रंगमंच तथा विभिन्न कला माध्यमों पर केंद्रित सांस्कृतिक दल "दस्तक" की ब्लॉग पत्रिका.

मंगलवार, 24 अप्रैल 2012

मनुष्यता के संहार का उत्सव और आधा चांद -- राजेश चन्द्र

प्रस्तुति का एक दृश्य 
वैश्वीकरण बाजार के सार्वभौमत्व के दर्शन पर आधारित है। यह हर चीज़ को यहां तक कि सांस्कृतिक रचनाओं को भी विकाऊ माल में बदल देता है। यह मुख्यतः नई तकनीक जिसे लोकप्रिय भाषा में आईटी कहा जा रहा है, से पैदा हो रहा है। यह सूचना तकनीक वित्तीय लेन-देन में तीव्रता लाने के कारण सारी दुनिया को बाजार से जोड़ देती है। अब लक्ष्य मानव मुक्ति के लिए जनता के बीच एकजुटता नहीं बल्कि उपभोक्ताओं के रूप में व्यक्तियों के बीच गलाकाट प्रतियोगिता ही आज के समाज का नियम है। परस्पर सहयोग पर नहीं बल्कि अंतहीन प्रतियोगिता पर टिका होगा।वैश्वीकरण की विचाराधारा को आज जनता की चेतना में वैश्वीकरण से जुड़े सांस्कृतिक हमलों के साथ निरंतर ढाला जा रहा है। केबल टीवी से जुड़ा हमारे देश के मध्यम वर्ग का प्रत्येक घर बुर्जुआ मूल्यों की पाठशाला बन गया है और विज्ञापन तथा प्रचार तबाही की उपभोक्ता संस्कृति को बढ़ावा दे रहे हैं। कहा जा रहा है कि जो लोग वैश्वीकरण की यात्रा में शामिल नहीं होंगे वे तकनीकी, आर्थिक और सांस्कृतिक लिहाज से पिछड़ जाएंगे। इसके अनुसार वैश्वीकरण की चालिका शक्ति सर्वशक्तिमान सूचना तकनीक है और भविष्य उन्हीं का है जो इस तकनीक में पारंगत हो जाएंगे। यह वस्तुतः पूंजीवादी समाज व्यवस्था के विकास का एक चरण है जिसका प्रभावी उपकरण है विज्ञापन। इसमें विचारों, अभिरुचियों, इच्छाओं और मूल्यों की सांस्कृतिक विचाराधरा के रूप में अभिव्यक्ति होती है। वह भविष्य के सपनों को जगाता है और बार-बार पुनरावृत्ति के द्वारा उन्हें सामाजिक विश्वास में बदल देता है। इस तरह जो संरचना तैयार होती है वह पाशविकता और अमानवीयता के मूल्यों का सृजन करती है।विज्ञापन में व्यक्त अर्थहीनता से असहनीय और हतोत्साहित करने वाला परिवेश निर्मित होता है जिसमें व्यक्ति के बजाए वस्तु को सर्वशक्तिमान करने वाला परिवेश निर्मित होता है और मनुष्य को वस्तुओं के आगे समर्पण करने के लिए तैयार किया जाता है। यहां जिस सौंदर्य या सुंदरता की अभिव्यक्ति होती है वह वस्तुतः यथर्थ से पलायन है। इसके तृप्तिदायक चित्र व्यक्ति को आभिजात्य समाज की आभासी आनंदावस्था में ले जाते हैं। विज्ञापन में दर्शाया जाने वाला आभिजात्यवाद पूरी तरह खोखला है जिसकी अंतर्वस्तु मर चुकी है। विज्ञापन का समाज आभिजात्यों का समाज है जिसमें भावुकता और मिथ्या भावमयता का बोलबाला है और यह रूप पूंजीवादी व्यवस्था के अमानुषीकरण की बृहत्तर प्रक्रिया का ही अंग है।
विगत 28 और 29 मार्च को श्रीराम सेंटर के द्वितीय वर्ष के छात्रों द्वारा प्रस्तुत किए गए नाटक ‘आधा चांद’ में बाजारीकरण और वैश्वीकरण की प्रक्रिया में यथार्थ को अयथार्थ में और मनुष्य को अमानुष में बदल देने की अमानवीयता को उजागर करने का श्रमसाध्य प्रयास किया गया है। नाटक बाजार-चेतना से जुड़े व्यक्तिवाद पर करारा प्रहार करता है, जिसे सिर्फ प्रभाव की चिंता है और वह दुनिया को बदलना नहीं चाहता। प्रख्यात नाटककार, निर्देशक और सामाजिक कार्यकर्ता त्रिपुरारी शर्मा द्वारा लिखित निर्देशित यह नया नाटक कुशलता के साथ चित्रण करता है कि पूंजीवादी समाज में केवल वस्तुओं का मूल्य होता है और मनुष्य भी वस्तुओं के बीच में एक वस्तु बन जाता है। इतना ही नहीं वह उन वस्तुओं में भी सबसे ज्यादा नपुंसक, सबसे ज्यादा घृणास्पद वस्तु बन जाता है और वस्तु का विज्ञापन उसे तर्क-बुद्धि के बजाए तर्कातीत दिशा की ओर ले जाता है। अंततः वह एक ऐसे समाज का प्रवक्ता बन जाता है जिसमें सफलता ही सब कुछ है मनुष्य कुछ भी नहीं। इस तरह एक ऐसे व्यक्ति की मनोसंरचना तैयार होती है जो समाज में किसी का भी नहीं होता और न ही उसकी कोई विशिष्ट पहचान होती है। अपनी परिणति में वह सामाजिक उत्तरदायित्वों और विचारधाराओं से पलायन कर जाता है। खुद को वह एक ऐसे काल्पनिक पर्दें में कैद कर लेता है जिसके बाहर आसपास की चीजों और व्यक्तियों की पहचान धुंधली हो जाती है। वस्तु को सामाजिक हैसियत से जोड़ कर पेश करने की मानसिकता उसे उस विचाराधारा का एक औजार बना देती है जिसका मूलमंत्र है भोग करो, खूब भोग करो और मर जाओ।नाटक की कथा के केंद्र में कॉल सेंटर में कार्यरत युवाओं का एक समूह है जो अपनी आकांक्षाओं, सपनों और अस्तित्व के लिए जूझता हुआ उस अनिवार्य विडंबना का शिकार बन जाता है जिसे बाजार और वैश्वीकरण की शक्तियों ने उसके लिए निर्धारित कर रखी है। वास्तविक दुनिया और वर्चुअल स्पेस के बीच की असंगति, विरोधाभास और तर्कहीनता में जीते हुए इन युवाओं की सारी संभावनाएं कारपोरेट्स की अनियंत्रित और अमानुषिक प्रतिस्पद्र्धा सोख लेती है और वे रीढ़विहीन होकर खुद को इस अंतहीन दलदल में धंसता हुआ चुपचाप देखते रह जाते हैं। दिन के दस घंटे अंग्रेजी बोलते,  फास्ट फूड खाते, एयरकंडीशन का मज़ा लेते और एक सुरक्षित लगने वाली दुनियां में जीते हुए वे झूठ बोलने के अभ्यस्त हो जाते हैं और यह झूठ उनकी निजी जिंदगियों में शामिल हो जाता है। वास्तविक जीवन का नाटक और आभासी स्वर्ग एक सम्मोहन उन्हें एक ऐसी हास्यापद स्थिति में ला देता है जहां वे अपने ही संहार का उत्सव मनाने के लिए अभिशप्त होते हैं।निर्देशक त्रिपुरारी शर्मा ने प्रस्तुति की शैली विसंगतिवादी रखी है जिससे संवादों की अर्थध्वनियों का सूक्ष्म और प्रभावोत्पादक निरूपण संभव हुआ है। त्रिपुरारी शर्मा लंबे समय से हिंदी रंगमंच में सक्रिय तो हैं ही एक सजग और संवेदनशील नाटककार तथा निर्देशक के तौर पर भी उनकी काफी प्रतिष्ठा है। अपने नाटकों में अक्सर वे ऐसे चरित्र और स्थितियां लेकर आती रही हैं जिन्हें दर्शक पहचानते भी हैं और जिनके बाहरी और भीतरी संघर्ष को समझ कर उससे अपने आप को जोड़ते भी रहे हैं। उनके नाटक सचमुच के जीवित इंसानों की जिंदगी की सच्ची और विश्वसनीय तस्वीर पेश करते हैं पर हाल के दिनों में उनके नाटकों का रूप जटिल और दुरूह होता गया है जिसके कारण आम दर्शक नाटक से जुड़ नहीं पाते। इस क्रम में उनके दो नाटकों बीच शहर और आधा चांद का नाम लिया जा सकता है जिनमें एक विशिष्ट प्रकार की नाट्य-युक्तियों और शिल्प पद्धतियों का अत्यधिक प्रयोग सामने आया है और इस कारण वे विशिष्ट प्रकार के दर्शकों को ही आर्कषित करने में कामयाब हुए हैं। यह मान लेना जल्दबाजी होगी कि इसके पीछे कलात्मकता, उद्देश्यपरकता अथवा व्यावसायिकता का कोई दबाव काम कर रहा है। निश्चित रूप से वे किसी नई रंगभाषा के अन्वेषण में जुटी हो सकती है, पर इस प्रक्रिया में दर्शकों की उपेक्षा के प्रश्न पर भी उन्हें गंभीरता से सोचना होगा।


राजेश चन्द्र 
राजेश चन्द्र रंगकर्मी, नाटककार, अभिनेता, निर्देशक, अनुवादक एवं पत्रकार | पटना रंगमंच से लंबे समय तक जुडाव | विगत दो दशकों से रंग-आन्दोलनों, कविता, संपादन और पत्रकारिता में सक्रिय | हिंदी की कई प्रतिष्ठित पत्र-पत्रिकाओं में कविताएँ, आलेख तथा समीक्षाएँ प्रकाशित | वर्तमान में दिल्ली में निवास | दैनिक समाचार पत्र "दैनिक भास्कर" के दिल्ली संस्करण के लिए रंगमंच विषय पर नियमित लेखन | उनसे rajchandr@gmail.com पर संपर्क किया जा सकता है | आलेख दैनिक भास्कर के दिल्ली संस्करण में प्रकाशित |

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