कुछ विरोधाभास ऐसे हैं, जिन्हें नजरअंदाज नहीं किया जा सकता।
मसलन, देश में इस साल इतनी फसल हुई है कि भारतीय खाद्य निगम
(एफसीआई) के मुताबिक, उसके पास भंडारण की क्षमता नहीं है।
जून तक एफसीआई के पास 750.17 लाख टन अनाज होगा। सिर्फ पंजाब,
हरियाणा और मध्य प्रदेश के गोदामों में 477.9 लाख
टन अनाज होगा, जो पिछले साल से 69 लाख
टन ज्यादा है।
इसके बरक्स
यह तथ्य देखें कि भारत में लगभग 23 करोड़ लोग ऐसे हैं, जिन्हें भरपेट भोजन नहीं मिलता।
लेकिन खाद्य मंत्री के वी थॉमस ने राज्यसभा में बताया कि वित्तीय वर्ष 2011-12
के दौरान पंजाब में 76,762 टन और हरियाणा में 10,456
टन गेहूं सड़ गया। अगर ऐसा कुछ इंतजाम हो पाता कि यह गेहूं न सड़ता
और भूखे लोगों तक पहुंच जाता, तो हमारे देश को इस कलंक से
कुछ हद तक तो निजात मिल जाती कि दुनिया की दूसरे नंबर की तेजी से तरक्की करती
अर्थव्यवस्था में करोड़ों लोग भूखे पेट सोते हैं।
समस्या यह है
कि साल-दर-साल अनाज गोदामों में सड़ता रहता है,
लेकिन अभी तक इसके भंडारण और वितरण के लिए कोई कायदे का तंत्र नहीं
बन पाया है। इस साल भी जून में जब बारिश शुरू होगी, तब लगभग 231.82
लाख टन गेहूं बिना कायदे के भंडारण और सुरक्षा के पड़ा रहेगा और
इसका बड़ा हिस्सा किसी के खाने के काबिल नहीं रहेगा।
एक बुनियादी
वजह यह है कि केंद्र सरकार या जो अनाज उपजाने वाले राज्य हैं, उनकी सरकारों की दिलचस्पी अनाज की
खरीद में होती है, क्योंकि वे किसान हितैषी दिखना चाहती हैं।
लेकिन एक बार खरीद हो जाने के बाद अनाज का क्या होता है, इसमें
उनकी खास दिलचस्पी नहीं होती। राज्य सरकारें केंद्र को दोष देती हैं, जैसे कि पंजाब के उप-मुख्यमंत्री सुखबीर बादल ने एक बयान दिया है और
केंद्र कहता है कि राज्य सरकारों की दिलचस्पी अनाज का कोटा उठाने और उसे वितरित
करने में नहीं होती।
अनाज का
भंडारण, परिवहन और वितरण
ऐसा काम है, जिसमें आर्थिक साधनों और प्रशासनिक श्रम की
जरूरत होती है और यह श्रम करने में कम ही सरकारी संस्थाओं और लोगों की दिलचस्पी
होती है। पिछले वर्षो में छत्तीसगढ़ और आंध्र प्रदेश की सरकारों ने यह साबित किया
है कि अगर राज्य चाहे, तो सस्ता अनाज सचमुच जनता तक पहुंचाया
जा सकता है और आर्थिक या प्रशासनिक मुश्किलें बहानेबाजी से ज्यादा कुछ नहीं हैं।
ज्यादातर राज्य सरकारें यह कठिन रास्ता अपनाना नहीं चाहतीं।
भारत में
भंडारण और वितरण में गड़बड़ियां पहले भी थीं,
लेकिन यह तंत्र इतना बुरा भी नहीं था। आर्थिक उदारीकरण के बाद काफी
वक्त तक सरकार के भीतर और बाहर यह बहस चलती रही कि अनाज का भंडारण और वितरण सरकार
का काम है भी या नहीं और सार्वजनिक वितरण प्रणाली को क्यों न खत्म कर दिया जाए! जब
तक यह फैसला हुआ कि सरकार को ये सभी काम करने चाहिए, तब तक
एफसीआई और सार्वजनिक वितरण प्रणाली सरकारी उपेक्षा की वजह से बदतर हालत में पहुंच
गई थी।
कुछ नुकसान उन कुछ कायदे-कानूनों से भी हुआ, जो लाइसेंस-परमिट
राज में बने थे। इससे अनाज की उगाही, भंडारण और वितरण में
निजी भागीदारी उतनी नहीं हो पाई, जितनी जरूरी है। अब भी हालत
यह है कि सरकार ने निजी भागीदारी से गोदाम बनाने और चलाने की जो योजना बनाई है,
उसका लगभग 10 प्रतिशत भी नहीं शुरू हो पाया
है। शायद प्रस्तावित खाद्य सुरक्षा अधिनियम से स्थिति कुछ सुधरे, लेकिन बुनियादी बात यह है कि भूखों के पेट भरने को एक राष्ट्रीय
जिम्मेदारी माना जाए। अगर मजबूत इरादे हों, तो यह नामुमकिन
नहीं है।
समाचार पत्र हिंदुस्तान का सम्पादकीय 5 मई 2012 से साभार
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