रंगमंच तथा विभिन्न कला माध्यमों पर केंद्रित सांस्कृतिक दल "दस्तक" की ब्लॉग पत्रिका.

बुधवार, 21 मार्च 2012

कथा की उपकथा : पुंज प्रकाश



( पटना के रंगकर्मी प्रवीन कुमार को समर्पित यह कविता तब लिखी गई गई थी जब प्रवीन की हत्या हम सब के लिए एक सदमें की तरह थी | )

जिसकी हत्या
आज तडके कर दी गई
उसकी हत्या की
जायज़ वजह की तलाशी
शुरू होगी
अब |
वैसे,
हत्या के लिए कोई भी वजह
क्या जायज़ हो सकती है ?
हाँ , हो भी सकती है |
अगर
वो इंसान था
तो शैतान की नज़र में ,
और अगर
वो शैतान था
तो इंसानों की नज़र में |
और अगर
वो दोनों था
तो दोनों ने हीं खोए
अपने दोस्त
दोनों ने खोए
अपने दुश्मन |
दोनों दुखी |
दोनों खुश |
चलो फूट-फूटकर रोएँ
रो- रोकर फूटें |
कोई हंस भी तो रहा है ..
कौन ?
ये तो होना ही था
एक न एक दिन – कोई फुसफुसाया |
चलो, यहाँ ये तो रोज हीं होता है,
झोपडपट्टी ने नाक में दम कर रखा है |
वैसे अच्छा आदमी था – बेचारा |
अच्छे आदमी के साथ बेचारा तो लगता ही है ना ?
लाश को हाथ मत लगाना
जुलुस निकलेगा
सीधे हुक्मरान के पास |
वो बोला |
लाश बोले तो बोले क्या ?
क्लिक – क्लिक
रोते – बिलखते परिजनों का
फोटो छापेगा कल के अखबार में
बेहतरीन कैप्शन के साथ |
लोकल टेलीविजन
हाजमोला के विज्ञापन के साथ
सीधा प्रसारण में व्यस्त |
सायरन
पुलिस
भीड़ गायब  |
कौन पड़े बेकार के लफड़े में |
खून से लथपथ
लाश का फटा सिर
एक बच्चा
बड़े गौर से देखता
हा हा इसे ही कहतें हैं भेजा बाहर होना ?
खैर, क्रिकेट की पुकार
दौड़ा सीधा मैदान की तरफ |
रिक्शा
लाउडस्पीकर
उभरता हुआ नेता
उसके कई साये
जोशीला भाषण
ये, ये है ....
वो, वो  है ....
वो, वो भी है |
देश वो है |
व्यवस्था वो है |
हम ये हैं |
वो ये है |
सब वो हैं क्या ?
कौन क्या है ?
सब घालमेल है |
मुस्कुराता हुआ
किसी कोने में वो भी खड़ा है
अपनी सफलता पर
वो ... हत्यारा
है चुपचाप |
सारी – जाति – प्रजाति
चुप |
दुबली – पतली
सुखी सी लड़की
एक लड़की
कालेज नहीं जायेगी आज
प्रेम
इतिहास की किताबों में नहीं पढेगी
अब कौन बनाएगा ताज
शाहजहाँ तो हो गया
भेजा बाहर  |
मौन – कुछ दिन का – मौन |
साइबर कैफे के एक दडवे में
जिसने छुआ था
कभी छाती
कभी होंठ
कभी .....
मौन ... कुछ दिन का मौन |
एक प्रेम कहानी की और मौत |
मौन ... कुछ दिन का मौन |
इतना शोर |
एक पागल
एक पुजारी
पूजा की थाली
घंटी
आरती
दक्षिणा
आठ आना , चार आना , रुपया , सावा रुपया |
सिगरेट
बुद्धिजीवी
जिसकी बुद्धि
तेज़, और तेज़ |
आज तो लंबी कविता बनती है
कम से कम एक तो बनती ही है आज
तेज़ , चाकू की धार की तरह – तेज़ |
हटो,
निकल रही है – जुलुस |
नारे ???????
जुलुस किस किस दिशा में मुड़ेगी  
सब तय होगा चलते चलते |
चलो, चलते रहो |
सब चलो , सब |
यहाँ कोई बेदभाव नहीं |
वो भी चला जिसने इसे मारा है |
लोग चलते रहे
चलते रहे
गांव , कसबे, शहर
पहाड , झरने, समुन्दर
राज्य, देश, परदेश
चलते रहो
हांफना माना हैं
थकना माना है
चलो ... चलते रहो |
और लाश
चलने के धुन में क्या पता वो कहाँ रह गया
बस सब खुद को चला रहे थे
हंगामा
हरामी की औलाद
मुद्दा ही गायब ??
खोजो
क्या ??? लाश ???
नहीं ...मुद्दा |
भागो
तेज़, और तेज़ |
पीं....पीं ....
चिल्ल .... पों .....
माँ .... बहन .....भो.....चुप....
पैरों की आवाज़ें
तेज़ ......
गाड़ियों की आवाज़ें
तेज़........
नारों की आवाज़ें
सबसे तेज़....
पर मुद्दा ?
ये रहा
अरे नहीं
वो
तुम
मैं
नहीं ये भी नहीं
कुछ तगड़ा |
पैर, गाड़ी, गलियां, नारे
सब तेज़
और मुद्दा
अपने हत्यारे के कंधें पर सवार
सबसे तेज़ |

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