रंगमंच तथा विभिन्न कला माध्यमों पर केंद्रित सांस्कृतिक दल "दस्तक" की ब्लॉग पत्रिका.

शुक्रवार, 31 अगस्त 2012

एके हंगल : खतरनाक है ये सन्नाटा.

पुंज प्रकाश

स्वतंत्रता सेनानी और रंगमंच व सिनेमा के यथार्थवादी अभिनय शैली के बेहतरीन अदाकार अवतार कृष्ण हंगल ( ए. के. हंगल ) का निधन 25 अगस्त 2012 को हो गया. हंगल 2007 से गंभीर रूप से बीमार चल रहे थे, पिछले दिनों बाथरूम में फिसल जाने के कारण उनके कूल्हे की हड्डी टूट गई थी. जीवन के अंतिम दिनों में इलाज के पैसों के लिए की कमी से जूझते अभिनेता व स्वतंत्रता सेनानी हंगल को श्रद्धांजलि देने मायानगरी का कोई भी 'बड़ा स्टार' नहीं पहुंचा. लगभग 200 फिल्मों में अभिनय करने के दौरान उन्होंने कई “बड़े स्टारों” के साथ काम किया था. सबने फेसबुक, ट्विटर पर ही दो चार लाइन लिखकर काम निपटा दिया. इप्टा के कुछ सदस्यों एवं फ़िल्मी हस्तियों ने सहायता का वादा भी किया. कुछ ने निभाया भी. हंगल के देहांत के पश्चात् भारत के अनेकों शहरों में उनकी स्मृति में शोक सभाओं का आयोजन हुआ. श्रद्धांजलि देनेवाले हाथ सहायता करनेवालों से कई गुना ज़्यादा थे.
जहाँ तक सवाल समाचार चैनलों का है तो वहाँ भी हंगल साहेब को लेकर लगभग सन्नाटा ही पसरा रहा. लगभग हर समाचार चैनल ने अपने स्क्रीन के नीचे खबर की डंडी चलाकर ही काम चला लिया. अभी हाल ही में एक सुपरस्टार का देहांत हुआ था, उनके बीमार होने की खबर सुनते ही उनपर आधारित कार्यक्रमों का प्रसारण शुरू हो गया. जैसे ही उनका देहांत हुआ एक खास तरह के कार्यक्रम लगभग सारे समाचार चैनलों ने प्रसारित करने की होड सी लग गई थी. साफ़ है कि तैयारी पहले से ही थी. पर हंगल साहेब टीआरपी बढ़ाने वाले अभिनेता नहीं थे ( ऐसा इन चैनलों का मानना हैं ) सो उनके देहांत पर जैसी शर्मनाक चुप्पी इन चैनलों ने ओढ़ी उसे देखकर इन चैनलों का चरित्र पता चलता है.
हंगल का जन्म सियालकोट, पंजाब ( अब पकिस्तान ) में हुआ था. आज़ादी के बाद पकिस्तान में लगभग दो साल ( 1947 से 1949 ) तक कैद में रहने के पश्चात सज्जाद ज़हीर के कहने पर सन 1949 में करांची से बॉम्बे ( मुंबई ) आए हंगल इप्टा और भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी के ताउम्र सदस्य रहे. रंगमंच उनका पहला प्यार था. फिल्मों ने तो उनकी प्रतिभा को एक स्टीरियोटाइप इमेज में कैद कर दिया. वो रंगमंच और अपने आदर्शों के प्रति समर्पण की वजह से फिल्मों में आना ही नहीं चाहते थे पर बच भी न सके. उनके फ़िल्मी जीवन का आगाज़ तीसरी कसम ( 1967 ) से हुआ. वजह थे इप्टा से जुड़े गीतकार शैलेन्द्र जो बासु भट्टाचार्य के निर्देशन में कथाकार फणीश्वरनाथ रेणु की कहानी तीसरी कसम उर्फ़ मारे गए गुलफ़ाम पर आधारित फिल्म बना रहे थे. उस वक्त हंगल की उम्र 50 वर्ष थी. इस फिल्म में वो हीरामन ( राजकपूर ) के बड़े भाई की भूमिका निभा रहे थे. उन्होंने शूटिंग की, लेकिन संपादन के दौरान उनके कुछ सीन काट दिए गए, उन्हें बताया गया कि फिल्म लंबी हो रही थी. इस फिल्म के बारे में अपनी आत्मकथा  लाइफ एंड टाइम्स ऑफ एके हंगलमें उन्होंने लिखा है कि “शूटिंग के लिए वे नियत समय पर 9 बजे स्टूडियो पहुंच गए. उम्मीद थी कि सभी समय से आएंगे, लेकिन लंच तक राज कपूर के आने का इंतजार करना पड़ा.” उसके बाद उन्हें देवेन वर्मा की नादानऔर बासु भट्टाचार्य की अनुभवमिल गईं. बासु चटर्जी की सारा आकाशमें भी उन्होंने काम किया. ये सभी फिल्में विलंब से रिलीज हुईं, जबकि बाद में शुरू हुई शागिर्दपहले. जॉय मुखर्जी और सायरा बनो अभिनीत इस फिल्म ने गोल्डन जुबली मनाई थी. पर गोल्डन जुबली के जलसे में हंगल को बुलाया तक नहीं गया.
हंगल साहेब का दर्ज़ा फिल्मों में चरित्र अभिनेता का है जो हर फिल्म की ज़रूरत होते हैं. किसी भी फिल्म में ‘स्टार’ या ‘स्टारीन’ एक या दो होतें हैं पर चरित्र अभिनेता कई. स्टार के बिना तो शानदार फ़िल्में बनी हैं पर चरित्र अभिनेताओं के बिना ऐसा करना संभव नहीं. ज़रा कल्पना कीजिये अगर शोले में संजीव कुमार (ठाकुर), विजू खोट (कालिया), मैकमोहन (साम्भा), असरानी (जेलर), जगदीप (सूरमा भोपाली) आदि चरित्र अभिनेता नहीं होते तो केवल अमिताभ-धर्मेन्द्र (जय-वीरू) के सहारे क्या शोले बनाई जा सकती थी ? भारतीय सिनेमा उद्योग में चरित्र भूमिकाओं को निभाने वाले कलाकरों की त्रासदी प्रसिद्ध अभिनेत्री और चरित्र भूमिकाएं निभानेवाली निरुपा राय के शब्दों में कुछ यूँ बयां होती है – “हम फिल्मों में दिखते हैं, जाना माना चेहरा हैं, लेकिन इसका मतलब यह नहीं है कि सितारों जितना कमातें हैं. हमें बहुत मामूली मेहनताना मिलता है.” कठोरतम सच ये है कि भगवान दादा समेत कई ऐसे चरित्र अभिनेता हुए जिनके आखिरी दिन मुफलिसी में बीते. कुछ को तो भीख तक मांगनी पड़ी. फिल्म मदर इण्डिया में ज़मींदार की भूमिका निभानेवाले चरित्र अभिनेता संतोष कुमार खरे शायद आज भी लखनऊ में भीख मांग रहें हैं. हंगल साहेब ने हमेशा इसके खिलाफ़ आवाज़ उठाई पर त्रासदी ये कि उन्हें भी ये दिन देखने पड़े. फिल्मों ने हंगल साहेब जैसे कलाकारों को सम्मान और आर्थिक रूप से थोड़ा सहारा ज़रूर दिया, पर ये मामला कुछ-कुछ ऐसा ही है जैसे कोई उद्योगपति अपने मजदूरों को रहने खाने का इतना भर का इंतज़ाम कर दे ताकि वो विद्रोह पर उतारू न हो जाए और दूसरे दिन वो फिर काम पर आ सके. अपनी आत्मकथा में हंगल साहेब लिखतें हैं – “Bollywood’s tendency to ignore the “complex social fabric of society” and make stereotyped films. “[Honestly] speaking, even after working in about 200 films, and getting name and fame, I often feel I am a stranger in this world because of my ideological and political background, sensitiveness and social commitments.”
ठाकरे परिवार ने पाकिस्तान काउंसल जेनरल ऑफिस में आयोजित स्वतंत्रता दिवस समारोह में शिरकत करने के एवज में इन्हें देशद्रोही करार दिया और माफ़ी मांगने को कहा. जिस घराने के आगे फिल्म उद्योग के बड़े-बड़े निर्माता, निर्देशक व महानायक मत्था टेकतें हैं वहाँ हंगल साहेब ने सर झुकाने से साफ़ इनकार कर दिया. नतीज़ा, फिल्मों के निर्माता-निर्देशकों ने लगभग दो साल तक इन्हें जात बाहर करके रखा. हंगल साहेब बहुत उदास होके बोले  “मैं अपना सबकुछ पीछे छोड़कर करांची से भारत आया था, पर लोग मुझपर आज भी पाकिस्तानी होने का शक करते हैं !” 

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