रंगमंच तथा विभिन्न कला माध्यमों पर केंद्रित सांस्कृतिक दल "दस्तक" की ब्लॉग पत्रिका.

गुरुवार, 5 जनवरी 2012

पूरबी के बेताज बादशाह : महेंदर मिसिर

महेन्द्र मिसिर 
कुमार नरेन्द्र सिंह

उस दिन महेन्दर मिसिर अपने एक दोस्त के साथ कलकत्ता (कोलकाता) की मशहूर तवायफ सोना बाई के कोठे पर पहुंचे थे मुजरा सुनने। दोस्त ने बताया था कि एक बार जो सोनाबाई का गाना सुन लेगा उसे जीवन भर किसी दूसरे का गाना अच्छा नहीं लगेगा। दोस्त के मुंह से सोनाबाई के गायन की शोहरत सुनने के बाद महेन्दर मिसिर के लिए रुक पाना कहां संभव था। लड़कपन में लगा संगीत का चस्का अब कलावंत बनकर जवान हो चुका था। महेन्दर मिसिर का दोस्त सोनाबाई से परिचित था। जब सोनाबाई ने पूछा कि साथ में यह व्यक्ति कौन है तो उसने बताया कि वह मेरे दोस्त हैं और आपकी शोहरत सुनकर आपकी महफिल में आए हैं। बातों-बातों में दोस्त ने यह भी बताया कि महेन्दर मिसिर स्वयं भी सुर के रसिया हैं और गाते-बजाते भी हैं। फिर क्या था – साजिंदे आ गए और लग गई गीतों की महफिल। सोनाबाई ने अपने साजिंदों को संकेत दिया….वे हरकत में आ गए और सोनाबाई के कंठ से स्वर लहरी फूट उठी। गाने के बोल थे – 

माया के नगरिया में लागल बा बजरिया
ए सुहागिन सुन हो।

चीजवा बिकेला अनमोल
ए सुहागिन सुन हो।

महेन्दर मिसिर भाव-विभोर होकर सुनते रहे। गाना समाप्त होने के बाद जब सोनाबाई ने उनसे पूछा कि गाना कैसा लगा तो महेन्दर मिसिर ने कहा – आपका आलाप लाजवाब है और आवाज जादुई…आवाज में ऐसी कशिश मैंने कहीं औऱ नहीं देखी है लेकिन स्वर के उतार-चढ़ाव और भावों की अदायगी में वह रवानगी नहीं थी, जो इस गाने में होनी चाहिए थी। महेन्दर मिसिर की यह बात सुनते ही जैसे सोनाबाई के तन-बदन में आग लग गई। उसने हिकारत की नजर से महेन्दर मिसिर को देखा और व्यंग्य वाण छोड़ते हुए कहा – मिसिर जी, गलती निकालना तो आसान होता है…जरा आप ही गा कर बताइए न कि गाने में चुक कहां हुई। पहले तो मेहन्दर मिसिर ने ना-नुकुर की लेकिन जब सोनाबाई ने यह कह दिया कि अपने तो गाने आता नहीं और चले हैं सोनाबाई के सुर में दाग दिखाने, तो महेन्दर मिसिर ने सोनाबाई के साजिंदों को बजाने का इशारा किया और स्वयं तानपुरा लेकर बैठ गए। सुर संधान कर जब उन्होंने गाना शुरू किया तो सोनाबाई को ऐसा लगा जैसे महेन्दर मिसिर नहीं बल्कि स्वयं गंधर्वराज चित्ररथ गा रहे हों। वह सुध-बुध बिसरा कर गीत सुनने लगी…ऐसे जैसे किसी ने उस पर सम्मोहन मंत्र डाल दिया हो। उसने सपने में भी नहीं सोचा था कि कोई इतना अच्छा गा सकता है। जब गाना खत्म हुआ तो सोनाबाई ने महेन्दर मिसिर के पांव पकड़ लिए और अपनी गलती के लिए बार-बार माफी मांगने लगी। मिसिर जी ने उसे माफ कर दिया और बातों-बातों में यह भी बता दिया कि जो गीत वह गा रही थी, वह उन्हीं का लिखा हुआ है। सोनाबाई ने कहा कि वह उनकी शिष्या बना लें तो उसका जीवन सार्थक हो जाएगा। कहने की आवश्यकता नहीं कि महेन्दर मिसिर ने उसकी यह इच्छा की। वह महीनों सोनाबाई के साथ रहे और अपनी रागिनी से उसके अंतर का क्लेश दूर करते रहे।

महेन्दर मिसिर अद्भुत प्रतिभा के धनी तो थे ही, उनका व्यक्तित्व भी बहुआयामी था। पहलवानी की बदौलत गठा हुआ कसरती वदन, सिल्क का कुर्ता, परमसुख धोती, गले में सोने का चमचमाता हार और मुंह में पान गी गिलौरी – जो देखता, देखता ही रह जाता। कद-काठी और सुदर्शन रूप ऐसा कि हजारों की भीड़ में दूर से ही नजर आ जाते थे। जैसी सुंदर काया, उतनी ही सुरीली आवाज और ऊपर से मर्दानी ठसक गजब की। गीत-संगीत के रसिया और मर्मज्ञ महेन्दर मिसिर आशु कवि थे। सरस्वती के वरद पुत्र महेन्दर मिसिर के कंठ से जब गीत के बोल फूटते थे तो कहते हैं कि सड़क जाम हो जाती थी। उनकी खास विशेषता यह थी कि वह सिर्फ अपने लिखे गीत ही गाते थे। उनके गीतों की मिठास आज भी ज्यों की त्यों है। उनके गीत सुनकर कौन न भाव-विभोर हो जाए। स्वर का उस्ताद तो वह थे ही, वादन कला में भी वह उतने ही प्रवीण थे। कहते हैं कि शायद ही कोई ऐसा वाद्य हो, जिसमें वह सिद्धहस्त नहीं थे। हारमोनियम हो या तबला, सितार हो या सारंगी, उनकी उंगलियों के करतब देखकर लोग दंग रह जाते थे। ढोलक, झाल, मजीरा के तो वह बेमिसाल फनकार थे ही, कभी-कभी बांसुरी की मधुर तान के साथ गोपी प्रसंग के गीतों पर जब आलाप लेते थे तो लगता था जैसे फिजां में विरह रस घुल रहा हो।

छपरा से 12 किलोमीटर दूर काहीं मिश्रवलिया गांव में 16 मार्च,1887 को पैदा हुए महेन्दर मिसिर मां-बाप के अतिशय दुलार के कारण बचपन से ही बिगड़ैल और मनशोख थे। पढ़ने-लिखने में उनका मन बिलकुल नहीं लगता था। लड़कपन से ही उनकी मन गीत-गवनई, नाच-नौटंकी में रमने लगा था। उनके पिता शिवशंकर मिश्र छपरा के एक छोटे-मोटे जागीरदार थे और वहीं के एक बड़े जमींदार हलवंत सहाय से उनकी खूब पटती थी। सरकारी कामकाज के चलते सहाय जी के यहां उनका आना-जाना लगा रहता था। कभी-कभी वह महेन्दर मिसिर भी अपने पिता के साथ वहां आते-जाते थे। सहाय जी को गीत-गवनई से बड़ा अनुराग था। उनके दरबार में कलावंतों की बड़ी इज्जत थी। इसी आने-जाने के दौरान हलवंत सहाय की पारखी नजरों ने मिसिर जी के अंदर के कलाकार को पहचान लिया और अपने दरबार में उन्हें आश्रय दे दिया। हलवंत सहाय का साथ पाकर महेन्दर मिसिर की गायकी परवान चढ़ने लगी….उनके गीतों के बोल जन-जन तक पहुंचने लगे।

हलवंत सहाय विधुर थे और संतान विहीन भी। उनकी पत्नी असमय ही उन्हें छोड़कर स्वर्ग सिधार गई थीं। एकाकी जीवन जी रहे सहाय जी का अधिकांश समय नृत्य-गीत क महफिल सजाने में ही कटता था। रईसी ठाठ-बाट के सात नाच-गान का आयोजन उनके दरबार की खासियत थी। दरबार का आश्रय पाकर महेन्दर मिसिर की गायकी फूलने-फलने लगी और उसकी सुगंध चहुंदिशी पसरने लगी। कलाकार और कला मर्मज्ञ साथ हों दोस्ती क्योंकर न होती। अब सहाय जी का घर ही मिसिर जी का घर था और सहाय जी थे उनके परम सखा। सहाय जी उस समय की सबसे मशहुर तवायफ मुजफ्फरपुर की ढेलाबाई के प्रेम में गिरफ्तार थे। वह किसी भी कीमत पर ढेलाबाई को पाना चाहते थे। उन्होंने यह बात अपने परम सखा महेन्दर मिसिर को बताई। थोड़े दिन के बाद पता चला कि ढेलाबाई का अपहरण हो गया। बताया जाता है कि ढेलाबाई के अपहरण में महेन्दर मिसिर का भी हाथा था। अपने दोस्त का मान रखने के लिए ही मिसिर जी ने ढेलाबाई का अपहरण करवाया और उसे हलवंत सहाय के हुजूर में डाल दिया। ढेलाबाई को पा कर हलवंत सहाय ने सबकुछ पा लिया। हलवंत सहाय ने ढेलाबाई को अपने दिल के साथ-साथ अपनी जायदाद की मालकिन भी बना डाला। सहाय जी ने अपनी सारी जायदाद ढेलाबाई के नाम कर दी। ढेलाबाई ने भी धीरे-धीरे नाचना,गाना छोड़ दिया क्योंकि यह हलवंत सहाय की प्रतिष्ठा के खिलाफ था।

समय ने एक बार फिर करवट ली। हलवंत सहाय अचानक गायब हो गए। कोई नहीं जान सका कि वह कहीं चले गए या उनकी मृत्यु हो गई। बहरहाल, सहाय जी के नहीं रहने पर अब ढेलाबाई की देखभाल की जिम्मेदारी महेन्दर मिसिर के सिर पर आ गई। सहाय जी गायब होने के बाद उनके पट्टीदारों ने ढेलाबाई की कोठी पर धावा बोल दिया। इसी अवसर पर महेन्दर मिसिर का रौद्र रूप सामने आया। वह अपनी टोली के सदस्यों के साथ स्वयं लाठी लेकर ढेलाबाई के विरोधियों पर पिल पड़े और उन्हें मार भगाया। अब महेन्दर मिसिर ढेलाबाई के रक्षक बन चुके थे। इन सब कारणों से ढेलाबाई के मन में भी महेन्दर मिसिर के लिए प्रीत फूटने लगी। हलवंत सहाय के सानिध्य में ढेलाबाई ने नाचना-गाना बिसार दिया था…पैरों के घुंघरू खोलकर रख दिए थे। लेकिन एक दिन ढेलाबाई ने फिर से घुंघरू बांध लिए। हुआ यह कि एक रात महेन्दर मिसिर ढेलाबाई की कोठी में बने शिव मंदिर में स्वर साधना कर रहे थे। उनके गीत के बोल चांदनी रात में मोती की तरह बिखर रहे थे। उन्हीं मोतियों को अपने आंचल में बटोरकर ढेलाबाई ने अपने पांवों में फिर से घुंघरू बांध लिए औ नाचने लगी। संगीत और नृत्य का यह सहगमन काफी देर तक चलता रहा और तब तक चलता रहा, जब तक ढेलाबाई थककर चूर नहीं हो गई। उस रात के बाद महेन्दर मिसिर औऱ ढेलाबाई की जिंदगी ही बदल गई। समय के रथ पर सवार दोनों की जिंदगी बीतने लगी। परंतु यह तो बाद की बात है। इससे पहले और कुछ भी हुआ था।

कलकत्ता में रहते हुए महेन्दर मिसिर का संपर्क वहां के कतिपय क्रांतिकारियों से हुआ और उनके मन में स्वतंत्रता की आग जलने लगी। छपरा में ही रहते हुए एक दिन उनकी मुलाकात मुक्तानंद जी से हूई जो एक क्रांतिकारी संगठन के सदस्य थे। वह कलकत्ता से महेन्दर मिसिर के लिए एक संदेश लेकर आए थे जिसमें कहा गया था कि वह बनारस जाकर अभयानंद जी से मुलाकात करें। महेन्दर मिसिर बनारस पहुंच गए। वह गए तो थे सिर्फ अभयानंद जी से भेंट करने लेकिन एक बार वहां पहुंचे तो तीन महीने वहीं रह गए। वहां रहते हुए उनके गीतों की जबर्दस्त धूम मची, कचौड़ी गली के कोठे गुलजार हो उठे। रसिक जन महेन्दर मिसिर के गीतों के दीवाने हो उठे। इसी सिलसिले में उनकी मुलाकात केसरबाई और विद्याधरीबाई जैसी मशहूर नर्तिकयों से हुई। केसरबाई ने तो मिसिर जी से बाकायदा पूर्वी ठाठ का संगीत सीखा। मिसिर जी का साथ पाकर केसरबाई शोहरत की बुलंदी पर पहुंच गईं और वनजूही की खुशबू की तरह उनकी मदमाती आवाज फिजां में घुलने लगी। महेन्दर मिसिर के जीवन में यहां एक और मोड़ भी आया…अब वह कबीरदास और रैदास से प्रभावित होकर निर्गुण के भाव में गोते लगाने लगे। उस समय के उनके रचे गीत रहस्य और अध्यात्म के भाव से भरे हैं। उपरोक्त गीत …माया के नगरिया में…..उसी निर्गुण की उपासना करता प्रतीत होता है।

यूं तो महेन्दर मिसिर के जीवन में कई मोड़ आए लेकिन बनारस में रहते हुए उनके जीवन में अब एक ऐसा मोड़ आया जिसने उनकी जिंदगी की दिशा और दशा दोनों को बदल दिया। यहीं पर उनका आंग्रेज विरोध परवान चढ़ता है और वह देश में अंग्रेजी हुकूमत खासकर उसकी अर्थव्यवस्था को बर्बाद कर देने के लिए उद्यत हो उठे। अभयानंद के सहयोग से उन्हें नोट(रुपया) छापने की एक मशीन मिल गई। मशीन लेकर मिसिर जी छपरा आ गए और योजनाबद्ध तरीके से नोट छापने और उसे बाजार में चलाने का काम करने लगे। इसमें कोई शक नहीं कि महेन्दर मिसिर ने जाली नोटों से अपने लिए सुख-सुविधा जुटाए और तवायफों पर भी खूब पैसे लुटाए नोट छापने के धंधे के पीछे वास्तविक उद्देश्य था आजादी की लड़ाई लड़ने वालों तथा उनके परिजनों को आर्थिक सहायता पहुंचाना और मिसिर जी ने इस उद्देश्य से कभी समझौता नहीं किया। बांगाल समेत देश के अन्य हिस्सों में काम करने वाले क्रांतिकारियों की खूब मदद की। कोई भी दीन-दुखी उनके दरवाजे से खाली हाथ वापस नहीं लौटता था। परेशानहाल लोगों की मदद के लिए उनकी झोली हमेशा खुली रहती थी।

महेन्दर मिसिर की शाहखर्ची के किस्से अब मशहूर होने लगे थे। हुक्मरानों को पहली बार संदेह तब हुआ, जब 1905 में सोनपुर के मेले में ज्यादा तवायफों के तंबू मिसिर जी की तरफ से लगवाए गए थे। इस मामले में मिसिर जी ने देश के बड़े-बड़े जमींदारों को भी पीछे छोड़ दिया था। बस क्या था….पुलिस उनके पीछे लग गई। जांच करने और सबूत इकट्ठा करने की जिम्मेदारी सीआईडी इंस्पेक्टर सुरेंद्रनाथ घोष और जटाधारी प्रसाद को मिली। सुरेंद्रनाथ घोष किसी तरह मिसिर जी का नौकर बनने में कामयाब हो गया और गोपीचंद के रूप में साईस बनकर उनके घोड़े की देखभाल करने लगा। मालूम हो कि मिसिर जी अपने जमाने के माने हुए घुड़सवार थे। कहते हैं, उस समय पूरा छपरा जिला में उके जैसा दूसरा घुड़सवार नहीं था। जब वह घुड़सवारी पर निकलते थे तो उन्हें देखने के लिए राहों में लोगों की भीड़ लग जाती थी। बहरहाल, धीरे-धीरे गोपीचंद उनके नोट छापने का राज जान गया। उसी के इशारे पर उनके यहां पुलिस का छापा पड़ा। 16 अप्रैल, 1924 को उनके चारों भाइयों समेत महेन्दर मिसिर को गिरफ्तार कर लिया गया। पटना उच्च न्यायालय में लगातार तीन महीने तक मामले की सुनवाई चलती रही। मिसिर जी के वकील थे …क्रांतिकारी हेमचंद्र मिश्र औऱ प्रख्यात स्वतंत्रता सेनानी चितरंजन दास लेकिन कुछ काम न आया और मिसिर जी मुकदमा हार गए औऱ उन्हें 10 की सजा मुकर्रर की गई। उन्हें बक्सर केंद्रीय जेल में बंद कर दिया गया लेकिन अच्छा व्यवहार औऱ लोकप्रियता के चलते तीन साल में ही उनकी रिहाई हो गई। कहते हैं, जब वे जेल में बंद थे तो देश भर की 5000 तवायफों ने वायसराय को ब्लैंक चेक के साथ एक पत्र भेजा था जिसमें गुजारिश की गई थी कि सरकार उस पर कोई भी रकम लिख सकती है, हम तवायफें अदा करेंगी, लेकिन महेन्दर मिसिर को आजाद कर दिया जाए। यह घटना इस बात की सबूत है कि तवायफों के मन में उनके लिए कितनी इज्जत थी। बक्सर जेल में रहते हुए ही उन्होंने सात खंडों में अपूर्व रामायण की रचना कर डाली थी। जेल प्रवास के दौरान हुई इस घटना की अनुगूंज आज भी जनश्रुतियों में सुनी जा सकती है। एक जनश्रुति के अनुसार बक्सर जेल की निशब्द रातो में जब वह अपना यह विरह गीत की तान लेते थे तो जेलर की पत्नी उसे सुनकर भाव-विह्वल होकर उनके गीत का रसस्वादन करने जेल में पहुंच जाती थी…..आखिर गीत भी तो ऐसा ही है ………. 

आधी-आधी रतिया के कुहुके कोइलिया
राम बैरनिया भइले ना।
मोरा अंखिया के निंदिया….
राम बैरनियां भइले ना।
कुहुकि-कुहुकि के कुहके कोइलिया
राम अगिनिया धधके ना।
मोरा छतिया के बीचवा
राम अगिनिया धधके ना।

महेन्द्र मिसिर को जेल से छुड़ाने के लिए ढेलाबाई ने अपना सबकुछ दांव पर लगा डाला और उन्हें बचाकर घर ले आई। महेन्दर मिसिर ने अपने जीवन का अंतिम क्षण ढेलाबाई की कोठी में स्थित शिव मंदिर में ही गुजारा और वहीं अंतिम सांसें लीं। उस समय उनकी उम्र 62 साल की थी और वह मनहूस दिन था … 26 अक्टूबर, 1946।

आजादी की लड़ाई के इतिहास में महेन्दर मिसिर को भले ही वह जगह न मिली हो, जिसके वह हकदार हैं लेकिन उनके गीतों ने उनकी शख्सियत को हमेशा ऊंचा उठाए रखा। अंग्रेजों के प्रति अपने विद्वेष को व्यक्त करते हुए वह गीत रचते हैं ……

हमरा निको ना लागे गोरन के करनी
रुपया ले गइले, पइसा ले गइले
अउरी ले गइले सब गिन्नी।
बदला में देके गइले ढल्ली के दुअन्नी
हमरा नीको ना लागे गोरन के करनी।

राग-रागिनी उनकी जिंदगी थी…वह उसे जीते थे…और आज वही उनकी थाती है, जो जन-जन के मन कंठ में सुरक्षित है। पुरुबी राग उनकी स्वर लहरी में हिलोरें लेता है। उनके गीतों में जहां पहाड़ी नदी के वेग की तरल तीव्रता है, वहीं झिर..झिर बहती शीतल मंद बयार का सुखद स्पर्श भी है। भाषा की सहजता औऱ भाव की गहराई उनके गीतों की असली पहचान हैं। बोल और भाव की मिश्री में पगे उनके गीत किसी का भी अंतर्मन को छूने, सहलाने की स्वाभाविक काबिलियत रखते हैं। विरही नायिका की विकलता और उसकी सास की निष्ठुरता का क्या ही मर्मस्पर्शी बयान इन पंक्तियों में मिलता है ………..

सासु मोरा मारे रामा बांस के छिउकिया,
ए ननदिया मोरी है सुसुकत पनिया के जाए।
गंगा रे जमुनवां के चिकनी डगरिया
ए ननदिया मोरी हे पउंवां धरत बिछलाय।
गावत महेन्दर मिसिर इहो रे पुरुबिया
ए ननदिया मोरी हे पिया बिना रहलो ना जाए।

लोक कंठ के गवैया महेन्दर मिसिर के गीतों में श्रृंगार और अध्यात्म दोनों ही प्रधानता से मिलते हैं और कमाल की बात यह है कि वह दोनों में ही पारंगत हैं। इतना जरूर है कि उनके गीतों में श्रृंगार और विरह की अभिव्यक्ति ज्यादा मुखर है। विरह विदग्ध नायिका के चित्रण में उनका यह गीत कितना भावमय हो उठता है…एक बानगी देखिए……

अंगुरी में डंसले बिया नगिनियां हे
ननदी दियरा जरा द।
दियरा जरा द अपना भइया के जगा द
पोरे-पोरे उठेला दरदिया हे
ननदी दियरा जरा द।

लोक धुन में पगे उनके गीत जब अपनी अर्थ छटा बिखेरते हैं तो सुनने वाला सुनते ही रह जाता है। गोपी विरह के प्रसंग में मिसिर जी के शब्द विन्यास से गीत के बोल कितने भावप्रवण हो उठे हैं, इसका एक उदाहरण देखिए….

सुतल सेजरिया सखी देखली सपनवां
निर्मोही कान्हा बंसिया बजावेला हो लाल।
कहत महेन्दर श्याम भइले निरमोहिया से
नेहिया लगा के दागा कइले हो लाल।

विरह की आंच में तपे महेन्दर मिसिर के गीत श्रोता के हृदय को ऐसे बेधते हैं कि मन बेकल हो उठता है।

संगीत साधक और पुरबी के पुरोधा महेन्दर मिसिर का रचना संसार व्यापक है, जिसमें भाषा की लचक औऱ रवानी तथा राग-रंजित रागिनी का अपूर्व संगम देखने को मिलता है। उन्होंने सैकड़ों गीत और दर्जन भर से ज्यादा पुस्तकें लिखीं, जिनमें उनके तीन नाटक भी शामिल हैं। अन्य पुस्तकों में महेन्दर मंजरी, महेन्दर विनोद, महेन्दर मयंक, भीष्म प्रतिज्ञा, कृष्ण गीतावली, महेन्दर प्रभाकर, महेन्दर रत्नावली, महेन्दर चंद्रिका और महेन्दर कवितावली प्रसिद्ध है। उनके चुनिंदा गीतों का संग्रह कविवर महेन्दर मिसिर का गीत संसार शीर्षक से डॉ. सुरेश कुमार मिश्र के संपादन में अखिल भारतीय भोजपुरी परिषद, लखनऊ से सन् 2002 में प्रकाशित हुआ लेकिन वह पूर्ण नहीं है। उनके सैकड़ों गीत आज भी संग्रह की प्रतिक्षा में हैं। महेन्दर मिसिर को लेकर कई पुस्तकें भी लिखी गई हैं, जिनमें पांडे कपिल की फुलसूंघी, रामानाथ पांडे की महेन्दर मिसिर और रविन्द्र भारती की कंपनी उस्ताद उल्लेखनीय है। उनके गीत लोक जीवन के दस्तावेज हैं, लोक साहित्य के अनमोल धरोहर हैं।

आलेख - समरथ , सितम्बर - अक्टूबर २०११ अंक से साभार.

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