रंगमंच तथा विभिन्न कला माध्यमों पर केंद्रित सांस्कृतिक दल "दस्तक" की ब्लॉग पत्रिका.

मंगलवार, 10 जुलाई 2012

मुक्तिपर्व:लोकपर्व से जुड़ी किवदंती की पुनर्व्याख्या - परवेज़ अख्तर



भारतीय रंगमंच के इतिहास में कुछ प्रस्तुतियाँ मील के पत्थर हैं उन्हीं में से एक है अविनाश चन्द्र मिश्र लिखित एवं परवेज़ अख्तर द्वारा निर्देशित नाटक “मुक्तिपर्व” | बकौल सत्यव्रत राउत One of the important plays of Indian theatre history. चौबीस साल बाद पटना के रंगप्रेमियों के सामने पुनः 'मुक्ति-पर्व' का मंचन हो रहा है इस बार इसे निर्देशित कर रहे हैं प्रतिभाशाली नाट्य-संगीतकार, अभिनेता राजू  मिश्रा |  इस अवसर पर परवेज़ अख्तर के इस आलेख का महत्व और ज़्यादा बढ़ जाता है | वो स्वं लिखतें हैं "मुक्ति-पर्व' मेरे लिए विशेष नाटक है - न सिर्फ इस लिए कि इस नाटक ने बिहार के जातीय रंगमंच को राष्ट्रीय स्वीकृति दिलाई, बल्कि इसलिए भी कि यह नाट्य-भाषा के स्तर पर मेरे संघर्ष की अभिव्यक्ति का माध्यम भी बना| निश्चित ही यह नाटक मेरे नाट्य-जीवन का 'टर्निग प्वाइंट' था |" - माडरेटर मंडली |

परवेज़ अख्तर निर्देशित मुक्तिपर्व 
केन्द्रीय संगीत नाटक अकादेमी की 'युवा नाट्य-निर्देशकों को प्रोत्साहन योजना' के अंतर्गत यह नाटक वर्ष 1988 में लिखा और सर्वप्रथम इम्फाल (मणिपुर) में मंचित किया गया था | उस समय अकादेमी की इस योजना में देशज, क्षेत्रीय अथवा पारम्परिक नाट्यरूपों से प्रेरित, स्वजातीय नाट्य-मुहावरे के अन्वेषण का विशेष आग्रह था | लेकिन हमारे लिए चुनौती यह थी कि नाट्य-दल का ग्रामीण नाट्य-रूपों से जीवंत संपर्क नहीं था | इसलिए हमने ऐसी परिस्थिति निर्मित की; जिसमें नागर अभिनेता-समूह, लोकप्रिय नाट्य-मुहावरे के साथ 'क्रिएटिव-सिंथेसिस' करने की दिशा में प्रेरित हुए | इस अर्थ में, मंचन के लिए तैयार प्रारूप, जहाँ एक ओर नागर नाट्यकर्मियों को; प्रदर्शन-शैली के स्तर पर एक विशिष्ट पारम्परिक नाट्य संरचना से साक्षात्कार कराने में सक्षम हुआ; वहीं कथ्य के स्तर पर यह धार्मिक आख्यान, मिथक या किंवदंतियों से रचनात्मक संवाद स्थापित करने का माध्यम भी बन सका | कथ्य और शिल्प दोनों ही स्तरों पर नाटक का स्वरूप हालांकि प्रायोगिक है; किन्तु साथ ही, यह लोकप्रिय रंगमंच की मुख्य-धारा के निर्माण की दिशा में सार्थक हस्तक्षेप भी है |
'सामा-चकेवा' पर्व पूरी तरह धार्मिक कर्म-काण्ड से मुक्त है | इस लोक-पर्व में पद्म-पुराण में सामा और साम्ब के सम्बन्ध में उल्लिखित कथा की बिलकुल लौकिक अभिव्यक्ति देखने को मिलती है | लोक-पर्व में, कथा-पात्रों; यथा- मनुष्य, पशु, पक्षी, वृक्ष आदि; की कच्ची मिट्टी की मूर्तियों के निर्माण से लेकर, उसके विसर्जन तक की प्रक्रिया आदिम अनुष्ठान की तरह है, जो काफी नाटकीय भी है |
इस लोक-पर्व में, बहन के प्रति भाई के प्रेम को स्मारित किया गया है, किन्तु सामा और उसके प्रेमी/पति चारुवक्त्र के प्रेम की चरम-अभिव्यक्ति कम महत्वपूर्ण नहीं है और हमने पत्नी-पति के प्रेम को प्रस्तुति में प्रमुखता से रेखांकित किया | दूसरा महत्वपूर्ण बिंदु, जिसने हमें ज्यादा आकर्षित किया - वह था, सामा की मुक्ति के लिए स्त्रियों द्वारा, कृष्ण की सत्ता के विरुद्ध किया गया सांकेतिक विद्रोह | मूर्तियों के निर्माण और उससे जुड़े अनुष्ठानों में राजनीतिक विरोध के बीज मौजूद थे, जिसे नाटकीय-आवेग के साथ हमने प्रस्तुति के चरमोत्कर्ष पर रखा |
नाटककार अविनाश चन्द्र मिश्र 
'मुक्ति-पर्व' में शैली विशेष या विशिष्ट पारम्परिक नाट्य-रूप को अपनाने का आग्रह किसी भी स्तर पर नहीं है और यह सृजनशील नाट्य-मंडली की माँग करता है | प्रदर्शन-संरचना का खुलापन, पारम्परिक नाट्य-मुहावरे के परिप्रेक्ष्य में नए-नए तरह के प्रयोग को आमंत्रण देता है | बिहार के ग्रामीण रंगमंच की लोकप्रिय नाट्य शैलियों; यथा- कीर्तनिया-बिदापत एवं अन्य नाच, नौटंकी, रामलीला सहित; उत्तर भारतीय पारम्परिक और लोक नाट्य-रूपों में विद्यमान आकस्मिकता, अनौपचारिकता, सांकेतिकता और आकर्षक शैलीबद्धता इस नाट्यालेख की विशिष्टता है | किन्तु, प्रोस्तोता से यह, यांत्रिक अनुकरण की जगह, आधुनिक नाट्य दृष्टि के साथ पारम्परिक युक्तियों, मुहावरों और अवधारणा के रचनात्मकता उपयोग की माँग करता है |
शुद्ध शैलीबद्धता अथवा शास्त्रीय व्याकरण की पुनर्प्रस्तुति की जगह, हमने अवधारणा के स्तर पर 'शैली' को ग्रहण किया | झांकी, कथावाचन या फिर कीर्तनिया-बिदापत नाच की शिल्पगत विशिष्टता, नाट्य युक्तियों और रूढ़ियों और नाटकीय प्रभाव को अभिनेताओं के नागर नाट्यानुभव में रूपांतरित करने के प्रयास में हमने एक नयी ही तरह की नाट्य-शैली का आविष्कार कर लिया; जो ब्रेख्त की अवधारणा - " दिखलाओ कि तुम दिखला रहे हो " के काफी निकट था | 
नाटक की 'शाब्दिक-भाषा' और लयात्मक संवाद योजना से प्रारम्भ में अभिनेताओं को दिक्क़त पेश आयी | लेकिन जल्द ही, उन्होंने अपनी एक लयात्मक गद्य की शैली खोज निकाली, जिससे सिर्फ वाचिक अभिनय, बल्कि शैलीबद्ध गति-विधान में भी बहुत सहायता मिली |
गायन, नृत्य, वादन, शैलीबद्ध अभिनय और लयात्मक गति-चर्या के संयोजन में अभिनेताओं की निजी प्रतिभा, अनुभव और उनकी वैयक्तिक क्षमता, कई बार उनकी निजी सीमा का भी हमने भरपूर उपयोग किया | आशु-अभिनय (इम्प्रोवाइज़ेशन) की सामूहिक रचना प्रक्रिया में आश्चर्यजनक परिणाम मिले | कई समस्याएँ स्वतः हल होती गयीं | हमारे दल के एक अनुभवी अभिनेता, चूड़क का चरित्र अभिनीत कर रहे थे | उनकी निजी सीमा थी कि वे गा नहीं सकते थे | एक दृश्य में उन्हें 'बहरेतवील' का गायन करना था; किन्तु वे गा नहीं पाए - उनका गायन काफी बेसुरा था | तब मैंने उनकी इस सीमा को नाटकीय प्रभाव के पक्ष में इस्तेमाल किया | आशु-रचना के क्रम में, नौटंकी-पारसी रंगमंच के अतिरंजनापूर्ण शैलीबद्ध वाचन के साथ, अभिनेता द्वारा छऊ-नृत्य की कोरिओग्राफी में दृश्य का अभिनटन किया गया और 'बहरेतवील' के गायन से बेहतर नाट्य-प्रभाव सृजित हुआ | उसी प्रकार कई ऐसे दृश्य या प्रभाव हैं, जिनकी चर्चा आज भी होती है |
परवेज़ अख्तर 
चौबीस वर्षों बाद, पटना के कालिदास रंगालय में 10-11 जुलाई, 2012 को राजू मिश्रा द्वारा 'मुक्ति-पर्व' का मंचन किया जा रहा है | इस बहाने 1988 में मंचित इस नाटक की रचना प्रक्रिया को याद करना अच्छा लग रहा है | इसके लिए पुंज प्रकाश को धन्यवाद, जिनके आग्रह पर यह टिप्पणी लिखी गयी ! राजू मिश्रा और उनके नाट्य-दल को अनेक शुभकामनाएँ ! 
और अंत में, इस टिप्पणी के माध्यम से मैं अपनी प्रस्तुति-दल के सर्जक सहकर्मियों, यथा - श्रीकांत किशोर, पंकज, अभिजित सरकार, संदीप मुखर्जी, सुनील किशोर, विनोद कुमार, मनोज वर्मा, रूमा रजनी, अलका, माया आचार्य, झा बहनें (मोना, सोनल और रूपा), कौशल मिश्रा, राजीव रंजन, सुमन कुमार सहित, 'मुक्ति-पर्व' की १९८८ की प्रस्तुति से जुड़े तमाम अभिनेताओं, नेपथ्यकर्मियों, संगीत मंडली के सहयोगियों एवं तकनीशियनों के प्रति आभार प्रकट करना चाहता हूँ, जिनके रचनात्मक सहयोग के बिना इस दृश्य-काव्य का सृजन असम्भव था !

परवेज़ अख्तर - भारतीय रंगमंच के प्रमुख हस्ताक्षरों में से एक | उनसे संपर्क करने के लिए यहाँ क्लिक करें |

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