रंगमंच तथा विभिन्न कला माध्यमों पर केंद्रित सांस्कृतिक दल "दस्तक" की ब्लॉग पत्रिका.

मंगलवार, 6 मार्च 2012

सर्कस में जानवर बनकर जीवन यापन करना पड़ता है।


रवींद्र त्रिपाठी
गजानन माधव मुक्तिबोध की कहानी ‘समझौता’ एक प्रसिद्ध रूपक कथा है जो मनुष्य के अमानवीकरण की कथा कहती है। युवा रंगकर्मी प्रवीण कुमार गुंजन ने इसी के नाट्यरूप को निर्देशति किया है जो पिछले लंबे समय से रंगकर्म के क्षेत्र में काफी चर्चित है। जब भारत रंग महोत्सव हुआ था तब भी इसका मंचन हुआ था और आजकल दिल्ली में चल रहे महिंद्रा फेस्टिवल में भी पिछले दिनों इसे खेला गया। इसमें मानवेंद्र त्रिपाठी ने एकल अभिनय किया है और पूरी कथा एक चरित्र के माध्यम से दिखाई गई है। लेकिन सिर्फ कथा महत्वपूर्ण नहीं है। नाटक ताकत के उस खेल को सामने लाता है जिसमें मनुष्य सिर्फ सत्ता संपन्न लोगों के हाथो में सिर्फ कठपुतली बनकर रह जाता है। मुक्तिबोध प्रगतिशीलता और मार्क्‍सवाद के प्रति आस्था रखनेवाले लेखकों में थे लेकिन उनकी रचनाओं में अस्तित्वगत सवाल भी काफी उभर कर सामने आए हैं। ‘समझौता’ में भी इसे देखा जा सकता है। क्या मनुष्य जिसे समझौता कहता है वह उसकी नियित बन गई है, यह प्रश्न नाटक देखने के दौरान और उसके बाद भी उभरता है। मनुष्य जब विवश और लाचार होता है तो क्या होता है! क्या वह अपनी जिंदगी जी पाता है!

क्या इसे वह खुद चुनता है या दूसरों के चुनाव के मुताबिक जीता है! समझौता में एक आदमी इतना लाचार है कि उसे सर्कस में जानवर बनकर जीवन यापन करना पड़ता है। एक दिन उसे कहा जाता है कि उसके सामने एक शेर होगा जिससे उसे लड़ना है। जब उसके सामने शेर आता तो शुरू में उसकी हालात बहुत खराब हो जाती है। आखिर जानवर की खाल में एक आदमी सचमुच के शेर से कैसे लड़े लेकिन लड़ने के दौरान मालूम होता है कि सामने जो शेर दीख रहा है वह भी असली शेर नहीं बल्कि शेर की खाल में लिपटा आदमी है। अब दोनों को लड़ना है और दूसरे पर छपटना है। एकदू सरे को खत्म करने के लिए ललकारना है। लड़ना भी है और लड़ने का नाटक भी करना है। इस तरह इस रूपक के माध्यम से पता चलता है कि आदमी अपनी जिंदगी में क्या चुने और क्या छोड़े, इसके लिए भी वह स्वाधीन नहीं है। दूसरे, यानी सत्तासीन ताकतें इस बात का फैसला करती हैं कि उसे क्या करना है। प्रवीण कुमार गुंजन इस नाटक के जरिए व्यवस्था और मनुष्य के रिश्ते के तनाव को भी रेखांकित करते हैं डिजाइन के स्तर पर नाटक बहुत सरल है। सिर्फ यह दिखाया गया है कि एक स्टेज पर एक रिंग बना हुआ है और एक व्यक्ति बहुत देर तक एक ही मुद्रा में खड़ा है। नाटक शुरू होने के पहले ही एक माहौल बन जाता है। प्रस्तुति के दौरान सामूहिक गायन और हिंदी कविता की कुछ अन्य पंक्तियां भी आती हैं बेरोजगारी और गरीबी के अन्य प्रसंग भी प्रस्तुति के दौरान उभरते हैं। संगीत और रंगों के इस्तेमाल से नाटक कई स्तरों पर अर्थ का निर्माण करता है। कई तरह के लोकतत्वों का इस्तेमाल भी इसमें किया गया है। प्रवीण कुमार गुंजन ने कुछ साल पहले जब राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय की डिप्लोमा प्रस्तुति के दौरान ‘अंधायुग’ किया था तब भी उन्होंने एक चर्चित नाट्यालेख को समकालीन अर्थ संदर्भ दिए थे। समझौता में भी कई समकालीन अर्थ संदर्भ हैं जो हमारे आसपास की घटनाओं को नए ढंग से आलोकित करते हैं। एकल अभिनय के खयाल से मानवेंद्र त्रिपाठी ने बहुत भावप्रवण काम किया है। उनके अभियन और पूरी प्रस्तुति में भी कई तरह की नाट्य युक्तियां हैं। महेंद्रा थिएटर फेस्टिवल एक ऐसा समारोह है जो रंग-प्रस्तुतियों के अलग अलग केटेगरी, अभिनय, निर्देशन, कोरियोग्राफी, प्रकाश योजना आदि के लिए पुरस्कार भी देता है। इस बार कौन से कलाकार और निर्देशक पुरस्कृत होते हैं, इसकी प्रतीक्षा है।

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