रंगमंच तथा विभिन्न कला माध्यमों पर केंद्रित सांस्कृतिक दल "दस्तक" की ब्लॉग पत्रिका.

सोमवार, 31 अक्तूबर 2011

रंगमंच में कम होती जा रही है अभिनेता की भूमिका

सतीश आनंद पिछले चार दशकों से हिंदी रंगमंच में एक महत्वपूर्ण और केंद्रीय व्यक्तित्व के तौर पर उपस्थित हैं। उन्होंने नब्बे से भी अधिक नाटकों का निर्देशन किया और लगभग डेढ़ सौ नाटकों में प्रमुख भूमिका निभाई है। ‘बिदेसिया’ के रूप में एक नया मुहावरा देकर हिंदी रंगमंच को समृद्ध करने वाले सतीश आनंद से राजेश चन्द्र की बातचीत-




आपकी राय में हिंदी रंगमंच पिछले दो-ढाई दशकों में क्या हासिल कर पाया और क्या नहीं?

हिंदी रंगमंच की जो सबसे बड़ी सीमा बन गई है वह यह कि एक व्यावसायिक रंगमंच की तरह इसका विकास नहीं हो पाया। व्यावसायिक से मतलब सिर्फ पैसे कमाना नहीं है, बल्कि एक कलात्मक मूल्य अर्जित करना भी है। रंगमंच आज भी समाज की जरूरत नहीं बन सका है। जब तक वह समाज की जरूरत नहीं बनता, उसमें स्थायित्व नहीं आ सकता। सिनेमा ने वह स्थान प्राप्त कर लिया है और वह समाज का हिस्सा बन गया है। हिंदी रंगमंच में जितने प्रयोग हो रहे हैं, जितनी विविधता यहां दिखाई पड़ती है वह अन्य भारतीय भाषाओं में उपलब्ध नहीं है। अपनी इस प्रयोगधर्मिता का उसे यह खमियाजा भुगतना पड़ा है कि आज उसका दर्शक-वर्ग छोटा-सा ही रह गया है।

अगर हम दिल्ली की ही बात करें तो यहां की आबादी एक करोड़ अस्सी लाख है। अगर औसत 500 दर्शक एक नाटक को देखते हैं तो कुल 25,000 लोगों तक ही वह पहुंचता है। अखबारों में हम आए दिन पढ़ते हैं कि अपार जनसमूह ने अमुक नाटक को देखा। दूसरी तरफ पचास प्रदर्शन के बाद किसी नाटक की संभावना चुक गई होती है। हिंदी क्षेत्र की जनसंख्या को देखते हुए सोचें कि हम कितने लोगों तक पहुंच पाते हैं? क्या हमारे पास इतने संसाधन हैं, इतनी सार्मथ्य है? हमें सैकड़ों संस्थाएं चाहिए, सैकड़ों प्रेक्षागृह चाहिए, तभी हम अधिकांश लोगों तक थिएटर को ले जा सकेंगे।

एक निर्देशक के रूप में आपकी कोशिश क्या रहती है?

एक निर्देशक के तौर पर सबसे पहले मैं एक ऐसे आलेख की तलाश करता हूं, जो मेरी संवेदना को उद्वेलित करे और समाज के व्यापक सरोकारों को अभिव्यक्त करे। उसके बाद नाटक के डिजाइन या रूप की बारी आती है कि नाटककार ने जो बात उठाई है, उसे एक निर्देशक की हैसियत से कलात्मक रूप में कैसे सामने लाया जाए। कई बार आलेख में परिवर्तन भी करने पड़ते हैं। लेखक यदि जीवित हैं तो उनकी सहमति लेकर ऐसा किया जाता है। शैली या रूप का चुनाव करते समय मैं ध्यान रखता हूं कि वह नाटक को उद्घाटित करने में सहायक बने। मेरे लिए दर्शकों की सोच में कुछ नया जोड़ पाना ही सबसे बड़ी चुनौती रही है। पारंपरिक नाट्य रूपों से नाट्य-तत्व लेकर नई नाट्य-भाषा गढ़ने के उद्देश्य से ही मैंने पहले-पहल बिदेसिया पर काम करना शुरू किया और इस रचना-प्रक्रिया में कई नए तत्व उभर कर आए। यह नितांत अपनी कोशिश थी जिसमें मुझे अहसास हुआ कि पूरे भारतीय रंगमंच में मैंने एक नई नाट्य-भाषा गढ़ी, जिसे सभी रंगकर्मियों, समीक्षकों और दर्शकों की सराहना प्राप्त हुई।

सबसे बड़ी सीख मुझे यह मिली कि अगर आपको बात कहना आता है और आपके पास तकनीकी कौशल है, तो आप उसे कहने में सफल होंगे। वहां रूप बहुत मायने नहीं रखता। रूप और कथ्य के अंतर्संबंधों को लेकर विवाद रहा है। यह सही है कि हमें कथ्य को रूप के अनुसार रूपांतरित करना पड़ता है। कथ्य की समझ और तकनीकी कौशल का एक उच्चस्तरीय सामंजस्य निर्देशक में होना चाहिए, तभी यह संभव है।

नाटककार नाटक लिखता है, निर्देशक एक महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है। उसके बाद क्या वाकई रंगमंच अभिनेताओं का माध्यम रह जाता है?

नाट्यशास्त्र से लेकर 21 वीं सदी तक के पूरे भारतीय, यूनानी, रूसी या पाश्चात्य रंगमंच को देखें, तो सब में अभिनेता ही केंद्र में रहा है। इधर एक नया ट्रेंड चला है जिसमें निर्देशक एक डिजाइनर बन गया है। इस तरह के रंगकर्म में अभिनेता को सिर्फ एक उपकरण की तरह इस्तेमाल किया जाता है और यहां पर आकर अभिनेता होने के मूल्य में गिरावट आई है। रंगमंच के लिए जिस तरह अन्य तत्वों का इस्तेमाल होता है, अभिनेता की भी ठीक उतनी ही हैसियत रह गई है। थिएटर में या चारित्रिक विकास में एक अभिनेता के लिए जो एक परिकल्पना थी उसे आज के निर्देशक ने गायब कर दिया है। पारंपरिक या यथार्थवादी धारा का जो रंगमंच है उसमें आज भी अभिनेता ही केंद में है, पर यह जो उत्तर आधुनिक रंगमंच के तौर पर एक इंस्टालेशन या डिजाइनर थिएटर सामने आया है, उसने अभिनेता को गौण कर दिया है, उसकी भूमिका बहुत सीमित कर दी है। उसकी जगह दूसरे ऑडियो-विजुअल और दृश्यात्मक तत्व प्रमुख हो गए हैं। वहां चूंकि कथानक टुकड़ों में बंटा हुआ होता है इसलिए अभिनेता के स्वाभाविक विकास की कोई संभावना ही नहीं बचती।

-राजेश चन्द्र
(कवि, रंगकर्मी, अनुवादक एवं पत्रकार)
सम्प्रति- स्वतंत्र लेखन एवं पत्रकारिता, नयी दिल्ली।
( नवभारत टाइम्स में 13 अगस्त 2011 को प्रकाशित)

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