रंगमंच तथा विभिन्न कला माध्यमों पर केंद्रित सांस्कृतिक दल "दस्तक" की ब्लॉग पत्रिका.

बुधवार, 25 जनवरी 2012

इप्टा के भिलाई अधिवेशन की रिपोर्ट

आलेख इप्टानामा ब्लॉग से साभार.

विगत दिनों भिलाई में आयोजित भारतीय जन नाट्य संघ (इप्टा) के तीन दिवसीय राष्ट्रीय अधिवेशन में मशहूर अभिनेता ए. के. हंगल को पुनः संगठन के राष्ट्रीय अध्यक्ष के रूप में चुना गया। सम्मेलन के समापन से पूर्व एक घोषणा पत्र भी जारी किया गया, जिसमें जन-संस्कृति को साम्राज्यवादी खेमों द्वारा उपभोक्ता संस्कृति के हमलों से बचाने, बाजारू संस्कृति से प्रभावित फिल्म व मीडिया में परिवर्तनकारी हस्तक्षेप के साथ एक प्रभावी वैकल्पिक मीडिया तैयार करने तथा सभी क्षेत्रों व समुदायों के पारंपरिक कलारूपों की खोज, परीक्षण, संरक्षण एवं संवर्द्धन के साथ इन्हें नये संदर्भो में विकसित करने के पुरजोर प्रयासों का संकल्प लिया गया।

श्री ए. के. हंगल की उम्र व उनके स्वास्थ्य को ध्यान में रंखते हुए वरिष्ठ रंगकर्मी रणवीर सिंह कार्यकारी अध्यक्ष के रूप में काम करेंगे। उपाध्यक्ष के रूप में फिल्मकार एम. एस. सथ्यू व फिल्म अभिनेता-रंगकर्मी अंजन श्रीवास्तव को जगह दी गयी है। एक बड़ी राष्ट्रीय कार्यकारिणी में देश भर के कोई 20 राज्यों के प्रतिनिधियों को जगह दी गयी है, जिसमें महासचिव के पद की कमान एक बार फिर आगरा के वरिष्ठ रंगकर्मी जितेन्द्र रघुवंशी को सौंपी गयी। इस बेहद सफल आयोजन में जम्मू कश्मीर से लेकर केरल तक व राजस्थान से लेकर आसाम तक के प्रतिनिधियों -कलाकारों ने हिस्सा लिया।



आयोजन का उद्घाटन करते हुए दक्षिण भारत के प्रसिद्ध नाट्य निर्देशक श्री प्रसन्ना ने कहा कि नाटक चूँकि खेलने और खेलते-खेलते चीजों को बदलने का ‘प्रोसेस’ है, -प्रोडक्ट नहीं - इसलिए बाजार के हमलों व अपसंस्कृति से लड़ने के लिए एक जबर्रदस्त हथियार है। उन्होंने कहा कि साठ व सत्तर के दशक में हम क्रांति के नाटक खेलते थे लेकिन आज हमारे समाज पर बाजार कुछ इस तरह काबिज हो गया है कि अब नाटक करना भी क्रांति हो गया है। उन्होंने कहा कि यदि थियेटर करना छोटा काम है तो हम इसे छोटा ही रखना चाहते हैं। ब्रेख्त के हवाले से उन्होंने कहा कि चीजें जितनी छोटी होती हैं उनका नुकसान भी उतना ही कम होता है और सामूहिक रूप से अंततः वही क्रांति की जनक बनती है। इप्टा के उपाध्यक्ष रणवीर सिंह ने समय की चुनौतियों के चरित्र और गम्भीरता को रेखांकित करते हुए कहा कि आज हमारा दुश्मन हमारे भीतर है, उसे पहचानना एक मुश्किल काम है। वह प्रतिबद्धता मांगता है। आयोजन समिति के अध्यक्ष सुभाष मिश्रा ने स्वागत वक्तव्य में कहा कि इस सम्मेलन की उपयोगिता अपने समय के संकट को पहचानने और तकनीक, बाजार और पूँजी के हमले के खिलाफ़ लड़ाई की दिशा तय करने में हैं।

अस्वथता के कारण ‘इप्टा’ के राष्ट्रीय अध्यक्ष ए. के. हंगल सम्मेलन में शामिल नहीं हो सके पर अपने वीडियो संदेश के माध्यम से उन्होंने कहा कि हमें हिम्मत नहीं हारनी है, काम करते रहना है और बढ़ते रहना है, लेकिन खराब प्ले नहीं करना है, खराब गाने नहीं गाना है। लगातार नई चीजों को, नए लोगों को लाना है। उद्घाटन के अवसर पर संगठन के महासचिव जितेन्द्र रघुवंशी ने इप्टा के सक्रिय सदस्य व संगीत निर्देशक कुलदीप सिंह को, जिन्होंने फिल्म ‘साथ-साथ’ में जगजीत सिंह के लिये कंपोजिंग की थी, संगीत-नाटक अकादमी सम्मान के लिये बधाई दी। गौरतलब है कि सुविख्यात शास्त्रीय गायक पडित जसराज, अभिनेता श्रीराम लागू व नृत्यांगना यामिनी कृष्णमूर्ति के साथ थियेटर संगीत के लिये इप्टा के कुलदीप सिंह को यह सम्मान दिया गया है।

आयोजन के पहले दिन का एक बड़ा आकर्षण लौहनगरी भिलाई में एक विशाल व भव्य सांस्कृतिक रैली थी जिसमें देश के विभिन्न हिस्से से आये कलाकारों ने अपनी परंपरागत वेशभूषा में अपने इलाके की लोककलाओं का प्रदर्शन किया। शाम को मुबंई इप्टा द्वारा नाटक ‘कशमकश’ के एक अंश का मंचन किया गया, जिसमें अंजन श्रीवास्तव ने मुख्य भूमिका की थी। इससे पूर्व सम्मेलन की स्मारिका के विमोचन के साथ विभिन्न जनगायकों के जनगीतों की सीडी का लोकार्पण भी किया गया। स्मारिका का विमोचन प्रख्यात कवि व उपन्यासकार विनोद कुमार शुक्ल ने किया। प्रतिनिधि सत्र में राष्ट्रीय महासचिव जितेन्द्र रघुवंशी ने लखनऊ सम्मेलन के बाद से अब तक अंतर्राष्ट्रीय एवं राष्ट्रीय राजनैतिक परिदृश्य के संदर्भ में इप्टा की गतिविधियों की समीक्षा करती हुई रिपोर्ट प्रस्तुत की।

जावेद अख़्तर ने गांधी के अंत्योदय सिद्धांत को आधार बनाते हुए कहा कि यदि हमारे नाटक, हमारे गीत बच्चों के उदास-मुरझाए चेहरे पर हँसी न बिखेर सके, तो वे किस काम के हैं? ताकत के सामने की गिड़गिड़ाहट को निर्भीक स्वर न दे पाने वाले नाटक और गीत हमें नहीं चाहिए। हमें बच्चों को केन्द्र में रखकर अपने काम करने होंगे। एक तरफ जहाँ नए मंचीय प्रयोग की आवश्यकता है, वहीं सिनेमा के भी पुनराविष्कार की भी ज़रूरत है। हमें अनेकानेक प्रयोगों की तरफ एक साथ बढ़ना होगा। किसी के प्रति छुआछूत नहीं, लेकिन किसी की धौंस भी यहाँ नहीं चलेगी। न नाटक की प्रस्तुति के एक ढांचे की धौंस, न ही उसमें एक विचार की धौंस। अभिव्यक्ति में निर्भीक होना, उसके खतरे उठाना हमारी सबसे बड़ी प्राथमिकता है।

आयोजन के दूसरे दिन जहां प्रतिनिधि सत्र में देशभर से आये कलाकार-प्रतिनिधियों ने अपने विचार रखे वहीं एक साथ अलग-अलग सभागारों में विविध विषयों पर राष्ट्रीय संगोष्ठियों का आयोजन किया गया। हबीब तनवीर कला मंच में ‘रंगमंच’ पर संगोष्ठी रखी गयी थी, जिसमें श्री प्रसन्ना, श्री रणवीर सिंह, राकेश जी व जावेद अख्तर आदि ने चर्चा की। गोष्ठी में नुक्कड़ नाटकों पर खासी चर्चा हुई तथा इसे सामाजिक बदलाव के औजार के रूप में रेखांकित किया गया। डॉ. कमला प्रसाद सभागार में ‘मीडिया व फिल्म’ पर संगोष्ठी हुई, जिसमें वक्ता के रूप में जितेन्द्र रघुवंशी, के. प्रताप रेड्डी, सुधीर (झारखंड), अजय आठले (रायगढ़), विनीत तिवारी, समिक बंदोपाध्याय आदि शामिल थे। संगोष्ठी में यह बात सामने निकल कर आयी कि देश की समकालीन राजनीति के साथ मीडिया ने भी अपनी विश्वसनीयता खोयी है। ऐसे समय में क्या इप्टा जैसा संगठन समानांतर मीडिया का गठन कर सकता है, जो लोगों के संघर्ष के साथ खड़ा हो सके।

रेखा जैन सभागार में ‘बाल एवं तरूण रंगमंच’’ पर केंद्रित चर्चा हुई। चर्चा की शुरूआत करते हुए मध्यप्रदेश की अर्चना श्रीवास्तव ने बच्चों को रंगमंच के साथ बांधे रखने में बाजारवाद एवं बौद्धिक, सांस्कृतिक घुसपैठ को बाधक बताया। बालरंगमंडल भोपाल के श्री प्रेम गुप्ता ने अपने अनुभव के आधार पर बताया कि बच्चे जितने उद्दण्ड होते हैं, उतने ही अच्छे एक्टर होते हैं। बच्चों के मनोविज्ञान को समझना बहुत जरूरी है तथा बच्चों से ही स्क्रिप्ट तैयार करवा कर नाटक खेलन चाहिये। भारतेंदु नाट्य अकादमी, लखनऊ के जुगलकिशोर ने वर्तमान परिस्थितियों के बच्चों पर पड़ते प्रभाव को रेखांकित करते हुए बच्चों के क्लब खोले जाने की आवश्यकता पर बल दिया। तमिलनाडु इप्टा के श्री अधिरमन ने बच्चों की जीवंतता, सहजता और सृजनात्मकता की चर्चा की। बिहार इप्टा के महासचिव तनवीर अख्तर ने शहरी मानसिकता से उबरने का आह्वान किया तथा इप्टा द्वारा बच्चों एवं किशारों के रंगमंच के लिये पृथक पाठ्यक्रम तैयार करने की आवश्यकता पर जोर दिया।

भूपेन हजारिका व विंध्यवासिनी देवी सभागार में नृत्य व संगीत पर संगोष्ठी आयोजित की गयी। वक्ताओं की राय थी कि आज के संदर्भ में शास्त्रीय नृत्य के ग्रामर को नये सिरे से गढ़ने की जरूरत है। कुछ जगहों के लोक-नृत्य काफी लोकप्रिय हो रहे हैं पर हमें अन्य स्थानों के लुप्त होते हुए लोक-नृत्यों को प्रोत्साहित करना चाहिये। जन-संगीत व नृत्य को और सशक्त बनाने के लिये कार्यशालाओं का व्यापक आयोजन किया जाना चाहिये तथा स्कूली पाठ्यक्रम में संगीत व नृत्य को शामिल करने के लिये पैरवी करनी चाहिये।

‘सर्जनात्मक लेखन’ पर केन्द्रित गोष्ठी मलयालम के वरिष्ठ कवि पी.गोपालकृष्णन की अध्यक्षता में संपन्न हुई। आरंभिक वक्तव्य में कथाकार महेश कटारे (म.प्र) ने कहा कि 1991 के बाद आर्थिक उदारीकरण के दौर के सामजिक बदलावों की स्पष्ट समझ से लैस होकर रचना करना आज ज़रूरी हो गया है। लेकिन परंपरा की सही समझ के साथ हमें आगे बढ़ना होगा। म.प्र. के विवेक ने सोशल मीडिया, विशेषतः फेसबुक में कविता के बढ़ते प्रचलन और उसकी आशंसा-पद्धति की आलोचना करते हुए उसे कविता के प्रति निहायत कामचलाऊ रवैया करार दिया। उन्होंने कहा कि इस तरह सोशल मीडिया में कविता भी उपभोग की चीज़ बन गयी है। वरिष्ठ रंगकर्मी राकेश (उ.प्र.) ने कहा कि लेखक अपने समय का सजग प्रेक्षक होता है। उन्होंने देश की समृद्ध लोक-सम्पदा का उपयोग कर व्यापक जन से जुड़ने का आह्वान किया।

इसी दिन शरीफ अहमद मुक्ताकाशी मंच में संगीत निर्देशक कुलदीप सिंह ने अपनी मण्डली के साथ दुष्यंत कुमार, कैफी आजमी, नजीर अकबराबादी व निदा फाजली की रचनाओं की प्रस्तुति की। श्री कुलदीप ने बताया की जब दुष्यंत कुमार ने आपातकाल के दौरान ‘‘हो गयी है पीर पर्वत-सी’’ ग़ज़ल कही थी, ठीक उसी दौर में कैफी आज़मी ने ‘‘लाई फिर इक लरजिशे मस्ताना तेरे शहर में कही थी।’’ लिहाजा इन दोनों रचनाओं को प्रयोग के तौर पर एक ही धुन में पिरोया गया था, जिसे श्रोताओं ने काफी पसंद किया। शाम को इसी मंच से डोंगरगढ़ इप्टा के मनोज गुप्ता ने अपने जनगीतों से लोगों को इंकलाबी नारे लगाने के लिये बाध्य कर दिया। उड़ीसा के कलाकारों ने यहीं पर संबलपुरी लोकनृत्यों का प्रदर्शन किया। दूसरी ओर हबीब तनवीर रंगमंच पर इंदौर इप्टा के कलाकारों का शेडो प्ले "जब हम चिड़िया की बात करते हैं" दर्शकों को खूब पसंद आया। इससे पहले १९४० के दशक के किसान और मजदूर आन्दोलनों के हिस्सेदार रहे बंगाली मूल के देश के विख्यात चित्रकार चित्तप्रसाद के चित्रों पर आधारित अशोक भौमिक के स्लाइड शो की भी खूब सराहना हुई।
आखिरी दिन नाटकों, नुक्कड़ नाटकों व लोक-नृत्यों का रहा। पटना ‘इप्टा’ की प्रस्तुति ‘वैदिकी हिंसा हिंसा न भवति’ ने दर्शकों की खूब वाहवाही बटोरी। दूसरी ओर कला-मंदिर में असम के बिहू नृत्य से लेकर राजस्थान के कालबेलिया व पंजाब के गिद्धा व भांगड़ा नृत्य ने दर्शकों को अपने साथ झूमने -नाचने के लिये विवश कर दिया। पूरे नगर में अलग-अलग स्थानों पर जेएनयू दिल्ली से लेकर झारखंड तक के कलाकार नुक्कड़ नाटकों का प्रदर्शन करते रहे। ‘‘अंधेर नगरी, चौपट राजा’’ पर आधारित नुक्कड़ नाटक ‘‘डार्क सिटी, स्टूपिड किंग’’ का लोगों ने खूब आनंद उठाया। भिलाई नगर की सांस्कृतिक बहुलता का लाभ उठाकर एक साथ अलग-अलग स्थानों पर तेलुगु, बांग्ला, कन्नड, मलयालम व मराठी नाटकों का भी मंचन किया गया।

मुख्य समारोह स्थल पर विभिन्न प्रदर्शनियां का आयोजन भी महत्वपूर्ण था जिसमें छायाकार अनिल कामड़े के छायाचित्रों की प्रदर्शनी, श्रवण चोपकर के काष्ठ शिल्प, मुकेश बिजौले की पेंटिंग, पंकज दीक्षित के कविता पोस्टर व रिखी क्षत्रिय के लोक-वाद्यों की प्रदर्शनी उल्लेखनीय रही। भिलाई के ही श्रवण कुमार ने आयोजन स्थल को ललित कला, लोक कला व पुरातत्व कला के संगम से विशिष्ट सज्जा प्रदान की।

कुल मिलाकर पूरे आयोजन में नाग-नागिन, भूत-प्रेत व राखी सावंत-राहुल महाजन की खबर लेने वाले इलेक्ट्रानिक मीडिया को छोड़कर समाज के सभी तबकों ने किसी न किसी रूप में अपनी भागीदारी सुनिश्चित की और अपने समय की चुनौतियों से बाखबर करते इस आयोजन ने यह स्पष्ट छाप छोड़ी की राज्य व पूंजी प्रायोजित छद्म-संस्कृति से जन-संस्कृति का दर्जा बहुत ऊँचे आसन पर है। 
इप्टानामा से साभार.

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