यह महत्वपूर्ण निबंध जगदीश चन्द्र माथुर ने सन 1950 ई. में पटना कालेज साहित्य परिषद् के लिए लिखा था | आज़ादी या सत्तापरिवर्तन/हस्तांतरण के बाद का यह काल भारतीय इतिहास में पुनर्निर्माण का काल के रूप में विख्यात है | अपने इस निबंध में माथुर जीने जिन आशंकाओं से आगाह करना चाह था आज वो हमारे सम्मुख मुंह खोले बड़ी शान से खड़ी हैं | माथुर जी की आशंकाओं पर अगरवक्त रहते ध्यान दिया गया होता तो आज हमारे मुल्क की कला, संस्कृति और रंगमंच की शायद ये दुर्दशा ना हुई होती | निबंध बड़ा है सोहमें ये कई भागों में प्रकाशित करना पड़ेगा | उम्मीद है पहला भाग आप मंडली पर पहले हीं पढ़ चुकें होंगें, यदि नहीं तो पहला भाग पढने केलिए कृपया यहाँ क्लिक करें | दूसरे भाग के लिए यहाँ क्लिक करें | तीसरे भाग के लिए यहाँ क्लिक करें | आज आपके सामने प्रस्तुत है निबंध का अंतिम भाग | - माडरेटर मंडली .
उत्तरी भारतवर्ष में नाट्य साहित्य का लोप आप-ही-आप नहीं हुआ था | मुसलमानी
राज्य में धार्मिक कट्टरता ने मूर्ति-कला और रंगमंच दोनों पर प्रहार किया | राज्य
का प्रश्रय मिला नहीं और जनता भयाक्रांत हो मनोरंजन से विमुख हो गई | यों लगभग एक
हज़ार वर्ष तक उत्तरी भारत में तो नाटक कोरे अध्ययन की सामग्री बनकर रह गई |
अब यदि एक हज़ार वर्ष बाद हम रंगमंच और रूपक साहित्य को पुनर्जीवित करना
चाहतें हैं, तो यह क्रिया भी आप-ही-आप नहीं होगी | कविता भावुक ह्रदय से अनायास ही
बह निकलनेवाली निर्झरणी हो सकती है, यद्दपि उसकी तह में भी सामाजिक प्रेरणाओं का
दबाव होता है, किन्तु नाट्य साहित्य का रंगमंच की मांग से सीधा सम्बन्ध है और
रंगमंच स्वतः ही नहीं बनता | राष्ट्र और समाज, संस्कृति क्षेत्र के नेता और शासन,
सभी को परम्परा, परिस्थिति और उपकरणों को ध्यान में रखते हुए नए नए रंगमंच की
रूपरेखा निश्चित करनी है, और जहाँ तक संभव हो, उस निश्चित योजना के अनुसार साधन
एकत्रित कर रंगमंच के आंदोलन को चलाना है | ऐसे आन्दोलन के आग्रह से लेखक-समाज बच
नहीं सकेगा, और कुछ ही समय में एक समृद्ध नाट्य-साहित्य की नीव पड़ जायेगी |
पिछले पृष्ठों में रंगमंच की जो त्रिमुखी योजना मैंने उपस्थित की है, वाह
एक संकेत है इसी मार्ग की ओर | मैं यह कहने की धृष्टता नहीं करूँगा कि हिंदी हिंदी
भाषी समाज इस संकेत को आँख मूंदकर मान ले, यद्यपि मेरा अनुभाव है कि रंगमंच के जिस
त्रिमुखी विकास की मैं कल्पना कर रहा हूँ, वही दिन-प्रतिदिन स्पष्ट होती हुई
सांस्कृतिक प्रवृतियों का चरमोत्कर्ष हो सकता है |
यदि यह न भी हो, तो भी मेरा यह तो पक्का विश्वास है कि जनता, शासन और सांस्कृतिक
संस्थाओं को कुछ इसी तरह का बहुमुखी आंदोलन खड़ा करना होगा | हमारा राष्ट्रीय
रंगमंच एकमुखी नहीं हो सकता और न होना ही चाहिए |
इसलिए हमारा नाट्य-साहित्य भी कई विभिन्न शैलियों का संग्रह होगा, एक ही
परिपाटी का उत्थान मात्र नहीं |
लेकिन मुझे लगता है, मानो हम आधुनिक हिंदी के नाटककार बरबस ही एक ही शैली
की तलाश में भटक रहें हों | जो नए प्रयोग हो रहें हैं, उनके पीछे रंगमंच की
सामर्थ्य नहीं | इसलिए हमें रंगमंच की पद्धतियाँ भी निर्धारित करनी है और उसके साथ
ही साथ नाट्य-साहित्य की शैलियाँ भी | दोनों कार्य सामानांतर रेखाओं की तरह चलें |
यह सोचना कि पहले रंगमंच तैयार हो जाये तब नाटक लिखें जाएँ, या नाटकों की रचना
कराकर रंगमंच को तदनुसार तैयार कर लें, भारी प्रवंचना होगी |
लेकिन मैं लेखक समाज को हुक्म नहीं देना चाहता कि ऐसा लिखो और ऐसा नहीं |
कलाकार को जबरदस्ती आदेश देने कि क्षमता भला किसमें है ?
हमारा राष्ट्र, निर्माण की पहली सीढियों पर है | ऐसे क्षण में लेखक-समाज
द्वारा समय और शक्ति का अपव्यय दो तरह आजकल हो रहा है – १. नई पीढ़ी के उदीयमान
साहित्यकार मुक्तक काव्य की झड़ी लगाए जा रहें हैं, मानो उन्होने छायावादी
परम्पराओं को रीतिकालीन सवैयों की परिपाटी की भांति सांचे ढलने वाली मशीन बना देने
का व्रत लिया हो | नाटक का क्षेत्र है वीरान, लेकिन उधर कौन नज़र डाले ? २. जो
नाटककार हैं, वे प्रायः शून्य में सेज लगाकर किसी काल्पनिक रंगमंच की प्रिया से
मिलन की तैयारियां कर रहें हैं | कुछ लोग हैं कि कोरे संवादों के चमत्कार को
नाट्यगति ( Action ) का स्थान देकर संतुष्ट हो जातें हैं, कुछ के हरेक
पात्र में एक ही व्यक्तित्व यानि लेखक का निजी व्यक्तित्व प्रतिबिंबित होता है,
कुछ का कथानक इतना सपाट होता है कि प्रथम दृश्य में ही अंतिम दृश्य की झलक मिल
जाती है और कुछ के पत्र भाषणों का तांता बंध्तें हैं, तो रुकने का नाम ही नहीं
लेते |
प्रतिभा और समय के इस अपव्यय को रोकने के लिए लेखक-समाज को सामूहिक
इच्छाशक्ति का प्रयोग करना होगा | यह सामूहिक इच्छाशक्ति साहित्यकारों की संस्थाओं
द्वारा स्वीकृत और शासन द्वारा आर्थिक सहायता प्राप्त योजनाओं के रूप में प्रकट की
जा सकती है | इन योजनाओं में श्रेष्ठ नाटकों पर पुरस्कार, नाटकों के अभिनीत करने
का प्रबंध, उदीयमान नाटककारों को आर्थिक सहायता, इन सबका विधान तो होगा ही, पर
इनके साथ ही साथ नाटक –लेखन की कला के नियमों का संकलन और नाटककारों के लिए
शिक्षा-केन्द्रों का आयोजन भी होगा |
मेरे भावुक साहित्यकार मित्र चौंके नहीं | मैं कला को बंधनविवस और
साहित्यिक नेताओ से आक्रांत दासी का रूप देने कि तदवीर नहीं कर रहा हूँ | लेकिन
कोई मुझे बतावे कि कौन सी उत्कृष्ट कला नियमबद्ध नहीं और किस कला के साधकों को अध्ययन
और अव्यवसाय के बिना कोरी भवप्रवणता के आधार पर सफलता मिली है ? काव्य-प्रणयन में
हाथ लगाने के पूर्व कवि छंद-शास्त्र, अलंकार और पूर्ववर्ती कवियों का थोडा-बहुत
अध्ययन करता है | समस्त प्राचीन नाट्य-साहित्य इसका साक्षी है ; किन्तु हिंदी में
नाटककारों के पथ-प्रदर्शन के लिए कोई उपयुक्त रीतिग्रंथ ही नहीं है | प्राचीन
संस्कृत नाट्यशास्त्र का अध्ययन करने का हमलोग कष्ट नहीं उठाते और यह भी ठीक है कि
वर्तमान परिस्थिति में, उसी परंपरा के रंगमंच के अभाव में प्राचीन संस्कृत
नाट्यशास्त्र को बिना कतर-व्योंत किये हम ज्यों-का-त्यों अपना भी नहीं सकते |
अधिकतर लेखक आधुनिक पाश्चात्य नाटककारों इब्सन, गल्सवार्दी, शा इत्यादि से
प्रभावित होकर ही कलम उठातें हैं | लेकिन इन पाश्चात्य नाटककारों के पीछे
अविच्छिन्न नाट्य-साहित्य की परंपरा है, जिसका उद्गम है प्राचीन यूनानी नाटक | साथ
ही उन्हें प्राचीन, मध्यकालीन और आधुनिक शास्त्रकारों और साहित्य-नियामकों की
धरोहर उपलब्ध है | पाश्चात्य नाटककार प्रायः थ्री यूनिटीज़, ट्रेजडी के द्वंदात्मक
आधार, चारित्रिक उत्थान, कथानक में चरम विन्दु का समावेश आदि सिद्धांतों से परिचित
होतें हैं | अरस्तु, बेनजान्सन, गेटे, ब्रेडले और कतिपय आधुनिक समालोचकों से नाट्यकला
के विषय में जो सिद्धांत प्रतिपादित किये हैं, वे उदियमान पाश्चात्य नाटककार के
लिए एक मानसिक पृष्ठभूमि का काम देतें हैं | यदि मैं कहूँ कि कुछ ऐसी ही मानसिक
पृष्ठभूमि की हमारे यहाँ भी आवश्यकता है, तो इसे सृजनात्मक प्रवृति पर शास्त्रीय
बंधन लगाने की चेष्टा न समझा जाय |
जैसे हमारे रंगमंच को बहुमुखी होना है, एक शैली में ही सीमित नहीं रहना है,
वैसे ही हमारा नाट्य-साहित्य भिन्न-भिन्न सामाजिक आवश्यकताओं और चेतनाओं का
परिचायक होगा, उसकी भी शैली बहुमुखी होगी | तदनुसार ही वह मानसिक पृष्ठभूमि, वह
नियमों और विधियों का संकेत जिसका ऊपर उल्लेख किया गया है, विविध प्रकार के
सिधान्तों का प्रतिविम्ब होगी | जो इन सिधान्तों, नियमों और विधियों का संकलन और
संपादन करे, उन्हें अपनी दृष्टि रंगमंच की भावी रूप-रेखा पर रखनी है |
उदाहरणतः नागरिक रंगमंच के लिए नाटकों में काव्यात्मक शैली द्वारा रसपरिपाक
– यह परंपरा संस्कृत नाटकों से ली जा सकती है | वस्तुतः प्राचीन नाटक दृश्यकाव्य
था, यानि दर्शकों के लिए वह कविता का अभिनय द्वारा निरूपण था, जीवन का दर्पणतुल्य प्रदर्शन
नहीं | आज के व्यावसायिक रंगमंच पर भी ऐसे ही नाटक शायद अधिक सफल हो सकें | उस
शैली को आधुनिक प्रतीकवादी नाटककार मेटरलिंक, जेम्स्बेरी, लेडी ग्रेगरी इत्यादि के
वातावरण-प्रधान नाटकों से बहुत कुछ मिल सकता है | देहाती रंगमंच के लिए जो नाटक
लिखे जायं, उनमें भी प्राचीन संस्कृत और यूनानी नाटकों से कुछ पद्धतियाँ समाविष्ट
कि जा सकती है, यथा-सूत्रधार और विश्कम्भक को यूनानी कोरस की पद्धति में ढालकर एक
नवीन प्रकार के रंग्नायक कि श्रृष्टि कि जा सकती है, जो यवनिका और पर्दों के बिना
ही नाटक की पृष्ठभूमि और भिन्न अंकों का एक दूसरे से सम्बन्ध स्थापित का सके, साथ
ही उस सूत्रधार के कथनों में भी नाटक की काव्य शैली और गीतों का समावेश हो |
यथार्थवादी रंगमंच का नाट्य-साहित्य मुख्यतः समस्यामूलक और आधुनिक विचारधारा और
संघर्षपूर्ण व्यक्तित्व का परिचायक होगा | किन्तु साथ ही सिनेमा की प्रभाववादी
शैली और रेडियो-रूपक की संकेत्वादिता दोनों ही का यथार्थवादी नाट्य-साहित्य पर
स्थाई प्रभाव पड़ेगा |
इस प्रकार उदीयमान रंगमंच की विभिन्न शाखाओं की मांगों को दृष्टिकोण में
रखते हुए नाट्य-लेखन-कला के कुछ बुनियादी नियमों का संकलन और प्रतिपादन लेखकों के
लिए उपादेय सिद्ध होगा | यह न समझा जय कि मैं नाट्य साहित्य के पूर्व रुढियों की
स्थापना कराना चाहता हूँ | इन नियमों की आवश्यकता संकेत के तौर पर है और
ज्यों-ज्यों नाट्य-साहित्य की समृधि और विकास होते जायेंगें त्यों-त्यों इन
सिधान्तों में भी परिवर्तन और उनका परिमार्जन होता चलेगा | नियमों को मैं मात्र
प्रयोजन के रूप में देखता हूँ, अचल मान्यताओं के रूप में नहीं | प्रतिभा को जब
नियमों के प्रकाश द्वारा प्रगति की राह मिल जायेगी, तब वह अपने में अन्तर्निहित
ज्योति को उकसाकर अपने-आप ही मार्ग-निर्देशन कर लेगी | लेकिन अभी तो अंधे की भांति
टटोलना पड़ रहा है | साहित्य के इस महत्वपूर्ण अंग की रूप-रेखा, जिसमें कविता की
भांति केवल भावोदेक ही सृजन का कारण नहीं हो सकता, हिंदी में स्थापित नहीं हो पाई
है | संस्कृत नाटक की परम्परा लुप्त हो गईं | इसलिए यदि ऐसे निर्देशन का विधान
नहीं किया जायेगा, तो यही नहीं होगा कि इने-गिने नाटककार अपनी-अपनी डफली अपना-अपना
राग लेकर बैठ जायेंगें , बल्कि नवयुवक साहित्यकार इस अनजाने-से पथ पर अग्रसर भी न
होंगें | इसलिए मैं तो यहाँ तक कहने के लिए तैयार हूँ कि इस उपेक्षित अंग को
संपन्न बनाने के लिए हमारी प्रमुख साहित्यिक संस्थाओं और विश्वविधालयों को
नाट्य-कला के शिक्षाकेन्द्र चलने चाहिए | अमेरिका में तो कुछ विश्वविधालयों में
पाकशास्त्र की भी डिग्री होती है, नाट्यकला का स्थान तो इससे कहीं ऊँचा है, और
भारतीय शास्त्रों में चौंसठ कलाओं की प्रमुख श्रेणी में इसकी गिनती है | यदि कोई
विश्वविधालय नाट्यकला में बी. ए. ( कला स्नातक ) की डिग्री की व्यवस्था करे, तो
इससे बढ़कर उपाधि कला के क्षेत्र में क्या हो सकेगी ?
ऊपर लिखे विचारों में रंगमंच और नाट्यकला की ही सीमित आवश्यकताओं का आग्रह
देख पड़ेगा और शायद कुछ पाठक मुझे याद दिलाना चाहें कि रंगमंच और नाटक, समाज की
प्रगति और प्रवृत्ति पर निर्भर रहते हैं | मैं इस पहलू से अवगत हूँ और एक नूतन योजना
की ओर संकेत करने का साहस भी मुझे इसीलिए हुआ है कि भारतीय समाज, विशेषतः हिंदी
भाषी समाज, सदियों बाद पुनः सामूहिक मनोविनोद को सुसंस्कृत और गंभीर कला के रूप
में ग्रहण करने के लिए प्रस्तुत है | सामूहिक मनोरंजन का सबसे कलापूर्ण,
सुरुचिसम्पन्न और स्थायी रूप है रंगमंच | हमारा समाज अपने भिन्न भिन्न स्टारों में
मनोरंजन को इस सुव्यवस्थित रूप में देखना चाहता है | राजनैतिक स्वताब्त्रता और
सामाजिक चेतना दोनों ने हमें अपनी सांस्कृतिक इच्छाओं से अवगत करा दिया है | ये
इच्छाएं एक उन्मुक्त व्यक्तित्व का उठान हैं, वे किसी कुंठित व्यक्तित्व की अपने
से बचने की चेष्टाएं नहीं | साथ ही अपनी परम्पराओं और उपेक्षित सांस्कृतिक साधनों
के प्रति सचेष्ट जागरूकता भी स्पष्ट होती जा रही है | भरत-नाट्यम, मणिपुरी नृत्य,
संथाली नृत्य, नौटंकी, सिनेमाओं में प्राचीन ऐतिहासिक और पौराणिक कथानक, देहाती
तर्जों के गीत, सभी को जन रूचि के क्षेत्र में महत्वपूर्न्महत्वपूर्ण स्थान मिल
रहा है, और ये सभी रंगमंच के सुव्यवस्थित माध्यम कि राह देख रहे हैं |
इसीलिए हम रंगमंच के चाहे जो वर्गीकरण करें और नाट्य साहित्य के मार्ग
निर्धारित करने के लिए चाहे जिन नियमों का प्रतिपादन करें, इन वर्गों और नियमों को
सामाजिक परिस्थितियों और जनता की रूचि का अनुमोदन करना ही होगा | मेरी दृष्टि में
निकट भविष्य का हिंदी रंगमंच और नाते साहित्य प्रायः तीन प्रमुख शैलियों में
अवतरित होगा और हो रहा है | लेकिन सामाजिक और आर्थिक परिस्थितियाँ एवं प्रेरणाएं
परिवर्तनशील हैं, और सृजनशक्ति का मूलश्रोत चिरंतन से प्रवाहशील है | कौन योजनाकार
इस अबाध प्रगति को नियमों की चहारदीवारी में बाँध सकता है |
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