया लेकिन पैसों की कमी की वजह से हम देश भर से लोगों को नहीं बुला सकें. वहां हमने तीन मुद्दे उठाए, पहला था राष्ट्रीयता की परिकल्पना का सवाल. संविधान की अनुसूची में जो भी भाषाएं शामिल हैं, उन सबको हम राष्ट्रीय भाषा मानते हैं और उनमें होने वाला रंगकर्म राष्ट्रीय है. दरअसल 20-25 साल से जो राष्ट्रीय रंगभूमि में हैं, वो हिन्दी को उसकी भाषा मानते है. इसका सबसे ज्यादा नुकसान भी हिन्दी थियेटर को हुआ क्योंकि उसका मतलब सिर्फ दिल्ली का थियेटर समझा जाता है बिहार यूपी का थियेटर नहीं. संस्कृति मंत्रालय के ग्रांट का आधे से ज्यादा पैसा दिल्ली को मिलता है. थियेटर की सुविधा के लिए सारे संस्थान दिल्ली में है, बच्चों के रंगकर्म के लिए बनी थियेटर एजुकेशन कंपनी ज्यादातर दिल्ली के स्कूलों में काम करती है. 

एनएसडी की बात करें तो पहले वहां से छात्र अपने शहरों में वापस जाते थे मगर 10-15 सालों से कोई वापस नहीं जा रहा. 80 फीसदी लोग मुंबई चले जाते है और जो बचते हैं वो एक दो साल बाद घूम फिरकर वहां चले जाते है. यानी वह ड्रामा स्कूल नहीं रह गया बल्कि टेलीविजान के लिए एक्टर तैयार करने वाला संस्थान है. इसका क्या मतलब रह जाता है? शिक्षा विभाग का दसवां हिस्सा भी नहीं मिलता कल्चर विभाग को और वहां से थियेटर के हिस्से सौवां भाग भी नहीं आता. इतना कम. 

पैसा भी थियेटर से टेलीविजन में जा रहा है. टेलीविजन तो उद्योग है करोड़ों कमा रहा है. होना ये चाहिए था कि वो अपना पैसा थियेटर में लगाता.ये ठीक वैसा ही है, जंगल खुद को काटकर कागज उद्योग लगाने वाले को सौंप दे. टेलीविजन और फिल्म आने के बाद थियेटर सिर्फ मनोरंजन का साधन नहीं रह गया है उसको आमजन की अभिव्यक्ति भी बनना है. वो सब उनकी भाषा में उनकी जगह पर होना चाहिए वरना थियेटर का कोई मतलब नहीं रह जाता. थियेटर के होने का एक सामाजिक कारण होना चाहिए.

पिछले 30-40 सालों में हमने राजनीतिक ढंग से एक सोशल रिकॉगनाइजेशन बनाया. मंडल कमीशन या दूसरे तरीकों से हमारी आवाज केन्द्र तक पहुंची है. अब जो नए लोग आ रहे हैं, वो इस प्रजातंत्र का हिस्सा कैसे बनें, इसको आप यूर्नीवसिटी में नहीं सिखा सकते. थियेटर उसके लिए सशक्त माघ्यम है. 

दूसरा मुद्दा था रंगकर्म की शिक्षा से संबंधित. एनएसडी के अलावा देश में 40 संस्थान हैं जो दूसरी भाषाओं में पढ़ा रहे है लेकिन उनके पास उचित नीति नहीं है, पैसे का अभाव है साथ ही कई राज्यों में ये संस्थान भी नहीं है. बिहार में ड्रामा का डिपार्टमेन्ट नहीं है. हम चाहते है कि संस्थानों को प्रॉपर सिलेबस मिले, पैसे मिलें और साथ ही जिम्मेदारी तय की जाए कि उन्हें पैसा कौन देगा. सभी राज्यों में एनएसडी खोलना बहुत खर्चीला है, इसलिए स्थापित संस्थानों का स्तर सुधरना होगा. बाद में इन्हीं को एनएसडी का रिकॉगनाइजेशन और ग्रांट्स देकर चलाना चाहिए.

तीसरा मुद्दा सांस्कृतिक पर्यावरण है. आप देखिए तो टीवी वगैरह लाइफ स्टाइल की इंजीनियरिंग कर रहा है. बिहार में भी हर कोई पेप्सी पी रहा है, वहां उसकी आदत लगा दी गई. अब जहां खाने को पैसा नहीं वहां अगर ये आदतें लग जाए तो समाज बर्बाद हो जाएगा.

मैंने अपने गांव; कर्नाटक में हरिजन टोले में 2 से 5 एकड़ जमीन वाले किसानों के बीच एक सर्वे कराया था, जिसके नतीजे ये थे कि गांव वालों के पास नकद पैसा नहीं है और अगर उनको वाशिंग पाउडर या कुछ और खरीदना है जिसका प्रसार टीवी कर रहा है तो उन्हे नकद पैसे देने होगें और अतिरिक्त कमाने भी होंगे.

टीवी और थियेटर के बीच संतुलन बनाना होगा. यहां अगर थियेटर वाला टीवी में चला जाए तो हम लोग उसमें पाप की भावना भर देते हैं जबकि यूरोप और अमरीका, जो इस दौर से गुजर चुका है ; वहां पैसा आप फिल्मों से कमाइए लेकिन सोशल रिकॉगनाइजेशन आपको थियेटर से मिलेगा. इंग्लैंड में 99 फीसदी स्कॉलरशिप थियेटर को मिलती है. सर गिलहुड जैसे बड़े एक्टर ने भी यहीं किया.

आपने आरंभ में ही कहा कि नेशनल थियेटर का रीजनल थियेटर से एक किस्म का कांट्राडिक्शन रहा तो फिर जब एनएसडी शुरू किया गया तो उसका उद्देश्य क्या था?

भारत को शुरु से ही बहुमुखी संस्कृति वाला देश कहा गया.राज्यों को हमने भाषा के आधार पर बांटा. राज्य के अंदर जितनी भी भाषाएं हैं, उनके संरक्षण की जिम्मेदारी राज्य सरकार के साथ-साथ केन्द्र सरकार की भी है. साहित्य अकादमी एक नहीं बीस अलग अलग भाषाओं के उपन्यासों और कविताओं को पुरस्कार देती है. थियेटर में ऐसा नहीं है, वो हमेशा से ही पैनइन्डियन रहा जिसकी वजह से भाषाओं में होने वाला थियेटर सेकेन्डरी हो गया. मैं सिर्फ अनुसूची आठ में शामिल भाषाओं की बात नहीं कर रहा बल्कि ये पूरे देश में फैली भाषाओं और बोलियों की बात है.

मिथिला में जाकर हम खड़ी बोली में नाटक क्यों करें मैथिली में क्यों नहीं ? छत्तीसगढ़ में जाकर छत्तीसगढ़ी में नाटक करना होगा और प्रांतीय नाटक करना होगा. ये मामला बेहद महत्वपूर्ण है और अगर इसे हमने ठीक से नहीं सुलझाया तो यह देश इकट्रठे नहीं रह सकता.

अभी एनएसडी और दिल्ली में जो थियेटर हो रहा है, उसी को नेशनल थियेटर के तौर पर देखा जाता है. इसी रुप में इसकी पहचान बनी है. एनएसडी द्वारा जिस ढंग से लोगों को प्रोत्साहित किया जा रहा है उसे कैसे देखते है आप?

ये बिल्कुल गलत है क्योंकि बड़े अन-नेचुरल ढंग से लोगों को प्रोजेक्ट कर दिया जाता है और फिर उसी एक आदमी को लगातार 10-20 साल तक दिल्ली बुलाया जाता है. ऐसा दिखाया जाता है कि वही कन्नड़ है, वही मणीपुरी है. लेकिन क्या दक्षिण के एक आदमी को पैसा मिलने का मतलब पूरे दक्षिण भारत को पैसा मिलना है. किसी भी राज्य के चार पांच लोगों को बढ़ा-चढ़ाकर प्रोजेक्ट कर दिया जाता है. उस राज्य में कितने लोग काम कर रहे हैं, किसी को मालूम नहीं और फिर जो लोग जमीन से जुड़कर काम कर रहे है उनको रिकॉगनाइजेशन कौन देगा.ब्रिटिश राज में थियेटर की जो स्थिति थी अब उससे भी बुरी स्थिति है.

देश में राजनैतिक सत्ता का केन्द्र दिल्ली है. वैसे ही क्या थियेटर या संस्कृति की तमाम गतिविधियां भी दिल्ली और उसके आस पास केन्द्रित नहीं हो गईं?

जब मैं एनएसडी गया तो सबसे पहले हमसे कहा गया कि आप लोग बहुत महत्वपूर्ण संस्थान में पहुचे हैं और यहां से बहुत कुछ सीखकर वापस अपने क्षेत्रों में जाकर हमें काम करना है. मेरा सवाल यहां यह है कि जो लड़का बिहार से आता है, उसके लिए तो यहां आकर दिल्ली का थियेटर प्रथम और बिहार का थियेटर द्वितीय बन गया. अब वो प्रथम को छोड़कर द्वितीय में क्यों जाएगा? वो तभी जाएगा जब दोनों बराबर हो. लेकिन एक हाइरारिकी बना दी गई है, जिसके चलते अगर कोई वापस भी जाना चाहे तो वो हाइरारिकी उसे जाने नहीं देगी.

तो फिर ऐसे में एन. एस. डी की क्या भूमिका रह जाती है?

अगर एनएसडी को विकेन्द्रित किया जा सके तो अभी भी इसका बहुत बड़ा रोल है. बिहार में अगर एनएसडी हो तो यहां से भी कुछ लोग टीवी में जाएंगे लेकिन वो सिर्फ 20 से 30 फीसदी होंगे, जबकि अभी सब के सब दिल्ली या मुंबई चले जाते है. इससे एनएसडी को नया जीवन मिलेगा. एनएसडी ने पहले 20 सालों में बहुत अच्छा काम किया है और इससे थियेटर का अच्छा विस्तार हुआ.

आपने अभी कल्चरल इकोलॉजी की बात की. 1990 के बाद ग्लोबलाइजेशन ने हमारे जीवन को जिस ढंग से प्रभावित व नियामित कर रहा है, उसके प्रति सचेत होते हुए ग्लोबलाइजेशन के विरुद्व लोकलाइजेशन को सामने लाने की बात हो रही है. कहा जा रहा है कि थियेटर लोकलचीजों को बचाने का बहुत बड़ा माघ्यम साबित हो रहा है. साथ ही थियेटर को एक समाज के कई हजार वर्षों की यात्रा से बने कॉमन सेंसको सामने लाने की कोशिश करनी चाहिए. ग्लोबलाइजेशन अपना कॉमन सेंस ला रहा है जो परंपरागत कॉमन सेंस को हाशिए पर धकेलता जा रहा है. थियेटर को इन सबसे कैसे निपटना चाहिए?

इसको खालिस इंटेलेक्चुअल ढंग से सोचना बहुत कठिन है और इससे बहुत ही खराब तस्वीर सामने आती है. मुंबई में एक सेमिनार में एक महिला ने कहा कि टीवी को हम हटा नहीं सकते लेकिन मैं चाहती हूं कि मेरा बच्चा थियेटर सीखें. मुझे ये एटीट्यूड ठीक लगा. हमें थियेटर इसलिए भी करना चाहिए ताकि हम अपने नातों को बनाएं रखें. बाइबिल में भी कहावत है कि नोआसार जैसे कुछ लोग भी रह जाते है.जिसे बिदेसिया के बारे में मालूम हो, वही आगे इसके बारे में बता सकता है.

आजादी के बाद 70 के दशक में बैक टू द रुट्रस-बेसिक्सकहा गया. इसके बाद हर प्रांत में पुराने फोक फार्म को ढूंढने की कोशिशें शुरु हुईं. कर्नाटक में यक्षगान, बंगाल में जात्रा, बिहार में बिदेसिया. इस दौरान नाटक का फॉर्म, कंटेन्ट पर हावी होता गया, डायरेक्टर पूरे नाटक के केन्द्र में आता चला गया और प्लेराइट पीछे धकेला गया. क्या इस पूरी परिघटना ने हिन्दी थियेटर को बहुत नुकसान पहुंचाया है?

बिल्कुल ठीक. लेकिन ये डायरेक्टर और प्लेराइट के बीच का झगड़ा नहीं है. इससे समसामयिकता को हटा दिया गया ये गलत है क्योंकि इस वक्त हमारे पास अपनी परंपराओं के साथ-साथ काफी समसामयिक समस्याएं भी हैं, जिन्हें बिदेसिया और रामायण लिखते वक्त नहीं सोचा गया था. जब हम अपनी परंपराओं की तरफ जाना चाहते हैं तो कुछ लोग पीछे की तरफ धकेल रहे है. वो ट्रेडिशन को होमोजीनियस इन्टटीमान कर चलते हैं. इससे वो राइट विंग बन जाता है और आरएसएस का एक प्रोपगेन्डा बन जाता है. 

मेरे हिसाब से परंपराओं की तरफ जाना चाहिए. इसमें भी दो तीन परंपराएं हैं. अगर ब्राह्यणवाद है तो दूसरी तरफ उसके खिलाफ लड़ रहा भक्तिपंथ भी है. मैं भक्तिपंथ के साथ खड़ा होकर अलम्मा, अक्का महादेवी के दृष्टिकोण से जुड़ना चाहता हूं.

कहा जाता है संस्कृति राजनीति के आगे चलने वाली मशाल होती है. सत्तर के दशक में आए बैक टू द रुटसमें एक किस्म का पुनरुत्थानवाद भी छिपा था. अस्सी और नब्बे के दशक में पुनरुत्थानवादी, सांप्रदायिक राजनीति ने जो केन्द्रिय स्वरुप ग्रहण किया, क्या वो संस्कृति के क्षेत्र में उसकी पूर्वपीठिका तैयार हो रही थी?

इस बारे में सोचते समय हमें आत्म-आलोचना से गुजरना चाहिए. सत्तर के दशक में आए बदलाव की वजह 10-20 साल पहले से प्रचलित इंडीवीजूयलिस्टक मिडिल क्लास थियेटर था, जिसने थियेटर को आमजनों से जुड़ने नहीं दिया. सत्तर के दशक में थियेटर को लोकप्रिय बनाने के लिए ही बैक टू द रुट को केन्द्र में रखकर कोशिश की गई. सारी गलती भाजपा या आरएसएस की नहीं थी, गलती हमारी भी थी. सत्तर से पहले वामपंथी अल्ट्रा मार्डन बने थे. उनका झुकाव टेक्नोलॉजी की तरफ बहुत ज्यादा था. उस वक्त समाजवाद को भी गलत ढ़ग से लिया गया.

अब कुछ बातें वामपंथी सांस्कृतिक आंदोलन की. आजादी की लड़ाई के दौरान इप्टा ने अपने ढंग से उपनिवेशवाद विरोधी संघ में हिस्सा लिया. अब फिर से एक नए किस्म के उपनिवेशवाद और आर्थिक गुलामी की चर्चा हो रही है. इस वक्त वाम सांस्कृतिक आंदोलन के सामने क्या दिक्कतें है?

अगर आप देखें तो आजादी के बाद पार्टी और कल्चर के बीच तनाव बढ़ गया. कल्चर वाले चाहते थे कि जो भी वो गाना गाएं या नाटक करें, उसको पार्टी प्रोग्राम से जोड़ा जाए. जबकि इनकी कोशिश आमजनों को पार्टी से जोड़ने की होनी चाहिए थी. यानी दोनों के बीच पुल का काम. इधर 20-30 सालों में सांस्कृतिक मुद्दे ही राजनीतिक मुद्दे बन गए है. भाषा, राष्ट्रीयता सारी समस्या मुद्दे बन गए. वाम आंदोलन को इन सबके लिए तैयार रहना चाहिए था.

बाबरी मस्जिद विध्वंस हुआ तो हम लोग सिर्फ पॉलिटिकल स्लोगन देते रह गए और ठीक उसी तरह काम किया जैसा आडवाणी या भाजपा चाहते थे. वो चाहते थे कि हमारी इमेज सिर्फ मुसलमानों के दोस्त के तौर पर बने. ये इमेज अच्छी है लेकिन भाजपा चाहती थी कि हम हिन्दुओं की नजर में मुसलमानों के दोस्त बनें और हम बन भी गए. हमने ये नहीं सोचा कि राम, बाबर से नहीं लड़े थे बल्कि रावण से लड़े थे जिसको भाजपा वालों ने राम और बाबर का झगड़ा बना दिया. 
राम पर लोगों का विश्वास 2000 साल पुराना है. चूंकि भाजपा ने राम को पकड़ा इसलिए हमने राम को छोड़ दिया. मुसलमानों का साथ देना ठीक है लेकिन राम को भी साथ लेकर चलना होगा. आप देखिए तो इस देश में सारे आंदोलन राम के नाम पर हुए. बाबा रामचंद्र ने राम के नाम पर किसानों को संगठित किया तो गांधी जी ने भी राम का सहारा लिया और अब भाजपा राम नाम का गलत इस्तेमाल कर रही है. 

हमें हमारी परंपरा में जो आंदोलन हुए उन्हें साथ लेकर चलना चाहिए. वामपंथी लोग अंतर्राष्ट्रीय बात करते है. आर्थिक और राजनैतिक क्षेत्र में तो ये ठीक हैं लेकिन संस्कृति के क्षेत्र में हमें अपनी भाषा बोलनी चाहिए, जो लोगों की समझ में आए. ज्यादातर वामपंथी अपनी भाषा नहीं बोलते, बाहर का उदाहरण देते है.

देश में एक साथ कई परंपराएं हैं और एक परंपरा दूसरे के विरोध में खड़ी है.वामपंथी इसी चीज को मान्यता नहीं दे रहे, इसलिए पीछे हैं. दूसरा यह कि वाम सांस्कृतिक आंदोलन में काम करने वालों को सांस्कृतिक आंदोलन के साथ होना चाहिए, पार्टी के साथ नहीं. 

मुझे जो भी कहना है वो मैं अपने नाटकों में डालूंगा. तीसरा ये कि अगर लेफ्ट और गांधी जी की विचारधारा मिल जाए तो एक बड़ा फोर्स बन सकता है. लेफ्ट का मतलब सिर्फ पार्टी नहीं बल्कि 1960-1970 के बीच आए लोगों से भी है. ये लोग पूरे देश में शिक्षा से लेकर तमाम क्षेत्र में बहुत ही सकारात्मक ढ़ंग से बिखरे.

कहीं ऐसा तो नहीं कि मार्क्सवाद की एक यांत्रिक किस्म की समझदारी हो कि संस्कृति के मुद्दे दरअसल सुपर-स्ट्रक्चर मुद्दे है. मूल चीज तो इकोनामीहै जब तक ढांचागत स्तर पर कोई परिवर्तन नहीं आता तब तक.........

ये बकवास है. एक बार राजीव गांधी ने आंध्र में आंध्र के एक लोकप्रिय आदमी के बारे में कुछ कह दिया. इससे लोग इतना नाराज हुए कि कांग्रेस का सफाया हो गया. तेलुगूदेशम इसी मुद्दे पर आई. असम में असमगण परिषद भाषा और आइडेन्टिटी के मुद्दे पर आई. पंजाब, कर्नाटक सभी जगह ये मुद्दे महत्तवपूर्ण हैं. लेफ्ट सिर्फ इसकी आलोचना करके चुप हो जाता है. 

हमारी जिम्मेदारी यहां इस मुद्दे को ठीक ढंग से उठाने की भी है. लोगों को ये डर है कि वो अपनी पहचान खो रहे हैं और लेफ्ट सिर्फ ट्रेड यूनियन में उलझा हुआ है. जब करोड़ों लोग ईंट लेकर आए तो कह दिया कि तुम गलत हो. लोग गलत नहीं थे, उनको गलत ढ़ंग से ऑर्गेनाइज किया गया था. वो भी इसलिए कि हम लोग बेवकूफों की तरह बैठकर सिर्फ आडवाणी के खिलाफ बोलते रहे.

आपने इप्टा के बारे में कहा कि विचारधारात्मक स्तर पर अब तक की जो समझदारी थी, उसे दुरुस्त करना होगा. क्या इप्टा का जो पुराना सांगठनिक ढांचा बेहद केन्द्रीयकृत था, उस स्तर पर भी बदलाव की आवश्यकता है?

आप बिल्कुल ठीक कह रहे है. हमारा कल्चरल मूवमेंट डिसेंट्रलाइज्ड ढंग से ही हो सकता है. चूंकि अब टीवी, सिनेमा और राजनीति सेंट्रलाइज्ड हो गया है यानी अब इसको करने के लिए आपको लाखों चाहिए. ऐसे में कल्चरल मूवमेंट इसके उलट होना चाहिए. मतलब आपको छोटे-छोटे समूहों में उनकी बोलियों में, उनकी भाषा में काम करना होगा. एक बार ऐसा हो गया तो फिर कोई उस मूवमेंट को कोई रोक नहीं सकता.

अमरीका आपकी सेनाओं को रोक सकता है. बमबारी करवा सकता है लेकिन लोगों के बीच गए इस आंदोलन को नहीं रोक सकता है. खुद अगर हम लेफ्टिस्ट हैं तो हम दिल्ली में बैठकर क्या कर रहे है? हमें लोगों के बीच जाकर काम करना होगा. अभी भी कुछ बेवकूफ लोग कहते हैं कि टीवी बहुत ताकतवर है और हमें उसका इस्तेमाल करना चाहिए. अगर हम ऐसा करना चाहें तो वो हमें आसानी से शामिल कर लेंगे. उन्हें तो टोस्ट में लगाने वाला जैम चाहिए. वो तो दोनों ब्रेड के पीस हैं. उन्हें बीच में अगर मार्क्स या टैगोर भी लगाने को मिलें तो वो लगा लेंगे.

थियेटर का एक खेमा ये सोचता है कि थियेटर का आगे विकास करना है तो टी वी व सिनेमा के समान ही उसे भी तकनीकी स्तर पर सुदृढ़ करना होगा. आप क्या सोचते है?

ये गलत है. थियेटर को तकनीकी स्तर पर बेहतर बनाना अच्छा है लेकिन उसे खालिस तकनीकी माघ्यम बना देना गलत है. ऐसा नहीं होना चाहिए कि जब तक आप के पास 20 लाख रुपये नहीं हों तब तक आप अपना प्रोडक्शन नहीं कर पाएं. भारत जैसे देश में तो ये और भी गलत है. हमारा थियेटर शुरु से ही सस्ते में फ्लैक्सिबल ढ़ग से होता रहा है और ऐसे ही होते रहना चाहिए. हमारे यहां जितना टैलेन्ट हैं उतना कहीं और नहीं है. मसलन हमारे यहां औरतें बहुत बेहतर ढंग से हाथ चला सकती हैं, पतली-पतली रोटियां बना सकती हैं. ये डेलीकेट हाथ देश के किसी भी कोने में मिल जाता है. लेकिन हम इसको नजरअंदाज कर रहे है. मैं बिहार इम्पोरियम गया तो वहां लोगों की हस्तकला देखकर हैरान रह गया. जो स्थिति है उसे देखकर शर्म और गुस्सा दोनों आता है.

आपने हिन्दी रंगमंच करना काफी कम कर दिया है. अब तो दिल्ली भी छूट गया है. ये दोनों लगभग एक साथ रहा. इतने दिनों तक हिन्दी रंगमंच करने के बाद आपको इसकी असल चुनौतियां क्या लगती हैं?

हिन्दी के बारे में दूसरी भाषाओं के लोगों की समझ ये बनती है कि चूंकि ये हमारी राष्ट्रभाषा है, इसलिए इसको ज्यादा तरजीह, पैसा मिलता है और वो हमारे हिस्से का भी पैसा ले लेती है. हमारी नीतियों ने हिन्दी और दूसरी भाषाओं के बीच तनाव सा ला दिया है. मुझमें भी वो गुस्सा था लेकिन बाद में मैने महसूस किया कि उनकी स्थिति तो हमसे भी ज्यादा खराब है. ये समझ भी बनी कि राष्ट्रीय रंगभूमि या राष्ट्रभाषा ये सब बकवास है. ये सब बस दिल्ली में सत्ता पकड़ कर रखने का यन्त्र है.

मैंने हिन्दी में जो काम किया है, उसे मैं बहुत महत्तावपूर्ण मानता हूँ और हिन्दी में जब भी काम करने का समय मिलेगा मैं करुंगा. मेरी प्राइरिटी लिस्ट में दिल्ली की जगह पटना और मुंबई की जगह उड़ीसा होगा.

हिन्दी समाज एक भारी उथल-पुथल से गुजर रहा है.अब तक दबे कुचले समूह ताकत के साथ अपने अधिकार मांग रहे हैं. एक तरह के दलित-पिछड़ा उभार से हिन्दी समाज गुजर रहा है. लेकिन साहित्य में या विशेषकर कर हिन्दी थियेटर में ये दिखाई नहीं देता. आप महाराष्ट्र में देखें, वहां दलित साहित्य का आंदोलन है.हिन्दी इलाके के थियेटर में यहां की शक्तियों का जो इम्पावरमेंट हुआ वो क्यों नहीं दिखता है?

पिछले 100-150 साल में थियेटर का विकास दो तरीकों से हुआ. बंदरगाह वाले राज्य मसलन मुंबई, कलकत्ता.यहां अंग्रेजों के साथ-साथ पॉवर और थियेटर का अच्छा खासा विकास हुआ.जहां बंदरगाह नहीं थे वहां दूसरे तरीके से विकास हुआ. हिंटरलैंड में थियेटर का आंदोलन छोटे शहरों से शुरु हुआ. इन शहरों में कल्चरल यूनीफिकेशन होता है. कर्नाटक में एक जगह है धरवाड़, वहीं से मल्लिकार्जुन, भीमसेन जोशी, गंगूबाई और दो ज्ञानपीठ पुरस्कार से नवाजे गए लोग निकले. इसी तरह यू पी में बनारस है, लखनउ या कानपुर नहीं. बिहार में भी शायद ऐसी जगह हो, हमें उनको मुंबई या कलकत्ता बनाने की जरुरत नहीं है बस उनको सर्पोट करना है जो पिछले 30 सालों में हिन्दी थियेटर ने नहीं किया. पूरे हिन्दी थियेटर को एक शहर दिल्ली में डाल दिया.

हिन्दी को एक कल्चरल इन्टटीके तौर पर देखना होगा न कि पॉलिटिकल इन्टटीकी तरह. राजस्थान, बिहार, जम्मू में कोई अंतर नहीं है लेकिन सांस्कृतिक तौर पर सब अलग हैं.बिहार में पांच अलग-अलग भाषाएं हैं और हमें सब पर घ्यान देना होगा. हिन्दी थियेटर के प्रशिक्षण संस्थान से लेकर संरचना में विकेन्द्रीकरण करना चाहिए. यहां केन्द्रीकरण तमिलनाडु या कर्नाटक से भी ज्यादा है.

दूसरा ये कि इंडीवीजुअल ग्रांटस नहीं मिलनी चाहिए. उन पर पैसा कम खर्च करके मूल सुविधाओं पर खर्च करना चाहिए.यहां एक तथ्य ये भी है कि थियेटर का विकास जहां कहीं भी हुआ सरकार ने ही किया. यूरोप में ज्यादातर रेपरटरी को म्यूनिसपॉलिटी चलाती हैं. हमारे यहां एक भी ऐसा उदाहरण नहीं है. जबकि एक रेपरटरी चलाने से म्यूनिसपॉलिटी को दस गुना पैसे भी आता है.थियेटर की भूमिका बढ़ती जा रही है. स्कूलों की इसमें दिलचस्पी बढ़ रही है. हमें उससे ही अपनी रोजी-रोटी का जुगाड़ करना होगा. कम्युनिकेशन की दिक्कत है. स्कूल वालों को पता नहीं है, थियेटर वाले कहां मिलेंगे. थियेटर वाले भी अनजान है. कर्नाटक में थियेटर प्रोफेशन की तरह लिया जाता है. वहां थियेटर ग्रेजुएट महीने में 20-30000 कमा लेते है.

आजकल एनजीओ भी थियेटर में काफी सक्रिय हो गया है. एनजीचओ का थियेटर विषय के कॉम्पार्टमेंटलाइजेशन पर ज्यादा जोर देता है. प्रतिरोध की कला को सहमति की कला में तब्दील कर देता है. थियेटर वालों को एनजीओ के साथ किस किस्म का रिश्ता बनाना चाहिए?

किसी भी देसी काम के लिए बाहर से पैसा आना गलत है क्योंकि वो तब तक होता रहेगा जब तक पैसा आएगा. बाहर से जब पैसा आता है तो ज्यादा खर्च करने की आदत बन जाती है. एनजीओ की ये समस्या है. 

अगर सिर्फ सामाजिक समस्याओं को लेकर थियेटर करते हैं तो थियेटर कभी-कभी बहुत निचले दर्जे का करना पड़ता है. लेकिन यहां मैं ये भी कहता हूँ कि आपमें इतना लचीलापन होना चाहिए कि जिस भी माघ्यम के लिए आप काम कर रहे हैं उसके लिए तैयार रहिए. इधर 30-40 सालों में शौकिया थियेटर बहुत बढ़ा है. प्रोफेशनलिज्म जो पहले था, वो खत्म हो चुका है उसकी जगह नया प्रोफेशनलिज्म लाना होगा.

थोड़ी बातें नुक्कड़ नाटक की. सफदर हाशमी की हत्या के नुक्कड़ नाटक आंदोलन में एक उभार आया पर पिछले 3-4 सालों से उसमें एक ठहराव प्रतीत होता है. पहले तो ये भी बहस चलती थी कि नुक्कड़ नाटक है भी या नहीं......

हमें नुक्कड़ नाटकों को लेकर ये गलतफहमी है कि जो भी इस माघ्यम से कहा जाएगा लोग उसे अपने जीवन में शामिल कर लेंगे. जबकि लोग बात तभी मानेंगे जबकि नाटक करने वाले की कथनी और करनी में फर्क न हो. उस वक्त आप रामायण को भी सोशलिस्ट ढंग से व्याख्यायित कर लीजियेगा. और अगर आप झूठे है तो मार्क्स के मैनीफेस्टो को भी लोग झूठ ही मानेंगे. फिर चाहें आप नसीरुद्दीन शाह से ही नाटक क्यों न करवा लीजिए. 1960-70 में नुक्कड़ नाटक भी लोग करते थे और हरिजन टोले में जाकर चाय भी पीते थे. अब नुक्कड़ नाटक को सिर्फ इडियोलाजिकल स्लोगनबना लिया गया है और लेफ्ट के लोगों ने ऐसा किया.

आलोचक कहते रहे है कि इस नाटक की संरचना में ही कुछ कमजोरी है कि बड़ी बातें या सवाल उठाए नहीं ला सकते. ज्यादा से ज्यादा इससे प्रचार हो सकता है.थियेटर में जो जादू है वों नुक्क्ड़ पर संभव नहीं.........

नुक्कड़ नाटक या कोई भी कला जब एक हद से आगे बढ़ती है तब प्रेक्षक लोगो को सहृदय लोगों की जरुरत पड़ती है. नुक्कड़ों पर लोग भागते-फिरते है. वो 10-15 मिनट तो आपकी बात पर घ्यान देंगे लेकिन फिर अपने काम पर लग जाएगें. नुक्कड़ नाटक की ये लिमिटेशन है.अगर नुक्कड़ नाटक को भी वही सहृदयता मिलें तो स्टेज प्ले को मिलती है तो वो भी आगे बढ़ेगा.

3 टिप्‍पणियां:

  1. प्रसन्ना का यह साक्षात्कार कई महत्त्वपूर्ण मुद्दे उठाता है, लेकिन शुरू में ही प्रसन्ना यह कह कर कि दिल्ली का कोई अपना थियेटर आडियंस नहीं है, अपने पूर्वाग्रह साफ कर देते हैं। शायद वे नहीं जानते कि पिछले बीस-पच्चीस वर्षों में दिल्ली में नाटक का एक बड़ा दर्शक-वर्ग तैयार हो चुका है और आज एक बड़ा दर्शक-वर्ग टिकट लेकर नाटक देखता है। दूसरी बात यह कि अगर दिल्ली अफ़सरों, राजनेताओं का शहर है तो उसके लिए यह दर्शक वर्ग क्या कर सकता है। देश की राजधानी होने के नाते यह तो दिल्ली की मजबूरी है कि वह अफ़सरों और राजनेताओं की एक बड़ी फौज को पाल रही है।
    उनकी इस बात से मैं अक्षरश: सहमत हूँ कि राष्ट्रीय नाट्य-विद्यालय का विकेन्द्रीकरण होना चाहिए। दिल्ली में उपलब्ध सुविधाएँ ही यहाँ फ़िल्म या रंग-महोत्त्सवों अधिक सफल बना देती है। और उन्हों ने रंगकर्मियों की एकजुटता की जो बात कही है, वह भी सही है लेकिन क्षमा करेंगे कि अनेक रंगकर्मी बहुत ही क्षुद्र मानसिकता के शिकार हैं। विरोध और असहमति विचारधारा या किन्हीं मूल्यों को लेकर हो तो बात समझ में आती है, लेकिन बहुत छोटे-छोटे स्वर्थों ने अनेक रंगकर्मियों को एक कदर जकड़ा हुआ है कि वे अपने छोटे छोटे दायरों से बाहर नहीं निकलते। फ़िर भी वैचारिक स्तर पर एकजुटता के प्रयास जारी रहने चाहिएँ। ऐसी एकजुटता अपेक्षाकृत अधिक दीर्घजीवी होती है। यहाँ प्रश्न और भी बहुत हैं, जो फ़िर कभी।

    जवाब देंहटाएं
  2. WE NEED MORE INSTITUTIONS LIKE NSD.NSD SELECTS ONLY 26 STUDENTS PER YEAR.ARE THERE ONLY 26 TALENTS IN THIS ONE BILLION COUNTRY? -
    _VIVEK[PRANGAN,PATNA]

    जवाब देंहटाएं
  3. nsd ka beekendrikaran to hona hi chahiy.ppp k aadhar per harek rajy mai nsd ka wing khulna chahiy.ak gyan bardhak sambaad k liy anishjii abm aap k blog ko badhae.
    diwakar ghosh
    bhagalpur
    bihar

    जवाब देंहटाएं