रंगमंच तथा विभिन्न कला माध्यमों पर केंद्रित सांस्कृतिक दल "दस्तक" की ब्लॉग पत्रिका.

मंगलवार, 22 जनवरी 2013

साहस-विहीन राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय : अपूर्वानंद


नाटक नहीं होना था, नाटक हुआ। नाटक नहीं होना था भारत रंग महोत्सव में, जहां कायदे से उसे होना चाहिए था, हुआ निर्धारित कमानी प्रेक्षागृह से कुछ ही किलोमीटर दूर बाबा खड़ग सिंह मार्ग पर अक्षरा थिएटर में। 
बड़े गर्व से 2013 के रंग महोत्सव के आरंभ में बताया गया था कि इस बार मंटो के जीवन और उनकी रचनाओं पर आधारित प्रस्तुतियां महोत्सव का खास आकर्षण हैं। पाकिस्तान का रंग-दल अजोका’, जो पिछले पचीस साल से भारत आता रहा है, इसी वजह से मंटो की जिंदगी पर आधारित अपनी एक प्रस्तुति लेकर आया था। यह प्रस्तुति विशेषकर इसी महोत्सव के लिए तैयार की गई थी। अजोकाभारत आया था राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय के आमंत्रण पर, लेकिन मेजबानों ने उन्हें बताया कि वे अभी भारत और पाकिस्तान के बीच तनाव के कारण कोई खतरा नहीं उठाना चाहते। उन्हें अंदेशा था कि नाटक होने पर हंगामा होगा और महोत्सव के रंग में भंग होगा। उत्सव को बचाने के लिए उन्होंने अजोकाके साथ पाकिस्तान के दूसरे नाट्य दल नापाको भी अपनी लाचारी बताई। दोनों नाट्य दलों के पास उन्हें समझनेके अलावा चारा भी क्या था?
दिल्ली के पहले इसी महोत्सव के अंग के रूप में जयपुर में चल रहे उत्सव में भी इन नाटकों को होना था। वहां भी ये प्रस्तुतियां रद्द कर दी गर्इं। अखबारों ने इस घटना को पहले पृष्ठ के लायक खबर माना। उनके मुताबिक  नाट्य विद्यालय की अधिकारी ने इस निर्णय को दुखदबताया लेकिन सफाई में कहा कि वे कुछ नहीं कर सकती थीं क्योंकि यह फैसला सरकार का था और विद्यालय एक सरकारी संस्था है। 
क्या सचमुच वे कुछ नहीं कर सकती थीं? क्या वे यह नहीं कह सकती थीं कि यह महोत्सव का केंद्रीय आकर्षण है और इसके सारे टिकट बिक चुके हैं और आयोजकों के लिए इनका प्रदर्शन रद्द करना संभव नहीं है? यह एक तरह से इस महोत्सव के वास्तविक संरक्षकों, यानी दर्शकों के, नाटक देखने के अधिकार का हनन होगा? अगर उन्हें सरकार ने नाटक करने को कहा तो क्या वे उन्हें वापस नहीं बता सकती थीं कि ऐसी हालत में उन्हें महोत्सव ही बीच में रोक देना पड़ेगा? क्या वे सरकार से यह नहीं कह सकती थीं कि किसी गड़बड़ी को रोकने के लिए सुरक्षा देना राज्य का काम है। और भी, क्या वे यह नहीं कह सकती थीं कि दरअसल सरकार को फिक्र करने की जरूरत भी नहीं क्योंकि इस महोत्सव में, और दिल्ली शहर में सैकड़ों रंगकर्मी मौजूद हैं और वे कमानी सभागार और रंग-महोत्सव की हिफाजत कर लेंगे। क्या वे तमाम मंटो-प्रेमियों को संदेश नहीं भेज सकती थीं कि वे आएं और निश्चित करें कि यह नाटक हो? 
लेकिन यह सब जो लिखा गया, उसी समय भारत के विदेशमंत्री का स्पष्टीकरण भी गया कि सरकार ने नाटक के प्रदर्शन के लिए कोई मनाही नहीं की थी। तो फिर क्या यह समझें कि सरकार ने अनौपचारिक संकेत किया, जिसे नाट्य-विद्यालय के समझदार प्रशासकों ने फौरन समझ लिया? क्या उनमें इतनी हिम्मत भी नहीं बची थी कि वे लिखित निर्देश मांगते? अगर सरकार ने मनाही की होती तो अजोकाके लिए कहीं भी प्रदर्शन करना असंभव था। वह यह जोखिम नहीं ले सकता था कि मेजबान देश की इच्छा के विरुद्ध चोरी-चोरी नाटक कर ले। ऐसा करने पर आगे उसका भारत आना संदिग्ध हो जाएगा, उसे मालूम है। इसका मतलब सिर्फ एक है कि यह फैसला राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय ने खुद लिया, या तो भय के कारण या अचेतन राष्ट्रवाद के कारण। 
ये सारे सुझाव अटपटे हैं या असाधारण हैं? लेकिन असाधारण स्थिति में क्या असाधारण उपाय नहीं किए जाने चाहिए? और नाटक अपने आप में क्या एक अटपटी चीज नहीं है? हम अगर इस महोत्सव और नाट्य विद्यालय के प्रशासन को छोड़ दें तो इस महोत्सव में बने हुए उन सैकड़ों रंग-कर्मियों और रंग-प्रेमियों का क्या करें जिन्होंने इस घटना पर अखबारों जितनी प्रतिक्रिया भी नहीं दिखाई? 
कुछ ने दिल मसोसते हुए एक-दूसरे को फोन किए, एक नाराजगी जताता बयान आया और लगा कि किस्सा खत्म हुआ। इस घटना पर अपने बयान में जैसा विद्यालय के  एक प्रशासक ने कहा कि बाकी शोवैसे ही चलता रहा, मानो उसे चलाने में किसी खास दिलेरी की जरूरत रही हो! 
ठीक इसी समय एक संदेश घूमने लगा। शाहनवाज मलिक, रुक्मिणी और ऋतु ने एक -मेल  भेजा था, ‘‘साथियो, इन दिनों राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय (एनएसडी) में पंद्रहवां भारतीय रंग महोत्सव चल रहा है। इस महोत्सव में पाकिस्तान के दो थिएटर ग्रुप अजोका थिएटर और नापा रेपर्टरी को सआदत हसन मंटो के जीवन पर आधारित नाटक का मंचन करने के लिए बुलाया गया था, लेकिन आखिरी समय पर उन्हें परफॉर्म करने से मना कर दिया गया। भारत सरकार के संस्कृति मंत्रालय ने जहां इसके पीछे सुरक्षा कारणों का हवाला दिया, वहीं आयोजक एनएसडी ने भी खुद को सरकारी संस्था बता कर कोई स्टैंड लेने से इनकार कर दिया।
नतीजतन हमारे पड़ोसी मुल्क से आए रंगमंच के कलाकार अपना नाटक किए बगैर वापस जा रहे थे। साथियो, यह हमारे मुल्क, मंटो और उनके लेखन के लिए बहुत शर्म की बात है। ... महज एक दिन की भारी मशक्कत और भागदौड़ के बाद आखिरकार यह संभव हुआ है कि पाकिस्तान लौटने से पहले मदीहा गौहर का ग्रुप अजोका थिएटर अपने नाटक क्यों है यह गुस्ताखका मंचन करने जा रहा है। मंचन शनिवार की शाम छह बजे बाबा खड़ग सिंह मार्ग स्थित अक्षरा थिएटर में होगा। आप लोगों से गुजारिश है कि सियासी स्वार्थों की लड़ाई के इस दौर में कला, सौहार्द और आपसी भाईचारे को जिंदा रखने की इस कोशिश में हमारा साथ दें और शनिवार, शाम छह बजे अक्षरा थिएटर जरूर आएं।’’ इस संदेश के साथ इन तीनों के फोन नंबर भी थे। 
ये नौजवान किसी संगठन के अंग नहीं हैं, रंग-समूह के भी नहीं। रंग-जगत में इन्हें कोई नहीं जानता। इनके पास ऐसी कोई आर्थिक ताकत नहीं कि प्रेक्षागृह का किराया दे सकें। लेकिन सब कुछ हुआ। जानते हुए कि एक राजकीयसंस्था ने अपने मेहमानों की मेहमाननवाजी करने से इनकार किया है और ऐसे ठुकराए मेहमानों का मेजबान बनने के अपने खतरे हो सकते हैं, राममनोहर लोहिया अस्पताल के करीब स्थित अक्षरा थिएटर के संस्थापक, वृद्ध गोपाल शर्मण और जाबाला वैद्य ने नौजवानों के इस साहस में हिस्सेदारी का फैसला किया। और जब वे नाटक शुरू होने के पहले अपनी कांपती, मद्धम मुलायम आवाज में मेहमान रंग-दल और दर्शकों का स्वागत करने उठे तो लगा कि यह फैसला उनके लिए कुछ खास था, कि उन्होंने तो इसे एक साधारण-सा काम माना था।
सौ लोगों के बैठ सकने की जगह ठसाठस भर गई थी। प्रेक्षागृह के बाहर अस्मितानाट्य दल के रंगकर्मी पंक्तिबद्ध मुस्तैद थे। आइसा और जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय और दिल्ली विश्वविद्यालय के छात्र भी खड़े थे। लोग आते ही जा रहे थे। ध्यान रहे, यह बारह घंटे से भी कम के नोटिस और सिर्फ तीन नौजवानों की पहलकदमी पर हो रहा था। 
मैंने नाट्य-विद्यालय के किसी अधिकारी, किसी निर्देशक को नहीं देखा। दिल्ली रंगमंच की किसी पहचानी शख्सियत को भी नहीं। गोया कि जो यहां हो रहा था, वह नाटक था! मंटो की जन्म-शताब्दी में उन पर पर्चे लिखने और उनके मुरीद बने लोगों को भी नहीं। फिर भी लोग थे। खामोशी से जगह लेते हुए, बाहर जगह की कमी पर हंगामा करते हुए, जो अक्सर रंग-महोत्सव में गेट पर दिखाई देता है।
अजोका की मदीहा गौहर शुक्रिया अदा करने उठीं। उन्होंने कहा कि अभी जब वे बोल रही हैं, उससे थोड़ी देर बाद ही कायदे से कमानी में उनकी प्रस्तुति होनी थी। उन्होंने कहा कि वे नाट्य-विद्यालय की मजबूरी समझ सकती हैं, कि वे बहुत शुक्रगुजार हैं अक्षरा थिएटर की, जिन्होंने यहां नाटक करने की इजाजत दी। गोपाल शर्मण ने उन्हें रोका और कहा हमने तो आपका स्वागत किया, इजाजत की बात क्या। 
नाटक के पहले का यह एक खूबसूरत कला-क्षण था। मैंने मन ही मन शाहनवाज, रुक्मिणी और ऋतु का, गोपाल शर्मण और जाबाला का शुक्रिया अदा किया कि उन्होंने औरों के साथ मुझे भी इस लमहे में हिस्सेदारी का मौका दिया। 
लौटते हुए सोच रहा था कि शायद साहस इतनी भी असाधारण वस्तु नहीं। अपने जीवन-सिद्धांत को जो ठीक से समझते हैं और उस पर यकीन करते हैं, उनके लिए हिम्मत या साहस रोजमर्रा की चीज होती है। जो डर जाते हैं, वे उस क्षण में अपने जीवन-सिद्धांत को या तो भूल जाते हैं, या उसे स्थगित कर देते हैं, यह सोच कर कि वे फिर से इसे पा लेंगे। वे बस यह भूल जाते हैं कि जैसे ही वे ऐसा करते हैं, वे अपने जीवन के नैतिक-सत्त्व को हमेशा के लिए गंवा देते हैं। फिर उनका अस्तित्व एक छाया मात्र रह जाता है। जब बंगाल में वाम-मोर्चा तसलीमा नसरीन की हिफाजत कर पाया, तो उसने अपने साथ यही किया। मेरे विचार से नंदीग्राम में उसके फैसले से भी अधिक इस भीरुता ने उसे हमेशा के लिए सत्त्वहीन कर दिया। वैसे ही दिल्ली विश्वविद्यालय की विद्वत-परिषद ने जब रामानुजन का लेख पाठ्य-सूची से हटा दिया, उसने ज्ञान के बारे में कुछ भी कहने का अपना हक खो दिया। दिल्ली के प्रगति मैदान में कला मेला करने वालों ने जब हुसेन की कृतियों को हटाया तब उन्होंने भी कला’-मेला होने का अधिकार गंवा दिया।
और मैं कला के बारे में भी सोच रहा था। वह कौन-सा तत्त्व है जो कला को कला बनाता है, जिसकी कमी से वह एक सुंदर सजावट भर रह जाती है? वह भी साहस ही है। केदारनाथ सिंह की पंक्ति याद आई कि शब्द ठंड से नहीं मरते, मर जाते हैं साहस की कमी से।
मंटो को केंद्र में रखते समय नाट्य विद्यालय क्या यह भूल गया था कि कला वस्तुत: राष्ट्रवाद का प्रतिलोम है, कि वह हमेशा नो मैन्स लैंडमें ही जीवित रह सकती है? यह इत्तफाक है कि राष्ट्रवादी उन्माद के इस क्षण के शिकार मंटो के नाटक हुए। यह कहना इसलिए जरूरी है कि संभव है महोत्सव में आगे मंटो से जुड़ी प्रस्तुतियों में कुछ आत्म-वीरता का बखान किया जाए। यह साफ  होना बहुत जरूरी है कि नाटक पाकिस्तानी समूह के होने के कारण मंचित नहीं होने दिए गए, और सिर्फ इसी वजह से तो नाट्य-कर्मियों में नाटक के जुनूनी दर्शकों में खास बेचैनी देखी गई। अगर थी भी तो उसे कहीं गहरे दफन कर वे बाकी नाटक देखने में लग गए, मानो कोई दुर्घटना ही हुई हो! किसी ने विरोधस्वरूप अपने नाटक की वापसी का एलान नहीं किया।
तो फिर मान लें कि कला को उसके राजनीतिक आशय से पूरी तरह खाली कर दिया गया है और अब वह मन को सहलाने वाली क्रिया से अधिक कुछ नहीं रह गई है? या यह कि हमारे शिक्षा संस्थान पूरी तरह से साहस-विहीन हो चुके हैं और इस तरह ज्ञान-सृजनकर्ता की अर्हता खो बैठे हैं? या यह कि साहस अब व्यक्तियों में पाया जाएगा, संस्थाओं में नहीं? इन प्रश्नों के जो भी उत्तर हम दें, दिल्ली में सांस्थानिक स्थल पर अजोकाके नाटक होने और एक निजी स्थल पर उसके हो पाने के अभिप्राय कहीं अधिक दूरगामी हैं।
समाचार पत्र जनसत्ता से साभार.

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