रंगमंच तथा विभिन्न कला माध्यमों पर केंद्रित सांस्कृतिक दल "दस्तक" की ब्लॉग पत्रिका.

बुधवार, 11 जनवरी 2012

राजधानी में ‘वास्तविक रंगमंच’ का अस्तित्व नहीं है - हबीब तनवीर


हबीब तनवीर का यह आलेख Enact (August 1967) के आठवें अंक में प्रकाशित हुआ था. यह दिल्ली रंगमंच के विकास, उसके कारणों और उसकी बाधाओं का सटीक विश्लेषण करता है और आज के सन्दर्भ में और भी ज़्यादा प्रासंगिक हो जाता है. हबीब तनवीर किसी परिचय के मोहताज़ नहीं. आलेख अमितेश के ब्लाग रंगविमर्श से साभार प्रस्तुत किया जा रहा है . इस आलेख का अनुवाद अमितेश ने किया है.

दिल्ली में पेशेवर रंगमंच की कोशिशें हुईं थी पर वे असफल रहीं. आजादी के दस साल बाद इस दिशा में पहला ­­­प्रयोग किया गया था.
पिछले दशक में ऐसे एक-आध प्रयोग और हुए पर नतीजा सिफर रहा. ये एक तथ्य है. दूसरी ओर बीते दो दशकों में शौकिया(amateur) रंगमंच को भी धक्का लगा. परिणामत: राजधानी में कोई भी नाटक समूह नहीं उभर सका. वस्तु़त: ऐसा कोई समूह ही नहीं है, है क्या ?
प्रतिभा और कल्पना के योग वाले उत्साही रंगकर्मियों के अभाव में उद्देश्यपूर्ण रंगमंच असंभव है. दूसरी महत्त्वपूर्ण चीज है ऐसे रंगमंडल (Repertory) की स्थापना, जिसमें हर प्रस्तुति में आप पात्र और प्रोड्यूसर बदल दें. दिल्ली के अभिनेताओं की प्रवर्जन (Migratory) की प्रवृति को देखते हुए यह एक सही विचार था. इसे चलाने के लिए बमुश्किल एक अभिनेता समूह और एक कुशल प्रबंध समिति की आवश्यकता थी जो काफी थी.
पचास के दशक में कुछ अल्पजीवी किन्तु उपयोगी कार्यशालाओ ने यह दिखाया था कि ऐसा  किया जा सकता है. अपने को अंग्रेजी के नाटकों तक सीमित करते हुए जो बहु प्रचारित ब्राडवे और वेस्ट एंड के सफल नाटकों से लगातार लिए जाते थे, वे दिल्ली के एक खास दर्शक समूह के लिए थे. उनके दर्शकों में डिप्लोमेट और विदेशी थे जिनके लिए दिल्ली में कोई मनोरंजन मिलना कठिन ही था.
यहाँ ना कैबरे था, ना कंसर्ट, ना नाईट क्लब - कुछ भी ऐसा नहीं जिससे काकटेल पार्टियों की बोरियत को दूर किया जा सके. किसी का भी ध्यान इस ओर नहीं था स्वयं इन भुगतने वालो के अलावा कि शाम को अधिक रोचक ढंग से बिताने के और रास्ते कैसे निकाले जायें. अंग्रेजी भाषी मुल्कों के सृजनशील लोग अपनी ही बनायी ड्रामैटिक सोसाइटियों जैसे ब्रिटिश हाई कमीशन एडीसी या भारतीयों के उसी उद्देश्य के लिए बनाये समूह  में अभिनय कर, नाटक प्रस्तुत कर अपने को राहत देते थे.
इस कार्यक्रम को गति इस तथ्य ने दिया कि जब भी विदेशी मूल के भद्र महिला और पुरुष किसी नाटक में भाग लेते थे, न केवल चाणक्यपुरी और डिप्लोमेटिक एन्क्लेव के लोग उसको देखने के लिए उमड़ पड़ते थे, इनके साथ घुलने मिलने में देसी मेमसाहब और साहब भी गर्वानुभूति करते थे. क्लबों और अन्य जगहों पर राज के तहत चलने वाला रंग का पुराना प्रतिबंध अब कायम नहीं रहा था. इसकी कोई जरुरत नहीं थी. बड़ा साहेब ने देखा की उनके भारत छोडने से पहले इस प्रक्रिया से निर्मित देसी साहबों का वर्ग इस सांस्कृतिक विरासत को आगे बढ़ाएगा. वर्ग विभेद और तीखा हो जाएगा लेकिन रंग भेद नहीं होगा.
अंग्रेजी नाटक इसीलिए अपने रास्ते की कीमत चुकाते दिखे. नए समूहों ने अंग्रेजी में नाटक प्रस्तुत कर हिन्दी रंगमंच से शुरुआत छीन ली थी. और बाद में उसे उसी रास्ते पर चलने को विवश किया गया. इस प्रक्रिया को द्विभाषी समुहो ने त्वरित किया जो अपने हिन्दी नाटकों के लिए अपने दर्शकों में से एक दर्शक समूह को खीचने में सफल हुए जो उनके अंग्रेजी नाटकों में प्रेक्षागृह भर देता था. अधिकाँश साहेब वर्ग से आने वाले दर्शकों का यह समूह निस्संदेह अंग्रेजी के नाटक को प्राथमिकता देता था, बिना यह देखे कि यह देसी अभिनेताओं द्वारा किया जा रहा है या विदेशी अभिनेताओं द्वारा.  हिन्दी नाटक  दीनता से केवल सरंक्षित करने के भाव से देखा जाता था. इस दर्शक वर्ग को नक़ल बाँध नहीं सका, नकलची हिन्दी रंगमंच शायद ही सुधार कर पाया.
हिन्दी नाटय समूह बेहतर नहीं कर पा रहे थे. वे कैसे कर सकते थे ? आखिर वे कौन लोग थे जो इस समूह को चला रहे थे ? सामाजिक क्रांतिकारी ? नहीं बिलकुल नहीं. वे साधारण युवक थे और जो शिक्षा उन्होंने पायी थी उसके बाहर नहीं देख सकते थे. उन्होनें रंगकर्म अपने अंग्रेजी के प्रोफेसरों से सिखा था जो मौलिक सोच की तुलना में अपने को बहुत दूर के मूल्यों वाली ओस्कर वाइल्ड की उपयुक्त ऑक्सफोर्ड उच्चारण वाली उक्तियों से जोडते थे. और  इसे किसी थियेटर स्कुल से एक  मात्रा में इसे सीखा था. कहां से वे सीख सकते थे ? इस मुल्क में सौ साल से कोई रंगमंच नहीं था, इस बीच, हमने अंग्रेजी सीखी और  साहेबों की संस्कृति से जुड़ना बहुत महत्त्वपूर्ण समझा.
राजा राम मोहन राय, सर सैयद और पंडित नेहरू का चाहे जो मतलब रहा हो लेकिन जब वे चिंतन की पाश्चात्य पद्धति को  जनता की शिक्षा के नाम पर लागू करना और सतत बनाए रखना चाहते थे, वे निश्चित तौर पर हमें एंग्लो इन्डियन में परिणत करना चाहते थे. और हममें से कुछ अगर शाविनिस्ट निकले तो यह उसी प्रक्रिया का नतीजा था; निश्चित रूप से यह एंग्लो इन्डियन की प्रतिक्रिया थी जो कि  कुछ पंडितो ने संस्कृत ‘संस्कृति’ और हमारी भारतीय ‘सभ्यता’ की नामुमिकन पुनरुत्थान की चर्चा का आरम्भ कर दिया था. वे हमें शैतान से बचने के लिए जबरदस्ती एक गहरी खाई में उतरने की सलाह दे रहे थे.
संक्षेप में यह हमारी वर्तमान सांस्कृतिक स्थिति है. अगर हमारी संवेदनाओं के यह दो अतिरेकी छोर  किसी तरह की रंगमंचीय अभिव्यक्ति पाने में सफल हो जाते तो हम अब भी इस संघर्ष से किसी जगह पहुँचने की उम्मीद कर सकते थे. पर यह नहीं हो पा रहा था. इसकी जगह एक नीरस, अप्रयोगशील मध्यवर्गीय रंगमंच था जो जनता और उसके जीवन से दूर था. उसकी अभिव्यक्ति  और शिल्प भी दिशाहीन रूप से मवादित होने लगा था.
केवल एक पूर्णकालिक पेशेवर रंगमंच या दृष्टिसंपन्न पेशेवर रंगकर्मियों का समूह कुछ समय के लिए साथ मिल कर नया सक्षम रंगमंच प्रस्तुत कर सकते थे जो दर्शकों के सभी वर्गों तक पहुँचने में सक्षम होता. और ये तभी होता जब वे हमारे जीवन की जमीनी सच्चाइयों और संस्कृति से सतत प्रयास से जुडते और इसको लोकप्रिय समर्थन मिलता.
सभी प्रकार के रंगमंचो का स्वागत है; वे कुछ उद्देश्य पूरा कर रहे हैं या नहीं. लेकिन वस्तुतः राजधानी में ‘वास्तविक रंगमंच’ (the genuine theatre) का अस्तित्व नहीं है. यह सोचनीय है.

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