रंगमंच तथा विभिन्न कला माध्यमों पर केंद्रित सांस्कृतिक दल "दस्तक" की ब्लॉग पत्रिका.

सोमवार, 20 फ़रवरी 2012

करियर और अपनी संस्कृति को अलग नहीं कर सकता: गिरीश रंजन

गिरीश रंजन 
15 जून, 1934 ई. को पंछी, शेखपुरा में स्व. अलख नंदन प्रसाद जी के घर बालक गिरीश रंजन का जन्म हुआ l छ: भाई-बहनों में सबसे बड़े गिरीश रंजन ने इंटरमीडिएट की पढ़ाई के बाद ही फिल्मों की दुनिया को अपना कैरियर चुना l प्रसिद्ध फिल्मकार सत्यजीत रे, मृणाल सेन, तरुण मजूमदार, तपन सिन्हा आदि के साथ काम करते हुए उन्होंने सफलता की बुलंदियों को छुआ l सन् 1975 में गिरीश रंजन ने ‘डाक बंगला’ फिल्म का निर्माण एवं निर्देशन किया जिसे ‘बेलग्रेड फिल्म फेस्टिवल’ में आधिकारिक प्रविष्टि मिली l 1978 में इनकी फिल्म आई ‘कल हमारा है’ जो पूरी तरह बिहार के कलाकारों एवं तकनीशियनों के सहयोग से बनी फिल्म थी l मूलतः डाक्यूमेंट्री फ़िल्में बनाने वाले गिरीश रंजन बिहार की भूमि एवं संस्कृति को पूर्णत: समर्पित हैं l ‘वि रासत’ एवं ‘बिहार इतिहास के पन्नों में’ इनकी चर्चित डाक्यूमेंट्री फ़िल्में हैं l बिहार के प्रति इनका लगाव इस कदर है कि पैसा और ग्लैमर भी इन्हें मुंबई नहीं खींच पाया l सुधि पाठकों के समक्ष गिरीश रंजन जी से राजेश कुमार की बात-चीत प्रस्तुत हैl

आपका फ़िल्मी जीवन काफी लंबा है l जीवन के इस पड़ाव पर आप कैसा महसूस करते हैं ?

एक लंबे दौर से फिल्म निर्माण से मैं जुड़ा हुआ हूँ और उसके बाद जिन्दगी की बात जब सोचता हूँ, खाता हूँ, पीता हूँ, तो फिल्म की ही बात सोचता हूँ, सोता हूँ तो फिल्म में ही सोता हूँ और भगवान ने अगर शक्ति दी तो और भी फ़िल्में बनाऊंगा l

क्या आप अपने जीवन, अपनी फ़िल्मी कैरियर से संतुष्ट हैं ?

हाँ बिल्कुल, इसमें कोई दो मत नहीं है l

क्या वजह थी फिल्मों के प्रति आकर्षण का ? क्या आपने ग्लैमर और पैसे की ललक में फ़िल्मी दुनिया में प्रवेश किया ?

नहीं ऐसी बात नहीं है l देखिये, जिस जमाने में मैंने फिल्म ज्वाइन किया था, फिल्म से मैं जुड़ा था, उस जमाने में फिल्म दो लाख की बनती थी और अच्छी फ़िल्में बनती थी l पैसे की ललक ने हमको बहुत ज्यादा आकर्षित नहीं किया l उसका कारण यह है कि देखिए मै एक अत्यंत ही भावुक किस्म का आदमी हूँ l शायद इसका कारण, मेरा पारिवारिक परिवेश भी हो सकता है; हमने अपने पिताजी को मात्र 16 वर्ष की उम्र में खो दिया l बड़ी कठिनाइयों के बावजूद पढ़ाई-लिखाई हुई l अगर एक संवेदनहीन व्यक्ति है तो वो रचनाकार हो ही नहीं सकता है l मेरे पास यही साधन है कि मैं बहुत ही संवेदनशील इंसान हूँ l और मैं एक–एक फिल्म को देख करके अत्यंत ही द्रवित होता था, रोता था सिनेमा हॉल में बैठकर के आंसू पोंछता था और तब मुझे लगता था कि मेरे अंदर की जो संवेदनाएं हैं उन्हें अंतत: अगर अभिव्यक्ति मिल सकती है तो उसका एकमात्र माध्यम सिनेमा ही है l

क्या हम आपके इस तर्क से यह स्थापना दे सकते हैं कि भावना एवं कला में अन्योन्याश्रय संबंध है ?


जैसा कि मैंने कहा कि एक संवेदनहीन व्यक्ति है तो वह कभी कलाकार नहीं बन सकता, दोनों एक दूसरे से जुड़े हुए हैं l अब इस पर निर्भर करता है कि आप किन विधाओं में अपनी संवेदनाओं की अभिव्यक्ति करते हैं l

आपने सत्यजीत रे के साथ काम किया है, जो बड़े महान फिल्मकार है, उनको ऑस्कर अवार्ड से भी नवाजा गया है l इनके अलावा आपने और किन-किन फिल्मकारों के साथ काम किया है ?


मेरा यह सौभाग्य रहा है कि उन दिनों के गिने- चुने topmost फिल्मकार थे उनके साथ काम किया है l सत्यजीत रे के अलावा मृणाल सेन, तपन सिन्हा, ऋषिकेश मुखर्जी, तरुण मजुमदार, राजेन्द्र दा इत्यादि महान फिल्मकारों के साथ काम करने का अवसर मिला है l

आपने बहुत सारे अच्छे-अच्छे फिल्मकारों के साथ काम किया जैसे सत्यजीत रे, मृणाल सेन आदि l उस जमाने के फिल्मकार और आज के फिल्मकारों में क्या अंतर महसूस करते हैं ?

दृष्टीकोण का फर्क है l बांग्ला फिल्मों को छोड़े हुए एक अरसा गुजर गया लेकिन मेरी अपनी अनुभूति यह कहती है कि आज जब मैं बांग्ला फिल्मों को देखता हूँ तो बहुत ही स्तरहीन फ़िल्में दिखाई पड़ती हैं l और वह अच्छा नहीं है l क्यूँ ऐसा हो गया ? फिल्म की एक सबसे बड़ी बात यह है कि फिल्म एक बहुत ही costly मीडिया है l यह कथाकारों की तरह या चित्रकारों की तरह नहीं कि कैनवास लाया और उसे रंगों में सजा दिया l फिल्म में तो लाखों-लाख रुपया लगता है l और जब तक कि आपकी पटकथा बहुत तगड़ी और अच्छी न हो तब तक फिल्म के चलने और न चलने के बीच की जो दुविधा है वह दुविधा बरक़रार रहती है और आदमी compromise करता है और compromise करके हल्की फ़िल्में बनाता है ताकि गंभीर चिंतन की आवश्यकता दर्शकों को न हो l यही कारण है कि फिल्म का स्तर गिरता चला जाता है l

साठ-सत्तर के दशक में अधिकतर कलात्मक फिल्में बना करती थीं लेकिन आज इक्कीसवी सदी में जो फिल्मे बन रही हैं उन पर तकनीक काफी हावी होता जा रहा है l आप क्या ये महसूस करते हैं कि तकनीकी विकास ने कलात्मक पक्ष को कहीं पीछे छोड़ा हैं ?

नहीं, मैं तो उल्टा ही कहूँगा कि तकनीकी विकास एक कलाकार की पूरी जो दृष्टि है उसे अच्छी तरह जागृत करती है l उसका कारण है l अगर तकनीक की बात करें तो आप महाभारत सीरियल को ही ले लीजिए l आज आप भले ही उसे DVD पर देख लें लेकिन जिस समय यह धारावाहिक छोटे परदे पर आ रहा था पूरा शहर वीरान हो जाता था l आज भी अच्छी फिल्में बन रही हैं जैसे अभी मैंने परसों ही देखा है ‘पीपली लाइव’ लगा कि एकदम ही सामाजिक फिल्म है l अगर आपने नहीं देखा है तो देख लीजिए कि कैसे ग्रामीण कलाकार, नए-नए लोग हैं और अच्छी फिल्म बनी है l तो विषयों का जो चुनाव है, यह दुर्भाग्य है हमारा कि हम ग्लैमरस फ़िल्में ज्यादा बनाते हैं, बनाते रहेंगे लेकिन कुछ फ़िल्में अभी भी हैं जो बढ़िया, अच्छी बन कर के आ रही हैं l तो जहाँ तक तकनीक का जो प्रश्न है, यह तकनीक अच्छी तरह से इस्तेमाल करने के बाद वह फिल्म में चार-चाँद लगा देता है l

आज के फिल्मकारों में कौन फिल्मकार या कौन कौन सी फिल्मों से आप बहुत प्रभावित महसूस करते हैं ?

देखिए, ऐसा है कि नाम तो मै बहुत भूलता हूँ लेकिन जैसे WEDNESDAY फिल्म आई थी, आप उस फिल्म को देखें, बहुत ही अच्छी फिल्म बनाई है l इसी तरह से “रंग दे बसंती”, फिर हॉकी पर जो फिल्म बनी “चक दे इंडिया” ये सब कितनी अच्छी फिल्में हैं l इस तरह से और भी हैं l अंत में “पीपली लाइव” को देख लीजिए आप, बहुत अच्छी फिल्म बनाई है l

आपकी पहली फिल्म कौन सी थी ?

मैंने पहली फिल्म बनाई मगही में जिसका नाम था “मोरे मन मितवा” l कुल मिला कर मगही में दो ही फिल्म बनी है l

बिहार के सामान्य ज्ञान की किताबों में आपकी चर्चा बिहार के प्रथम फिल्मकार के रूप में है l क्या इससे आपको गर्व महसूस नहीं होता है?

जी, मैंने तो किताब ही नहीं देखी है, आप बता रहे हैं तो मुझे अभी पता चला l बिहार में फिल्म का इतिहास बहुत पुराना है, मैं ये क्रेडिट लेना नहीं चाहता l ऐसी बात नहीं है l राजा द्रोण ने 1934 में फिल्म बनाई, उसके बाद मैंने फिल्म बनायी l ये अलग बात है कि उनकी फिल्म और मेरी फिल्मों में आसमान जमीन का अंतर है l

आपने डाक्यूमेंट्री फिल्में भी बनाई हैं जैसे विरासत, बिहार इतिहास के पन्नों में, आदि l इन सब में बिहार की संस्कृति पर काफी जोर दिया गया है, कोई खास वजह ?

बिहार मेरी जन्मभूमि है और बिहार के प्रति मेरे मन में असीम श्रद्धा है l बिहार को जानने की और सम्पूर्ण रूप से समझने की इच्छा रही है मेरी l मैं बहुत जानना चाहता हूँ लेकिन मैं फिल्मकार हूँ l मैं फिल्में बनाता हूँ ताकि अपनी भावनाओं को उसमें सामाहित कर सकूँ और दूसरे के ह्रदय में उसे प्रविष्ट करूँ l यही मेरा उद्देश्य रहा है l आज का युवा, आज का नौजवान कितना है जो बिहार की संस्कृति को जानता है l बिहार की ऐसी बहुत सारी बातें हैं, संस्कृति है जो बिहार के विद्वानों ने किताबों में लिख दी लेकिन कुछ ही लोग उस तरह की किताबें पढ़ते हैं जिनसे कि उन्हें बिहार की थोड़ी-बहुत जानकारी हो l जैसे कि दिनकर जी ने संस्कृति के ऊपर जो किताब लिखी है आप अगर उनकी इस किताब के कुछ पन्नों को रोज पढ़ें तो आप भारतीय संस्कृति को जान पायेंगे l मैंने यही प्रयास अपनी फिल्मों के माध्यम से किया है ताकि आप कम से कम समय में अपनी संस्कृति को जान सकें l

आज के युवा जो मध्यमवर्गीय परिवार या जो निम्नवर्गीय परिवार से आते हैं, वो अपने करियर की समस्या से जूझ रहे हैं l ऐसे में इतिहास की, संस्कृति की क्या प्रासंगिकता है उनके लिए ?


देखिए करियर अपनी जगह है l अगर सिर्फ करियर है तो फिर आप शादी-ब्याह में लोक-गीत क्यों गाते हैं ? फिर आप शादी-ब्याह या कोई भी तीज-त्यौहार हो तो आप क्यों नाक से लेकर मांग तक सिंदूर लगा करके उत्सव मनाते हैं l ये कब कहा गया कि आप अपनी संस्कृति को मत जानिए l तो कल को आप ये कहेंगे कि मैं सिर्फ मैं ही हूँ, मैं अपने बाप को क्यों जानूँ, अपने दादा को क्यों जानूँ, अपने परदादा को क्यों जानूँ ? ये तो कोई बात ही नहीं हुई l ऐसी स्थिति में अपनी संस्कृति संरक्षित करने की जरुरत है l जैसे संस्कृत लुप्तप्राय है वैसे ही संस्कृति भी लुप्त हो जायेगी l ऐसे में आज के युवा का यह दायित्व है कि वो इस बारे में जाने l हम क्या कर सकते है, हमने फिल्म बना दिया, आपके सामने रख दिया, लो देखो और जानो l

आपने बिहार को ही अपनी कर्मभूमि के रूप में क्यों चुना ?

क्यों भाई, हर आदमी मुंबई ही चला जाये, कोई जरुरी है l मुंबई में जो करोड़ों-करोड़ की फिल्में बन रही हैं उन फिल्मों में मैं कहाँ हूँ ? मैं तो विडियो पर फिल्में बनाता हूँ जिसे लोग देखते हैं l सरकार के लिए फिल्में बनाता हूँ, सरकार जिसे PRO के माध्यम से कॉलेजो में, पंचायतों में दिखाते रहते हैं l अब इससे कौन कितना ग्रहण करता है यह तो हरेक व्यक्ति की अपनी बौद्धिकता पर निर्भर करता है l

कहा जाता है कि किसी भी उद्द्योग का विकास बाजार के आस-पास होता है l फिर हिंदी फिल्मों के लिए तो बाजार बिहार और यूपी जैसे क्षेत्र हैं, किन्तु फिर भी हिंदी फिल्मों का विकास मुंबई में क्यों हुआ वह तो हिंदी-भाषी क्षेत्र भी नहीं है ?

दादा साहेब फाल्के ने जो फिल्म बनाई थी उन्होंने मराठी में क्यों नहीं बनाई थी, पहली फिल्म भी उन्होंने “राजा हरिश्चंद्र” हिंदी में ही बनाई थी l यह बिहार का दुर्भाग्य है, उत्तर प्रदेश का दुर्भाग्य है कि यहाँ के लोग जो भी हुआ बम्बई भाग गए और सरकार ने भी कभी भी film development corporation की स्थापना की कोशिश नहीं की l

इन दिनों बिहार में भोजपुरी फिल्में काफी बन रही हैं l उन फिल्मों की गुणवत्ता के बारे में आपकी क्या राय है ?


बोगस है l भोजपुरी फिल्में लोग पंजाब में, हरियाणा में देखते हैं क्योंकि उनका अपना लगाव है लेकिन इनको standardise नहीं किया जा रहा l मैंने कहीं पढ़ा है कि लगभग 200 फिल्में बनती हैं भोजपुरी भाषा में एक साल में l लेकिन अगर यही फिल्में बिहार में बने तो बिहार के कलाकार, बिहार के टेक्नीशियन सारे लोग अपनी पहचान बनाने में सक्षम होंगे l लेकिन उनका स्तर अभी बहुत ही घटिया है l अभी क्षेत्रीय फिल्मों, जैसे बांग्ला, तमिल, तेलगु का स्तर ग्रहण करने में बहुत वक्त लगेगा l

नब्बे के दशक में ग्लोब्लाइजेशन का दौर आया इसका बिहार की अर्थवयवस्था के साथ-साथ समाज और संस्कृति पर भी व्यापक प्रभाव पड़ा, इसे किस रूप में आप देखते हैं ? क्या ये अच्छा प्रभाव है या बुरा प्रभाव है ?

बिहार का जहाँ तक सवाल है- आप पर दूसरी संस्कृति का प्रभाव क्यों पड़ता है ? दूसरी संस्कृति का प्रभाव तभी आप पर पड़ता है जब आप, आपकी संस्कृति, कमजोर होती है l आज आप बांग्ला संस्कृति पर पंजाबी संस्कृति का प्रभाव नहीं देखते लेकिन बिहार में सबसे पहले देखते हैं l यहाँ शादी में भी भांगड़ा टाइप का नाच करते हैं l मुझे ये लगता है कि चुकि हम अपनी संस्कृति को नहीं जानते हैं और उसकी गहराई में पहुंचना नहीं चाहते हैं इसलिए हम छिछले हैं; हम पर दूसरी संस्कृतियाँ जो इतनी हल्की होती हैं हम पर हावी हो जाती हैं l

आप हमें अपनी भावी योजनाओं के विषय में कुछ बताइए ?

बिहार से तो जुड़ा हुआ हूँ मैं और मेरी सारी योजनाएं भी, चाहे वो डाक्यूमेंट्री हो या फीचर फिल्म सब बिहार से जुड़ीं होती है l एक फिचर फिल्म की भी योजना मैं बना रहा हूँ l राजा राधिका रमन की कहानी पर आधारित फिल्म की पटकथा तैयार है, बस फाइंनेसर की तलाश है, मिल जाये तो काम शुरू करूँगा और उसमें यही मेरी शर्त है कि सारे कलाकार और तकनीशियन बिहार के ही हों और यह पूरी फिल्म बिहार की हो l

जो युवा आज फिल्म की दुनिया में प्रवेश करना चाहते हैं उन्हें आप क्या मार्गदर्शन देना चाहेंगे ?

बिहार के युवा को अपनी संस्कृति का ज्ञान होना चाहिए l जब तक आप अपनी संस्कृति को नहीं जानेंगे, उसकी मर्यादा नहीं जानेंगे तब तक आप भटकते रहेंगे l इसलिए आवश्यक है कि आप अपनी संस्कृति अपने इतिहास का अध्ययन करें, आपके पास किताबें है पढ़ने के लिए, जानने-समझने के लिए l नहीं तो फिर वही होगा की दो-चार फिल्मों के बाद आपकी उर्जा समाप्त l

2 टिप्‍पणियां:

  1. प्रिय पुंज भाई !
    आपका यह आलेख रोचक है , फिर भी कुछ तथ्यात्मक जानकारियाँ संभवतः अनजाने-जाने में छूट गईं हैं.साक्षात्कार में निर्देशक गिरीश रंजन जी ने यह जानकारी देने से क्यों बचते रहे कि दूरदर्शन केंद्र, पटना के लिये उन्होंने स्व.हिमांशु श्रीवास्तव द्वारा लिखित उपन्यास ' लोहे के पँख' पर आधारित टेली धारावाहिक का प्रस्ताव किस तरह स्वीकृति लेकर निर्माण किया ! एक निर्माता-निर्देशक के रूप में उन्हें भारतीय प्रतिलिप्याधिकार कानून, १९५७ के अंतर्गत वे पटना व्यवहार न्यायालय द्वारा दोषी अभियुक्त सिद्ध किये जा चुके हैं. उम्र के आधार पर पूरे तीन वर्ष के कारावास से माफ़ी के विरुद्ध पटना उच्च न्यायालय में क्रिमिनल रिवीजन याचिका न्यायमूर्ति अम्मानुल्लाह की न्यायपीठ में १५५३/१० क्रमांक पर दर्ज है.प्रार्थी मैं हूँ, इसलिये आपको जानकारी करा हूँ. पूरी धारावाहिक का प्रतिलिपि मेरे पास है, आप जब चाहे आकर देख लें और स्वयं निर्णय करें कि ऐसे उच्चस्तरीय निर्देशक की कलाप्रतिभा का स्तर कैसी है और मूल लेखक की रचना की गुणवत्ता का चित्रांकन कैसा हुआ है ?
    आशा है, मेरी बातों को सामान्य रहकर ग्रहण करेंगे और प्रत्युत्तर देंगे.आपका ब्लॉग मेरे ब्लॉग ' बतरस' से भी जुड़ा है और मैं आपसे 'फेसबुक' पर भी...!
    आपका,
    पद्मसंभव

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  2. perbhah ak short film bani thi bihar k canal system per.mainey bhi ush film mai abhinay kiya tha.rupa jha officialy director thi,lakeen puree film ka direction girish ranjan jii nay hi kiya tha.

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