रंगमंच तथा विभिन्न कला माध्यमों पर केंद्रित सांस्कृतिक दल "दस्तक" की ब्लॉग पत्रिका.

बुधवार, 8 अगस्त 2012

प्रेमचंद रंगशाला और पटना रंगमंच का जादुई यथार्थ


पुंज प्रकाश

अभी कुछ ही दिनों पहले ये खबर आई की पटना का प्रेमचंद रंगशाला पूरी तरह से सज-धज के तैयार हो गया है. फिर खबर आई की रंगशाला का उद्घाटन भी हो गया, तो रंगशाला के खंडहरों में बिताए वो सुनहरे दिन आखों के सामने तैर गए. सुबह- सुबह साइकल पर सवार होके निकल पड़ता था रंगकर्मियों का दल प्रेमचंद रंगशाला की ओर, फिर दिन भर गाना बजाना, पढना पढाना, चाय- पानी, बहसें, नाटकों के पूर्वाभ्यास सब उसी खंडहर पड़े रंगशाला में ही संपन्न होती. रंगशाला का ग्रीन रूम नाट्य दलों का कार्यालय बना. सफाई करके कुछ लकड़ी के प्लेटफार्म लगाया गया और उसके ऊपर डाल गया पुराने नाटकों के कुछ बैनर और बन गया पूरी तरह से आर्टिस्टिक कार्यालय. पता नहीं कहाँ-कहाँ से तार जोड़कर बिजली का भी जुगाड किया गया. कभी विशाल से मंच पर झाड़ू लगाकर पूर्वाभ्यास करते, कभी रंगशाला के विशाल प्रागंण के किसी कोने में निकल पड़ते, तो कभी ऊपर छत पर पहुंच जाते. कहने का तात्पर्य ये की शाम होते होते पुरे का पूरा रंगशाला पूर्वाभ्यास स्थल के रूप में गुलज़ार हो जाता. पटना के कई प्रमुख नाट्य दल एक साथ वहाँ पूर्वाभ्यास में संलग्न रहते. मंच और नुक्कड़ नाटकों के प्रदर्शन का सिलसिला भी बीच-बीच में चल पड़ता. स्वं मेरे द्वारा निर्देशित एकांकी मरणोपरांतका मंचन भी बिना किसी खास खर्चे के वहीं किया गया था. बस थोडा बहुत खर्च आमंत्रण पत्र आदि कुछ अति ज़रुरी चीजों में ही हुआ. पूरी तरह मोमबत्ती की रौशनी में किये गए इस नाटक की यादें आज भी मेरे जेहन में लगभग जस की तस बसी हैं. वो शायद इसलिए भी की ये मेरे द्वारा निर्देशित पहली मंचिये प्रस्तुति थी. मरणोपरांत का प्रदर्शन होना था कि उस शाम बारिश होने लगी. बिजली की ऐसी व्यवस्था ना थी कि उससे की उचित व्यवस्था किया जाता. और फिर प्रकाश यंत्रो का किराया देने भर का भी पैसा कहाँ था हमारे पास. अँधेरे में नाटक देखने वालों को रंगशाला के मुख्या द्वार से मंच तक तो जाना ही था. अब अंधेरे में कोई जाये भी तो कैसे? मरता क्या ना करता, हमलोग अपने - अपने घरों से लालटेन ले आये. हमें ये भी नहीं पता था कि उसमें तेल कितना है. है भी की नहीं. बस लालटेन जलाया गया और मुख्या द्वार से लेके मंच तक जगह जगह रख दिया गया. हमें ये कतई पता नहीं था की अपने आभाव और प्रदर्शन तो ज़रूर होना होना चाहिये की चाहत लिए हम ये जो कर रहें हैं वो नाटक की सफलता का एक बड़ा कारण बनके उभरेगा. प्रेमचंद रंगशाला का विशाल खंडहरनुमा इमारत, थोड़ी थोड़ी रौशनी के साथ अँधेरा, बारिश से भीगा माहौल और जगह जगह रखी लालटेन के साथ मद्धम – मद्धम कड़कती बिजली ने देखनेवालों के मन में मरणोपरांतके लिए एक शानदार पूर्वरंग तैयार कर दिया था. प्रकृति जब कला का साथी बने तो कलाप्रेमी और कलाकार दोनों के लिए कुछ ना कुछ यादगार तो होगा ही ना ?

जैसे ही ये सूचना मिली की हम पटना जा रहें हैं मन में एक उत्साह और उत्सुकता का संचार सा हो गया और सारी पुरानी यादें तेज़ी से मन के अन्तः पटल में घूम गया. एक सजग रंगकर्मी का रिश्ता देश समाज तथा कई अन्य चीजों के अलावा स्पेस से भी होता है जहाँ उपस्थित होकर वो अपने आप को साथियों के सहयोग से साधता है. गलतियाँ करता है और गलतियाँ कर कर के सीखता है. अब उस जगह को कोई कैसे परिभाषित करे जहाँ जाते ही आपकी ही छाया आपके सामने वो सब करता दिखे जो दरअसल आप कर चुकें हैं, ठीक वैसे का वैसा, वहीँ का वहीँ. इंसान के लिए कुछ चीजें केवल महसूस करने को होतीं हैं उसे शब्दों के जाल में कैद करना संभव नहीं क्योकि शब्द आभास तो दे सकतें हैं सम्पूर्णता नहीं.

हम ट्रेन से प्रातः छः बजे के आस पास पटना पहुंचे. धरती पर पांव रखते ही मन में खलबली मची. पटना का कोई रंगकर्मी पटना आये और कालिदास रंगालय तथा प्रेमचंद रंगशाला ना जाये तो ये मामला कुछ ऐसा ही होगा जैसे कोई घनघोर आस्तिक मंदिर जाये और भगवान की प्रतिमा का दर्शन न करे. मन कुलबुला रहा था सो होटल में सामान रखा और पैदल भागता हुआ घर पहुंचा, बाइक उठाई और सीधा प्रेमचंद रंगशाला. रंगशाला जैसे जैसे करीब आता जा रहा था उमंग वैसे वैसे और ज़्यादा बढती जा रही थी. अंततः नवनिर्मित प्रेमचंद रंगशाला आँखों से सामने खडा और समय जैसे थम सा गया हो. ये अनुभव कुछ कुछ ऐसा था जैसे कभी खंडहर बना ये रंगशाला किसी जादुई यथार्थ की तरह हमारी आँखों के सामने ही अपना रूप बदल रहा हो. कभी ये रंगशाला तो कभी खंडहर वाला वो रंगशाला आँखों के सामने ठीक वैसे ही तैर रहा था जैसे तैरता है जागती आँखों का सपना. ये जादू शायद तब ना घटता जब मैं अपनी आँखों के ठीक सामने में रंगशाला को परिवर्तित होते देखता. जीवन का असली मज़ा तो अचानक में ही है और हम आपने जीवन में आवरण विहीन भी या यूँ कहें की सबसे ज्यादा रियल अचानक घटित घटनाओं में ही तो होतें है.

रंगशाला के मुख्यद्वार पर खड़ा मैं उसे एकटक निहार रहा था. सामने पटना के कुछ नए पुराने रंगकर्मी बैठे गपिया रहे थे. रंगशाला के पीछे से पूर्वाभ्यास करने की आवाजें आ रहीं थीं. मन गदगद हो गया. भाग कर पीछे कि तरफ गया. वाह सबकुछ वैसा ही है. अलग अलग कोने पर तीन रिहर्सल चल रहा है. बस अगर कुछ बदला है तो रंगशाला का आवरण और अभिनेता व निर्देशकों का चेहरा. कोई चटाई बिछाके पूर्वाभ्यास में संलग्न है, कोई पेड़ की टहनी से झाड़ू लगाके तो किसी के लिए घास का चादर ही काफी है.

बहुतेरे लोग इस बात से असहमत होगे पर तमाम उतर चढाव के बीच रंगकर्मियों में रंगमंच के प्रति जूनून आज भी कायम है. ये जूनून ही सबसे बड़ी शक्ति है यहाँ के रंगमंच की. इस जूनून में अब तक रंगशाला ने भी साथ नहीं छोड़ा है. अब देखना ये है कि पटना रंगमंच का नेतृत्व पटना रंगमंच और प्रेमचंद रंगशाला दोनों को कहाँ ले जाता है. हालाँकि पटना रंगमंच में दरार साफ साफ देखी जा सकती है. पर संकट की घडी में पटना के संस्कृतिकर्मी अपने तमाम मतभेदों को भूलकर एक साथ कदम से कदम मिलाकर चलतें रहें हैं. यही यहाँ की परंपरा है और संस्कृति भी. साझा संस्कृतिकर्म पटना रंगमंच की पहचान रही है. यहाँ रंगमंच मात्र मनोरंजन का साधन कभी नहीं रहा. ज़्यादातर वहीँ नाटक यहाँ खेले गए और सराहे गए जो हमारे समय से साक्षात्कार करतें हों. सवाल खड़ा करना यहाँ के रंगकर्मियों की आदत में शुमार रहा है. यहाँ के रंगकर्मी ज़रूरत पड़ा तो अपने हक़ के लिए सड़क पर भी उतारे, लड़ाइयां भी लड़ी. यहाँ के रंगमंच का मूल चरित्र सामाजिक सरोकार का ही एक हिस्सा रहा है. सदियों से ये परम्परा कायम रही है और तमाम उतर चढाव के बीच भी कायम रहेगा. इंसान भले ही इतिहास को भुला दे पर इतिहास किसी को नहीं भूलता. समय किसी हंस की तरह दूध का दूध और पानी का पानी कर देता है.

विश्व के  प्राचीन नगरों में से एक पाटलिपुत्र में आज़ादी के कई दशकों बाद भी कला और संस्कृतिकर्म की क्या स्थिति है वो किसी से छिपी नहीं है. सिर्फ पाटलिपुत्र ही क्यों पुरे हिंदी प्रदेश का रंगकर्म कैसे चल रहा है यह बात जग ज़ाहिर हैं. बुनियादी सुविधाओं तक के आभाव के बीच यह कहना कि कला संस्कृति हमारे समाज का आईना हैं बड़ा ही मजाकिया सा भी प्रतीत होता है, बिलकुल ब्लैक ह्यूमर की तरह. हिंदी प्रदेश के रंगकर्म का मूल स्वरुप अर्थात आभाव का चिथड़ा ओढ़े पटना के अधिकतर रंगकर्मियों का गुरुकुल रहा है प्रेमचंद रंगशाला. यहाँ उन्होने खुद को झोंका, मांजा और परिपक्व किया. अपने आप को मंच पर खड़ा होने लायक बनाया.

अंग्रेजों के भारत छोड़ने के पश्चात् भारतवर्ष पुनर्निर्माण की प्रक्रिया से गुजर रहा था. सैकड़ों सालों की गुलामी के बंधन से मुक्त होने के पश्चात् खुली हवा में सपने देखे जा रहे थे और साथ ही उसे पूरा करने का प्रयास भी किया जा रहा था. अब भारत को विश्व स्तर पर अपनी एक छवि का निर्माण भी करना था. इसी दौरान भारत अपनी सांस्कृतिक विरासत को पुनर्जीवित करने का प्रयास भी कर रहा था. संगीत नाटक अकादमी, ललित कला अकादमी, साहित्य अकादमी आदि की स्थापना के बाद राज्यों की राजधानियों में सांस्कृतिक केन्द्रों और प्रेक्षागृहों का निर्माण दनादन किया जा रहा था. इसी क्रम की एक कड़ी के रूप में प्रेमचंद रंगशाला को भी देखा जा सकता है. जिसकी परिकल्पना में जगदीश चन्द्र माथुर का नाम प्रमुखता से सामने आता है. कोणार्क जैसे प्रख्यात नाटक के रचयिता जगदीश चन्द्र माथुर स्वं एक नाटककार होने के अलावा बिहार सरकार में उच्च पदाधिकारी भी थे.

1971 - 72 में रंगशाला बनकर तैयार हुआ. अपने पहले ही कार्यक्रम में इसे हिंसा की आंधी में झुलसना पड़ा. रंगशाला पर रंगमंच का राज होने से पूर्व ही ताला लटक गया. फिर आपातकाल के दौरान सीआरपीएफ ने कब्ज़ा जमाया. इधर रंगशाला को मुक्त कराने का बिगुल भी पटना के जुझारू संस्कृतिकर्मियों ने फूंका. धरना, प्रदर्शन, जुलुस, नाट्य प्रदर्शन, कैंडिल मार्च का एक लंबा सिलसिला चल पड़ा. रंगशाला के लिए लोगों ने सत्ता की लाठियां खाई, कवि कन्हैय्या जी की शहादत तक हुई. लंबे संघर्ष के बाद सन 1982 में रंगशाला को मुक्त कराया जा सका लेकिन तब तक नाटक के स्वप्नलोक हेतु निर्मित यह रंगशाला एक खंडहर में बदल चुका था. पर रंगकर्मियों ने हिम्मत नहीं हारी. पटना के कुछ प्रमुख नाट्य दलों ने इस खंडहरनुमा रंगशाला का इस्तेमाल पूर्वाभ्यास के लिए करना शुरू कर दिया. धीरे धीरे पटना के कुछ प्रमुख नाट्यदलों का कार्यालय भी बन गया प्रेमचंद रंगशाला. दिन भर नाटकों के पुर्वाभ्यासों के आनंदित होने वाला प्रेमचंद रंगशाला रात में अभी भी वीरान पडा अपनी हालत पर चमगादरों के चें चें के बीच फफक – फफक कर रो रहा था. पर अभी भी इसे नाटक के लिए उपलब्ध करने के स्वप्न को रंगकर्मियों ने आँखों में सजा रखा था. जब भी मौका मिलता इसका ज़िक्र करने से पटना का कोई भी सजग संस्कृतिकर्मी नहीं चूकता. सन 1987 में पटना के संस्कृतिकर्मियों के पुरजोर मांग पर मुख्यमंत्री को इसका पुनरोद्धार कारने की घोषणा करनी ही पड़ी. इस पूरी प्रक्रिया में पटना के बामपंथी छात्र संगठनों, कार्यकर्ताओं एवं पटना के लेखकों, बुद्धिजीवियों आदि के सहयोग ने भी रंगकर्मिओं को अपार उर्जा प्रदान की तथा लड़ो और जीतो के जज़्बे को जिलाए रखा.

आम तौर पर रंगशालाओं की किस्मत में नाट्य-प्रदर्शनों का साक्षी होना ही लिखा होता है पर यह प्रेमचंद रंगशाला अपने मंच पर नाटकों का मंचन होते देखने से पूर्व कई सदियों तक नाट्य दलों के आलेख चयन से लेकर मंचन की तैयारी की अंतिम प्रक्रिया का मूक गवाह बना रहा. इस रंगशाला ने नए रंगकर्मियों के आगमन से लेकर प्रसिद्धि के सफर का एक - एक दिन देखा तो रंगकर्मियों के पलायन और एकाएक कहीं गुम हो जाने की करुणा की पीड़ा भी सहा. इसने रंगकर्मियों को हंसते देखा, रोते देखा, गाते देखा, पसीना बहाते देखा और तो और नाजुक रिश्तों को बनते बिगड़ते और परवान चढ़ते भी देखा. कईयों की वफ़ा और बेवफाई तो कईयों की उदंडता के निहायत ही निजी क्षणों का मूक गवाह भी यही बना. कसमें खाते और कसमें तोड़ते पलों का एकलौता द्रष्टा भी तो यही बना, तो वेदना में दीवार की टेक लेती मल्लिका का सहारा भी यही था. घर से रूठे रंगकर्मियों को पनाह भी यहीं मिली. इसने बना बनाया कालिदास, विलोम, मल्लिका, शकुंतला, कर्नल सूरत सिंह, अश्वथामा, कर्ण, यागो आदि नहीं बल्कि इन् सबको एक पल बनते गढते देखा. अपने विशाल प्रांगण में कलाकारों को कभी शारीरिक अभ्यास तो कभी क्रिकेट आदि खेलते तो कभी नुक्कड़ और मंच नाटकों का मंचन करते भी देखा. इसके हिस्से सिर्फ मंचन की एकरसता नहीं बल्कि पुरे का पूरा नाट्य प्रक्रिया और मानव जीवन के कुछ बहुत ही अनमोल तो कुछ बहुत ही बुरे पल आये. आज जब ये बेहतरीन सुविधाओं से लैस होकर पूरे भव्य रूप में बन ठन के तैयार है भारत के किसी भी रंगालय को टक्कर देने के लिए तो अपनी इस किस्मत पे ये क्यूँ ना इतराए. हाँ, इसे गुमान नहीं है की अगर सबकुछ सही चलता रहा तो ये पुरे भारत के कुछ चुनिन्दा रंगालयों में से एक होगा जिसके पास इतनी आधुनिक सुविधाएँ और जगह है.

गर्व की बात है कि सारे अत्याधुनिक उपकरणों से लैस होकर प्रेमचंद रंगशाला आज रंगमंच एवं बिहार के सांस्कृतिक वर्तमान, भविष्य तथा इतिहास का साक्षी बनाने को पूरी तरह से तैयार है. परन्तु गौरव की बात तब होगी जब ये स्थानीय रंगकर्मियों तथा आम आवाम के पहुँच के दायरे में रहेगा. इसके लिए इसके संचालन समिति में स्थानीय रंगकर्मियों तथा आम जन के प्रतिनिधिओं को भी शामिल करना एक ज़रुरी एवं अनिवार्य शर्त बन जाता है. वहीँ रंग और कला जगत का एक कला ग्राम के रूप में अपने आप को प्रस्तुत करने के लिए प्रेमचंद रंगशाला के प्रांगण में पूर्वाभ्यास स्थलों का निर्माण, एक पुस्तकालय जिसमें भारतीय व विदेशों के रंगमंच संबंघी पुस्तकों और पत्रिकाओं के साथ ही साथ साहित्य की भी उपलब्धता हो, एक दुकान जहाँ पुस्तकें, दुनियां की बेहतरीन फ़िल्में एवं संगीत की उपलब्धता, रंग-संग्रहालय, काफ़ी हाउस के तर्ज़ पर चाय नाश्ते की एक दुकान आदि को भी खुद में समाहित करना होगा. तमाम प्रकार के उतार – चढाव के बावजूद भारतीय रंगपटल पर पटना रंगमंच की एक प्रखर पहचान नुक्कड़ नाटकों से भी रही है. प्रेमचंद रंगशाला के प्रांगण में रंगमंच की इस ताकतवर विधा के लिए एक कोना तो होना ही चाहिए. साथ ही साथ अगर सरकार एक राजकीय रंगमंडल जिसका संचालन बिहार के रंगकर्मियों का प्रतिनिधिमंडल करे, के बारे में भी विचार करें तो पटना रंगमंच के सपनों को एक अहम आयाम मिल सकता है.

5 टिप्‍पणियां:

  1. premchand rangshala kee dhoop chhanv bhari rochak yatra.... achcha laga ...padhkar meri bhi premchand rangshala se judi kayi yaade taaza ho aayi... rangshala ke iss kayakalp ki tasveer dekhkar mai bhi sukhad aascharya se bhar utha.... aasha hai ab patna rankarm iss prangan me aur bhi phale-phoolega !!!

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  2. badhiya aalekh likha hai aapne...premchand rangshala ka kayakalp patna ke rangkarmiyon ki jeet ke prateek ke taur par yaad kiya jayega... !

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  3. maja aa gaya alekh padhker..sab aankho ke samne ghum wo drishua jab kankerbagh se roj ssykil lekar hajir hota rangshala me...apke sath pol gomra ka scooter ka resherhal....june ka mahina ...mai jp atul ramkumar,fajal aur aapka sath ....wo aam ka juce,sikhar gutka ....aadbhut wo chan tha.....

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  4. बहुत खूब !
    अच्छा आलेख, बधाई !

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  5. बहुत अच्छा आलेख....और साहित्य को संजोने की दिशा में सार्थक प्रयास...
    अनु

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