रंगमंच तथा विभिन्न कला माध्यमों पर केंद्रित सांस्कृतिक दल "दस्तक" की ब्लॉग पत्रिका.

रविवार, 9 अक्तूबर 2011

मेरे भीतर का लेखक रोता है - सागर सरहदी

सागर सरहदी 
फिल्मी दुनिया में मुझे बहुत मान-सम्मान मिला है। यहां मेरे संवाद पटकथा और निर्देशन को भी खूब सराहा गया लेकिन मैं इस दुनिया का बाशिंदा अपने शौक से नहीं मजबूरी से बना। मेरा पहला प्यार अभी भी लिखना ही है।
मैं यही चाहता हूं कि आने वाली पीढ़ियां मुझे लेखक के रूप में पहचानें। काश ऐसा हो पाए। मैंने ढेरों शॉर्ट स्टोरीज और नाटक लिखे हैं, लेकिन मैं उर्दू में लिखता था। इस काम से कोई खास इनकम नहीं हो पाती थी। परिवार का खर्च चलाने का भी दबाव था। उसके बाद पैसे कमाने के लिए मैं फिल्मी दुनिया में चला आया। इसका पछताता आज भी मुझे है कि मैं फिल्मी दुनिया में क्यों आया। हालांकि यहां भी मैंने ‘कभी कभी’, ‘सिलसिला’, ‘चांदनी’ जैसी अच्छी फिल्में लिखीं और ‘बाजार’ जैसी आलोचकों द्वारा खूब सराही गई फिल्म का निर्देशन किया, लेकिन इसके बावजूद मुझे आत्मसंतुष्टि नहीं मिली।
मेरे भीतर का लेखक रोता है, मुझे पुकारता है। फिल्मों की वजह से जो राइटर है वो कहीं खो गया। अब मैं चाहता हूं कि एक-डेढ़ साल और फिल्मों को दूं और चार पैसे कमा कर दोबारा कहानियों की दुनिया में लौट जाऊं। देखता हूं किस हद तक इस काम में सफलता मिल पाती है।
मेरी पैदाइश आजादी के पहले की है। मौजूदा पाकिस्तान का एबटाबाद कस्बा जहां पिछले दिनों ओसामा बिन लादेन मारा गया, वहीं नजदीक के एक गांव में मैं पैदा हुआ। वह समय बहुत ही अच्छा समय था। गांव, दरिया और पहाड़ के बीच में हमारा घर।
उस मिट्टी की खुशबू मेरी सांसों में बसी है मैं उसे हर पल जीता हूं। वह सब मुझमें रचा-बसा हुआ है। विभाजन की त्रासदी ऐसी भीषण थी कि जिसने उसे झेला नहीं वह कभी उसका अंदाजा तक नहीं लगा सकता।
हम अपने इलाके के रईस घरानों में आते थे पिता ठेकेदार थे लेकिन विभाजन के ठीक बाद हमें वहां से भागना पड़ा। हमें ट्रकों में भरकर श्रीनगर और फिर दिल्ली लाया गया। दिल्ली में हम शरणार्थी शिविर में रहे। सारी शानौ शौकत वहीं छूट गई, यहां हमें खाना तक मांगकर खाना पड़ता था।
वो हादसा अब तक मेरा पीछा कर रहा है। मैं पता नहीं क्या बनना चाहता था लेकिन मैं कैसे पनपता मेरी तो जड़ ही कट चुकी थी। पार्टीशन के बाद मेरे पिता नए माहौल से तालमेल नहीं बिठा पाए और वह गुजर गए। आखिर आप एक बड़े पेड़ को उखाड़ कर दूसरी जगह नहीं लगा सकते।
खैर, मैं अपने बड़े भाई और उनके परिवार के साथ मुंबई चला आया। एक छोटे कमरे में भाई-भाभी और उनके छह बच्चों के साथ रहता था। वह जीवन का बहुत कठिन क्षण था। आखिरकार मैंने अपने मन की बेचैनी को लेखन के जरिए निकालने की ठानी।
मैं लेखक बन गया। लेकिन परिवार पालने के लिए पैसे की तलाश जल्द ही सिनेमा की दुनिया में ले आई। अब फिल्में भी पहले की तरह नहीं बनतीं। मेरा मानना है कि उन्हें केवल मनोरंजन का माध्यम नहीं होना चाहिए बल्कि उन्हें सामाजिक बदलाव की प्रक्रिया का एक हिस्सा होना चाहिए।
गरीबी ने मुझे मार्क्‍सवाद की तरफ भेजा। आम आदमी की बात ने हमेशा से ही मुझे अपनी ओर आकषिर्त किया। मुझे लगा कि मार्क्‍सवाद ही दुनिया में जरूरी बदलाव ला सकता है। वह हमें जीने की राह सिखाता है। मैं अविवाहित हूं और शादी में मेरी कोई आस्था भी नहीं है।
मैंने अभी तक बहुत अच्छी जिंदगी बिताई है। आजादी के बाद देश में गरीबों की हालत और खराब होती गई। बाजार लगातार बढ़ता जा रहा है बेचारी गरीब जनता की कोई पूछ-परख नहीं है। आज के समय में बन रही फिल्मों को लेकर मैं बहुत निराश हूं। फिल्में आज किसके लिए बन रही हैं समझ में नहीं आता है।

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