दॄश्य- एक
मंच पर जोकरों का एक समूह अपने एक साथी के आने का इंतज़ार कर रहा है. साथी जोकर आगमन के साथ ही अपने आगमन में विलंब का कारण दर्शकों को बताता है. जोकरों का वह समूह शेक्सपीयर के नाटक हेमलेट के मंचन की योजना बनाते हैं और अभ्यास शुरु होता है.मंचन के दौरान नाटक की जो व्याख्या वे जोकर करते हैं वह एकदम अलग तो हैं ही जोकर होने के नाते गड़बड़ियां भी मंच पर घटित होती हैं. पूरी प्रस्तुति के दौरान अभिनेता दर्शकों पर टिप्पणी कर के प्रस्तुति को जीवंत बनाये रखते हैं.[1]
दृश्य- दो
दर्शक एक खुले मंच के इर्द गिर्द इकट्ठा हैं. वहां पर बुंदेलखंड का राई नृत्य हो रहा है. उसकी समाप्ति के बाद दर्शकों को दूसरे मंच के पास बुलाया जाता है वहां पद्मावती नौटंकी का एक दृश्य संपन्न होता है. फ़िर सभी दर्शक बहुमुख में प्रवेश कर जाते हैं. बहुमुख एक ऐसा सभागार हैं जहां दर्शक और अभिनेता लगभग एक ही धरातल पर मौजुद होते हैं वहां नाटक का मुख्य हिस्सा संपन्न होता है. एक कोने में एक पात्र दूसरे को कहानी सुना रहा है, बीच में दृश्य चल रहें हैं.[2]
दृश्य – तीन
कमानी सभागार में मंच के पीछे एक प्लेटफ़ार्म बनाया गया है जिसपे झोपड़ी का दृश्य़ निर्मित किया गया है. उसके आगे तमाशे का एक तंबु बनाया गया है. मंच के इस झोपड़ी वाले हिस्से में ‘सखाराम बाईंडर’ का दृश्य चलता है. आगे वाले हिस्से में सखाराम और अन्य नाटकों के बहाने नाटकों के सेंसर और प्रतिबंध की ऐतिहासिक पड़ताल और व्याख्या अभिनेता करते हैं. तंबु कभी कभी पर्दे में भी बदल जाता है जिस पर बीच बीच में वीडियो प्रक्षेपित किया जाता है.[3]
यह कुछ उदाहरण हाल के चर्चित नाटकों के हैं. उदाहरण और भी हो सकते हैं. ये उदाहरण संकेत है कि रंगमंच कैसे अपना स्वरूप बदल रहा है. मसलन पहले उदाहरण में आधार शेक्सपीयर का नाटक ‘हेमलेट’ है पर वह बस आधार है. प्रस्तुति इस नाटक से उड़ान भरती है और अपने मिज़ाज़ में अलग ही हो जाती है. ये एक स्थिर आलेख की निर्देशक और अभिनेता की अलग व्याख्या है. या युं कहें कि नाटक को उसके अर्थ से निकाल कर उसमें नया अर्थ भरना है. कुछ ऐसा ही प्रयोग शेक्सपीयर के ही एक अन्य नाटक ओथैलो के साथ रायस्टन एबेल ने किया था ‘ओथैलो इन ब्लैक एंड व्हाईट’ के नाम से.
अन्य दोनों प्रस्तुतियों में नाट्यालेख तैयार किया गया है. ‘रंगधूलि’ के नाट्यालेख को आशुअभिनय और रीसर्च के सहारे त्रिपुरारी शर्मा ने स्वंय तैयार किया है. और इसे विकसित(Devised) नाटक कहा है. ‘सेक्स,मोरैलिटी और सेंसरशिप’ को शांता गोखले और इरावती कार्निक ने लिखा है.
हिन्दी रंगमंच वर्षों पाठ्य नाटक और मंचीय नाटक के द्वंद्व मे उलझा रहा. इस उलझन के परिणाम स्वरूप विदेशी और अन्य भारतीय भाषाओं का हिन्दी में मंचन हुआ और साथ ही कुछ अच्छे नाटक भी लिखे गये जो रंगमंच पर वर्षों से अभिनीत हो रहे हैं. तथाकथित नाटकों की कमी की पुर्ति के लिये या रंगमंच के विस्तार के उद्देश्य से धीरे धीरे कहानी,उपन्यास, कविता इत्यादि का मंचन होने लगा. कहानी का रंगमंच नामक एक नयी विधा ने रंगमंच पर अपनी सशक्त उपस्थिति दिखाई. इसका विस्तार आज भी हो रहा है और कथेतर पुस्तकों पर भी प्रस्तुति तैयार हो रही है. कीर्ति जैन ने उर्वशी बुटालिया के किताब ‘द अदर साईड आफ़ साइलेंस’ के आधार पर ‘और कितने टुकड़े’ जैसी सफ़ल प्रस्तुति की. खैर,आशय यह है कि रंगमंच साहित्य की सर्वाधिक गतिशील विधा है. इसके फ़ार्म में और आधार सामग्री में निरंतर बदलाव होता रहा है.
हिन्दी में एक बड़ा अकादमिक समुदाय इस बात का रोना रो रहा है कि हिन्दी में नाटक नहीं लिखे जा रहें है या हिन्दी के नाटक नहीं खेले जा रहें हैं या हिन्दी रंगमंच में दर्शक कहां हैं ?आदि आदि. इन सबसे बेखबर या बाखबर होकर हिन्दी रंगमंच की धारा प्रवाहित हो रही है.सफ़ल या असफ़ल प्रयोग निरंतर हो रहें हैं और दर्शक भी बढ़ रहा है. जो अपने हिसाब से नाटको को स्वीकृत और खारिज़ कर रहा है. भारत रंग महोत्सव में हिन्दी के नाटकों के टिकट सबसे पहले बिकते हैं . अभी हाल ही में रानवि रंगमंडल की प्रस्तुतियों ‘बेगम का तकिया’ और ‘जात ही पूछो साधु की’ देखने के लिये दर्शक भारी संख्या में उमड़े. मेरा स्वंय का एक अनुभव भोपाल का है. जहां ‘हबीब उत्सव’ के दौरान शहर से खासे दूर श्यामला हिल्स पर स्थित मानव संग्रहालय के प्रेक्षागृह में हर प्रस्तुति के दौरान दर्शकों की एक बड़ी संख्या को बाहर लगे प्रोजेक्टर पर नाटक देखकर संतोष करना पड़ा. पटना के मित्र बताते हैं कि भीषण गर्मी और उमस के बावजुद कालिदास रंगालय में दर्शक अच्छी संख्या में मौजुद होते हैं. और रंगकर्मियों को रंगालय की बुकिंग कराने के लिये महीनों पहले अर्जी देनी पड़ती है.
खैर, रंगमंच पर कैसी प्रस्तुतियां हो रही हैं ? इसका अवलोकन करने पर यह पता लगता है कि एक शिफ़्ट तो आ ही चुका है . अब निर्देशक परंपरागत तरिके से किसी नाटक का मंचन करके संतुष्ट नहीं हैं. वह अब प्रस्तुति के रूप में अपनी कृति रचने में अधिक दिलचस्पी दिखा रहें हैं. अपनी कृति रचने में चूंकि आलेख को अपने हिसाब से बदलना पड़ता है अतः अब निर्देशकों की रूचि आलेख लिखवाने में बढ़ रही है. ये उस किचकिच से निज़ात पाने के लिये भी है जो नाटककार और निर्देशक के बीच में होती रही है. वैसे अब भी राजेन्द्रनाथ जैसे निर्देशक है जो नाटक को ही प्रस्तुत करते है. दरअसल आलेख लिखवाने का जो चलन है वह रंगमंच पर निर्देशक के प्रभुत्त्व में वृद्धि का संकेत है. अगर नाटककार उसे अपने नाट्यालेख में बदलाव की छूट नहीं देगा तो वह आलेख स्वंय लिख लेगा या लिखवायेगा. इस नाट्यालेख पर अधिकार किसका होगा यह लेखक और निर्देशक के आपसी तालमेल से तय होता है.कभी कभी यह विवाद भी होता है. निर्देशक आलेख इसलिये लिखता है या लिखवाता है जब उसे लगता है कि वह निजी तौर पर कुछ अभिव्यक्त करना चाहता है. त्रिपुरारी शर्मा जो कि ख्यात एवं समर्थ निर्देशक है इसे ‘पर्सनल स्टेटमेंट’ कहती हैं.[4] इस ‘पर्सनल स्टेटमेंट’ को व्यक्त करने के लिये निर्देशक पाता है कि कोई ऐसा नाटक नहीं है जिसकी प्रस्तुति कर वह अपनी बात रख सकता है. इसलिये वह नाटक लिखवाता है. जैसे रामगोपाल बजाज ने कोसी बाढ़ की विभीषिका को सामने रखने के लिये रामेश्वर प्रेम से नाटक ‘जल डमरू बाजे’लिखवाया जो उनकी कहानी ‘संग्या पुत्र’ का विस्तार थी. इसका मंचन रानावि में तृतीय वर्ष के छात्रों के द्वारा किया गया. स्वंय त्रिपुरारी शर्मा ने व्यापक शोध करके ‘काठ गाड़ी’, ‘पोशाक’, ‘शिफ़ा’, ‘रूप-अरूप’ जैसी प्रस्तुतियां की है जिसका आलेख उन्होंने स्वंय लिखा है.इन आलेखों में ऐसी कहानियां मंच पर आयी हैं जिन पर अभी तक नाटककार ध्यान नहीं देते थे या निर्देशकों या अभिनेताओं को लगा कि इन विषयों को भी रंगमंच पर आना चाहिये.उपर बताया ही जा चुका है कि सेंसर और नैतिकता जैसे ज्वलंत मसले पर सुनील शानबाग ने ‘सेक्स मोरैलिटी और सेंसरशिप’ जैसी समर्थ प्रस्तुति की.
महिला निर्देशकों में यह प्रवृति अधिक दिखती है खासकर नब्बे के दशक के बाद से. इस दौरान रंगमंच पर अनुराधा कपुर, त्रिपुरारी शर्मा, माया राव, अनामिका हक्सर, अमाल अल्लाना, नीलम मान सिंह चौधरी, कीर्ति जैन इत्यादि ने उल्लेखनीय काम किया है.खासकर जेंडर का मसला जो इनकी प्रस्तुतियों में देखने को मिलता है अन्यत्र दुर्लभ है. और ऐसी प्रस्तुतियों के लिये फ़ार्म में बदलाव भी करना पड़ा. जैसा कि अनुराधा कपुर लिखती हैं, ‘ महिला निर्देशकों ने जेंडर के जिन प्रश्नों को मंच पर लाया उन्हें आधुनिक प्रदर्शनों में अब तक संबोधित ही नहीं किया गया था.इस प्रकार के काम से दो बातें सामने आयीं ; इसने अपने विषय पर इस तरह से विचार किया जैसे कि इन अनुभवों का अधिकांश हिस्सा अब तक अदृश्य रहा हो और तब इन अनुभवों को ऐसे प्रस्तुत किया गया जिसने प्रचलित प्रदर्शन आख्यान को विस्थापित कर दिया[5].
ज़ाहिर है कि जेंडर को उभारने के लिये इन्होंने उपलब्ध नाट्यालेखों से संतुष्ट होने के बजाय नाट्यालेख तैयार करने में अधिक रूचि दिखायी. इस क्रम में अनुराधा कपुर ने ‘सुंदरी एन एक्टर प्रिपेयर्स’, ‘उमराव जान’, ‘गोरा’ इत्यादि जैसी प्रस्तुतियां की जिनका आलेख गीतांजली श्री(कथाकार) ने लिखा था[6]. इसी तरह अमाल अल्लाना ने ‘नटी विनोदिनी’ और नीलाभ द्वारा ‘हिम्मतमाई’ के नाम से अनुवादित ब्रेख्त के नाटक ‘मदर करेज’ की प्रस्तुति की थी. इस प्रस्तुति में जेंडर को उभारने के लिये एक प्रयोग यह किया गया था कि मदर करेज की केंद्रीय भूमिका मनोहर सिंह ने की थी. आगे चलकर सतीश आलेकर के नाटक‘बेगम बर्वे’ जिसे अमाल अल्लाना ने ही निर्देशित किया था, में भी मनोहर सिंह ने स्त्री पात्र की भुमिका निभाई थी. इस तरह का प्रयोग हबीब तनवीर ‘जिस लाहौर नई देख्या’ में कर चुके थे जिसमें माई की भूमिका को एक पुरुष पात्र ने निभाया था. गौरतलब है कि रंगमंच पर जब स्त्रियां नहीं आई थी पुरूष ही स्त्री पात्र की भूमिका निभाते थे. जयशंकर सुन्दरी और बालगंधर्व जैसे अभिनेता अपने स्त्री चरित्रों के लिये विख्यात रहें है. अब नब्बे के दशक में पुरुष पात्र स्त्री की भुमिका निभा रहे हैं. इससे जेंडरीकरण की वह प्रक्रिया जो सामाजिक पाठ का अंग है और जो शरीर पर घटित होती है की तीक्ष्ण प्रस्तुति संभव हुइ . ‘सुंदरी-एन एक्टर प्रिपेयर’ में अनुराधा सुंदरी के मुख्य चरित्र को तीन भाग में बांट देती हैं. ये तीन शरीर हैं, तीन उपस्थिति है, तीन यौनिकताएं हैं जो सुंदरी के अभिनय जीवन को बचपन, युवावस्था और मध्यवय को अभिव्यक्त करती हैं.[7] इस तरह से प्रस्तुति का विखंडन हो जाता है और मंच पर तीन वय की अवस्थायें और उनके बीच की अंतरक्रिया घटीत होते चलती है. त्रिपुरारी शर्मा अपने नाटक ‘रूप-अरूप’ में जेंडर को एक नया आयाम देती हैं. इस नाटक में वे उस प्रक्रिया से दर्शकों को परिचित कराती हैं जिसमें स्त्री पुरूष को मंच से अपदस्थ कर रही है.अब मंच पर यथार्थवाद आ रहा है जिसमें स्त्री ही स्त्री की भूमिका का निर्वाह करेगी. अपने स्त्री रूप के मोह में आसक्त पुरूष को इस सत्य को स्वीकारने में क्या दिक्कत होती है और जिस द्वंद्व से वह गुजरता है इसकी तीव्र अभिव्यक्ति प्रस्तुति में हुई है. इस प्रकिया के सहारे स्त्री पुरूष संबंध, समाज में स्त्री की स्थिति, यौनिकता इत्यादि कई परतें खुलती चली जाती हैं.
इस प्रकार तैयार आलेख कोई एक व्यक्ति भी लिख लेता है या यह समूह लेखन भी हो सकता है जिसे निर्देशक या लेखक आकार में ढालता है. अनुराधा कपुर ने जो प्रस्तुतियां की उनका आधार उन्होंने उपन्यासों से लिया जिसे अपने हिसाब से उन्होंने आलेख में रुपांतरित करवाया. त्रिपुरारि शर्मा ने आलेख के लिये व्यापक शोध किया. फ़िर इस शोध के निष्कर्षों को उन्होंने अभिनेता के सामने रखा. अभिनेता आशुअभिनय (Improvisation) के सहारे आलेख रचते है. जिसे बाद में तराश लिया जाता है. याद करें कि हबीब तनवीर की आलेख रचने की प्रक्रिया भी यही हैं. वो अपना विषय लोककथाओं से, किवंदंतियों से उठाते हैं और इम्प्रोवाईजेशन के सहारे आलेख तैयार करते हैं. ‘चरनदास चोर’ जैसा प्रसिद्ध नाटक इसी प्रक्रिया से निकला है. नब्बे के दशक में भी उन्होंने ‘सड़क’ जैसा नाटक तैयार किया. यह नाटक विकास के अंतर्विरोधों की पोल खोलता है. इसमें गांव वालों का मुकदमा शहरी व्यवसायियों से चलता है. गांव वाले एक मासूम सा सवाल पूछते हैं कि उनसे कभी पूछा ही नहीं गया कि उनका विकास कैसे करें.
बहरहाल, इम्प्रोवाइजेशन से तैयार आलेखों में अभिनेता की भूमिका बहुत सजग होती है.उसे एक स्थिर आलेख का उपपाठ करने की बजाय अपने पाठ को निर्मित भी करना पड़ता है इस प्रक्रिया में वह अन्य अभिनेताओं और प्रस्तुति के घटक तत्त्वों से सहयोग करता है.निर्देशक उसके तैयार पाठ को प्रस्तुति के मिजाज के हिसाब से ढाल लेता है. ऐसी प्रस्तुतियों में बेजान अभिनेता की उपस्थिति अच्छी नहीं होती, जो तय पाठ की निर्देशकीय व्याख्या के साथ अभिनय करने आते हैं. अब तो ऐसा भी होने लगा है कि अभिनेता एकल प्रस्तुतियों के द्वारा अपना आलेख भी खुद रचने लगे हैं. अजय कुमार की प्रस्तुति ‘बड़ा भांड तो बड़ा भांड’या ‘माया राव’ की प्रस्तुतियों में हम एक अभिनेता की देह को ही आलेख में रूपांतरित होते हुए देखते हैं. एक नज़र देखने पर यह प्रक्रिया अधिक लोकतांत्रिक नज़र आती है. इसमें रंगमंच का लगभग हर घटक अपनी भूमिका की खोज करने के बजाय इसका निर्माण करता है.
इस प्रक्रिया में रंगमंच में कुछ ऐसे विषयों की प्रस्तुति हुई है जिनसे संबंधित नाट्यालेख नहीं थे. या उपलब्ध आलेख को अपर्याप्त जानकर निर्देशकों ने आलेख लिखवाया या आलेख को अपने हिसाब से ढाला. जैसे नक्सली कार्यकर्ताओं के जीवन में झांकने वाला आसिफ़ अली निर्देशित/लिखित नाटक ‘उनसठ मिनट साठ सेकेंड’ या कुलदीप कुणाल लिखित नाटक ‘द लैंडवीभर’ जिसमें किसानों के जीवन की समस्याओं और बहुराष्ट्रीय कंपनियों द्वारा उनके अप्रत्यक्ष शोषण को दिखाया गया है. कीर्ति जैन ने ‘और कितने टुकड़े’ में विभाजन का स्त्रीवादी दृष्टिकोण प्रस्तुत किया. हबीब तनवीर भी टैगोर के नाटक विसर्जन में राजर्षि को मिलाकर एक नया आलेख तैयार कर ‘राजरक्त’ जैसी प्रस्तुति तैयार करते हैं जिसमें राजसत्ता और धर्मसत्ता के बीच के द्वंद्व और उससे जुझते आम आदमी को दिखाया गया है. मानव कौल जो कि उभरते हुए युवा निर्देशक है भी अपना आलेख खुद तैयार करते हैं और ‘इलहाम’, ‘ममताज़ भाई पतंग वाले’ जैसी प्रस्तुति दे चुके हैं. सुनील शानबाग ने मुम्बई कपड़ा मिल पर व्यापक शोध करके ‘काटन ५५ पालिस्टर ८४’ जैसी प्रस्तुतियां तैयार की, जो काफ़ी प्रशंसित हुई. मछिन्द्र मोरे ने किन्नरों पर ‘जानेमन’ जैसा नाटक लिखा जिसे वामन केन्द्रे ने रानावि रंगमंडल ने प्रस्तुत किया. रंजीत कपुर जो अपना आलेख खुद लिखते हैं ने ‘एक संसदीय समिति की उठक बैठक’ और ‘शार्ट कट’ जैसी प्रस्तुतियां की. खैर, सफ़ल प्रस्तुतियों की संख्या जितनी अधिक है उससे अधिक संख्या असफ़ल प्रस्तुतियों की है परंतु उनकी चर्चा अपेक्षित नहीं है क्योंकि वो अपने प्रयोग की गर्त में समा कर नये प्रयोंगों को सही रास्ता दिखा गये हैं.
रंगमंच ऐसी कला है जो दूसरी कलाओं या विधाओं पर सर्वाधिक निर्भर है. कोई शिल्प, कोई ग्यान..वाला श्लोक प्रसिद्ध ही है. लेकिन रंगमंच पर अन्य कलाओं विधाओं की अराजक उपस्थिति नहीं होती उसे अंततः रंगमंच के उपकरणॊं में घुलना होता है. इसीलिये संगीत रंगमंच पर आकर रंग-संगीत हो जाता है और नृत्य को गति के साथ होना होता है. चित्र दृश्य-बंध में मिल जाते हैं और पाठ्य को अंततः दृश्य में तब्दील होना होता है. पिछले दो दशकों में रंगमंच जिस एक विधा ने अपनी जबरद्स्त उपस्थिति दर्ज की है वह है वीडियो और डिजिटल तकनीक. मल्टीमीडिया तकनीक के आ जाने के बाद वीडियो का प्रयोग अब अधिक मात्रा में होने लगा है. गिरिश कर्नाड ने तो वीडियो को एक प्रमुख भाग बनाकर ‘बिखरे बिंब’ जैसा नाटक ही लिखा है. इक्क्सवीं सदी में रंगमंच पर यह एक महत्त्वपूर्ण बदलाव है.लेकिन चूंकि अभी इसकी आयु अधिक दिन की नहीं हुई है तो इसका बेवकुफ़ाना और समझदारी भरा दोनों तरह से इस्तेमाल हो रहा है.वीडियो और एनिमेशन के इस्तेमाल से एक लाभ यह हुआ है कि ऐसे दृश्य जो सहजता से मंच पर उपस्थित नहीं किये जा सकते थे उन्हें दिखाया जा सकता है.
सुनील शानबाग ‘सेक्स, मोरैलिटी… में विडियो का उपयोग करके साठ और सत्तर के दशक की डाक्युमेंट्री दिखा कर उस समय का परिवेश उपस्थित कर देते हैं. रामगोपाल बजाज डिजिटल ध्वनि का उपयोग कर बाढ की भयावहता को स्थापित कर देते हैं. अनुरूपा राय कठपुतली और एनिमेशन के सहारे ‘एबाउट राम’ जैसी अभिभूत कर देनी वाली प्रस्तुति रचती हैं. वीडियो का एक दिलचस्प प्रयोग हाल ही में इला अरूण निर्देशित ‘मरीचिका’ में देखने को मिला[8]. जिसमें प्रोजेक्शन तकनीक का उपयोग कर राजस्थान की लोककला‘पाबु जी की पड़’ के पड़ों को मंच पर विशालकाय रूप में दिखा दिया. अमाल अल्लाना के नाटक ‘नटी विनोदिनी’ में निसार अल्लाना के दृश्य परिकल्पना में प्रोजेक्शन एक अभिन्न भाग है. इसी तरह सुरेश शर्मा ‘काफ़्का-एक अध्याय’ में अस्पताल के सभी दृश्य वीडियो के सहारे दिखा देते हैं. वीडियो का उपयोग दृश्य को विखंडित करने और उन्हें अपने आकार से बड़ा दिखाने में भी होता है. इस रूप में वीडियो स्वतंत्र रूप ले लेता है. अनुराधा कपुर, माया राव,अनामिका हक्सर अपने प्रस्तुतियों में इस तकनीक का उपयोग दृश्य को विखंडित करने के लिये करती हैं.
इस मल्टीमीडिया तकनीक या डिजिटल तकनीक का कभी कभी अराजक इस्तेमाल भी होता है. अमितेश ग्रोवर और शांतनु बोस के यहां इसका इतना उत्साही प्रयोग है कि दर्शक उब जाता है[9]. बापी बोस अपने नाटक ‘परम-पुरुष ‘ में वीडियो इतना भर देते हैं कि प्रस्तुति लंबी हो जाती है. लेकिन इस तकनीक के आगमन ने एक नयी रंग भाषा के तलाश की पहल शुरु कर दी है. अभिनेताओं की भूमिका इसमें और चुनौती पूर्ण हो गयी है. क्योंकि “रंगमंच पर जब जब दूसरी कलाएं आती हैं तो उनका एक मोटा उद्देश्य अभिनेता की कला को आगे बढ़ाना होता है न कि उसके ऊपर हावी होकर मात्र अपनी पहचान को स्वतंत्र रूप से प्रतिष्ठित करना”.[10] अब ये निर्देशक के ऊपर है कि वह अभिनेता के सहायक उपकरण के तौर पर इस तकनीक का इस्तेमाल करते हैं या अभिनेता को इसका सहायक बना देते हैं. माया राव ने इस दिशा में महत्त्वपूर्ण प्रयोग किये हैं. वे अपने अभिनय को इन माध्यमों के सहारे और तीक्ष्ण बना देती है.[11] लेकिन माया राव अनुभवी अभिनेत्री है और नये अभिनेताओं को इस तकनीक में अपने को ढालने में समय देना होगा नहीं तो वे मंच पर जीवित प्रापर्टी में बदल जायेंगे और जीवंतता समाप्त हो जायेगी (जिसकी संभावना अधिक है). ज़ुलेखा चौधरी की प्रस्तुतियों में ये अभिनेता निरर्थक नज़र आने लगते है क्योंकि उनको अभिनय भी करना पड़ता है और यंत्रों का संचालन भी.[12]
नाट्य जगत में इस तकनीक को लेकर उत्साह और संदेह दोनों का भाव है. राजेन्द्रनाथ जैसे निर्देशक भी हैं जो वीडियो के इस्तेमाल का एकदम निषेध कर देते हैं. लेकिन विडियो का इस्तेमाल ना करने की उनकी जिद ‘बिखरे बिंब’ को असहज बना देती है. अभिलाष पिल्लई जिन्होनें इस तकनीक का व्यापक इस्तेमाल किया है लिखते हैं; “मल्टीमीडिया रोजमर्रा जीवन की ही तरह मनुष्य के शरीर में भी प्रवेश कर गया है; उदाहर्ण के लिये, हमारी जेब में मोबाईल फ़ोन से लेकर हमारे शयन कक्ष तक, जिसमें टेलीविजन है, इलेक्ट्रानिक\डिजिटल बोर्डो से सज्जित महामार्गों तक और रेलवे स्टेशन पर लगे वीडियो स्क्रीन्स तक. जैसा कि हम देख सकते हैं, सिनेमा ने रंगमंच में तिमिरण(ब्लैक आउट्स) के साथ छोटे दृश्यों का प्रवेश कराया है, जिससे रंगमंच मॆं सिनेमा तथा अन्य मल्टीमीडिया की भाषा की तरह प्रचूरता आ गई है. जो कि नाटककारों, अभिनेताओं और निर्देशकों के लिये रंगमंचीय अभिव्यक्ति को नये तरिके से गढने के ज्यादा अवसर देगा. भाषाओं के अलग अलग संश्लेषणॊं की असीमित संभावनाओं के कारण पुराने और नये नाटकों का अन्वेषण करने के और भी कई तरिके ढूंढे जा सकते हैं…यदि हम मीडिया (रेडियो, टेलीविजन, मोबाईल इत्यादि) को अपने जीवन में स्थान दे सकते हैं तो अपने रंगमंच में क्यों उसे स्थान नहीं दे सकते”[13] ? अभिलाष के इस तर्क से असहमति का कोइ कारण नहीं नज़र आता. ये सही है कि इस तकनीक का कुशलतापुर्वक उपयोग से नाटकों का नये तरिके से अन्वेषण हो सकता है. भारतीय रंगमंच पर पाश्चात्य नाटकों के लिये तो यह शुरु हो चुका है लेकिन भारतीय नाटकों खासकर हिन्दी नाटकों का इससे कितना अन्वेषण होता है यह देखना है. क्या निर्देशक आगे आयेंगे ? क्योंकि इस माध्यम ने इतनी संभावना पैदा कर दी है कि वे पाठ्य को दृश्य में सूझ बूझ के साथ बदल सकते हैं. उदाहरण के लिये कहा जा सकता है कि क्या प्रसाद के नाटकों का पुनरान्वेषण होगा ? या निर्देशक नये आलेखों या पाश्चात्य आलेखों की ही व्याख्या करते रहेंगे.
दर्शक इस माध्यम के साथ कितना तालमेल बिठाता है यह भी एक देखने वाली बाती है. क्या हमारे दर्शक का प्रशिक्षण ऐसा है कि वह इन प्रयोगों को आसानी से आत्मसात कर सकें. ऐसे समय में जब टेलीविजन और सिनेमा से उबे दर्शक रंगमंच की तरफ़ लौट रहें हैं, यह प्रयोग उसे रंगंमंच में बिठाये भी रख सकता है और उसे दूर भी कर सकता है. लेकिन अधिकांश प्रस्तुतियों में दर्शक पर ध्यान नहीं दिया जाता. दर्शक इस विखंडन और वीडियो से भ्रमित होते हैं. वे अब भी पारंपरिक रंगमंच के आदी हैं. अतः उन्हें इन प्रयोगों के लिये प्रशिक्षित भी करना होगा. महेश आनंद लिखते हैं; “ दरअसल प्रदर्शन के परिमाण में दर्शक हस्तक्षेप करता है, उसे निर्धारित करता है. चूंकि इन नये प्रयोगों में इस्तेमाल किये गये अनेक माध्यम दर्शक को तो प्रभावित करते हैं, स्वंय नहीं होते. अगर उन्हें प्रदर्शन का अनिवार्य हिस्सा बनाना है तो इस प्रश्न से जुझना होगा कि ये माध्यम दर्शक के मानसिक क्षितिज को विस्तार देने में किस प्रकार सहायक बन सकते हैं. निश्चित रूप से दर्शक के साथ उनको सहभाव बनाना होगा. अनेक तकनीकी अविष्कार मिल कर भी अभिनेता की जीवंतता का मुकाबला नहीं कर सकते. अपने भारतीय परिवेश में इन माध्यमों की तर्कसंगतता को समझना जरूरी है ताकि अभिनेता की उर्जा को दर्शकों तक संप्रेषित किया जा सके. संचार क्रांति के नाम पर कच्चे पक्के ढंग से परोसी गयी नवीनता निर्देशकों का आत्मदर्शन हो सकती है, सामाजिक की नहीं”[14]
इन उम्मीदों और शंकाओं के बीच से ही रास्ता निकल सकता है. इस में मदद आलोचना कर सकती है. लेकिन हिन्दी का आलोचना जगत रंगमंच के बारे में मौन ही रहता है. यह विडंबना ही है कि हिन्दी में आलोचना की व्यवस्थित शुरुआत नाटक से होती है लेकिन आज नाट्यालोचन कहां है ?
अंत में एक और बात कहना जरूरी है कि रंगमंच में अधिकतर प्रयोगों की सूचना जो प्राप्त होती है वो दिल्ली या मुम्बई की होती है. हिन्दी रंगमंच में व्यापक तौर पर क्या कुछ घटित हो रहा है खासकर हिन्दी क्षेत्रों में उसकी सूचना प्रसारण के पर्याप्त साधन नहीं है. संचार क्रांति के जमाने में ऐसा नहीं होना दुखद है और इसके लिये प्रयास किया जाना चाहिये.
[1] रजत कपूर निर्देशित नाटक हेमलेट - द क्लाउन प्रिंस
[2] त्रिपुरारी शर्मा निर्देशित रानावि तृतीय वर्ष की छात्र प्रस्तुति रंगधूलि
[3] सुनील शानबाग निर्देशित सेक्स,मोरैलिटी और सेंसरशिप
[4] रामजस कालेज में ८ फ़रवरी को दिये गये व्याख्यान में.
[5] Anuradha kapur, Modern Indian Theatre, ed. Nanadi Bhatia, oup,2009, p-49
[6] सुंदरी एन एक्टर प्रिपेयर दिनेश खन्ना के साथ मिल कर लिखा गया था. दिनेश जयशंकरसुन्दरी की आत्मकथा ‘कुछ आंसु कुछ फूल’ के अनुवादक हैं.
[7] देखें Poetics,Plays and Performences;The politics of modern indian theatre, vasudhaa dalmia, oup,2009, p-321
[8] २०१० के इब्सन फ़ेस्टीवल में इब्सन के नाटक ‘लेडी फ़्राम द सी’ का रूपांतरण, इला अरूण का निर्देशन
[9] हाल ही में हुए हेमलेट(अमितेश ग्रोवर) और हजार चौरासी की मां (शांतनु बोस) प्रस्तुति में
[10] देंवेंद्र राज अंकुर, रंग प्रसंग-३५,पृ-27
[11] लेडी मैक बेथ रीविजिटेड या क्वालिटी स्ट्रीट (निर्देशक- माया राव) जैसी प्रस्तुतियों में.
[12] सम स्टेज डायरेक्शन औफ़ जान गब्रियल बोर्कमैन (ज़ुलेखा चौधरी)में
[13] रंग प्रसंग, अंक-३५, पृ-35-36
Bada Zabar lekh likha hi........
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