रंगमंच तथा विभिन्न कला माध्यमों पर केंद्रित सांस्कृतिक दल "दस्तक" की ब्लॉग पत्रिका.

गुरुवार, 26 अप्रैल 2012

बेगूसराय का वर्तमान रंगमंच


वर्तमान में बिहार का शहर बेगुसराय की रंगमंचीय गतिविधियां एक सुखद अनुभूति देतीं हैं | दैनिक जागरण में प्रकाशित निर्भय की यह पड़ताल हम साभार प्रस्तुत कर रहें हैं | - माडरेटर मंडली |
बिहार की सांस्कृतिक राजधानी बेगूसराय में बीते कुछेक वर्षो से रंगमंच पर उदासी का चादर पसरा हुआ था। परंतु, वर्ष 2012 के आगमन के संग ही यहां के रंगमंच पर 'भोर की किरणें' प्रस्फुटित हो उठी। दिनकर भवन में आयोजित 'रंग-ए-माहौल' (3 से 7 जनवरी) से जो 'माहौल' बना, उससे यहां की रंग गतिविधि एकाएक 'इंद्रधनुषी' हो उठी। रंग-ए-माहौल के पांच दिनों में सात नाटकों की प्रस्तुति बाद बेगूसराय के रंगमंच ने एक तरह से नई करवट ले ली।
मई में लगेगा मेला! न केवल रंगमंच पर, बल्कि नुक्कड़ पर भी गतिविधि दिख रही है। मई में (1 व 2 मई) दो दिवसीय नुक्कड़ नाट्य समारोह जन संस्कृति मंच की ओर से आयोजित किए गए हैं। जिसमें राज्य की कई नाट्य टीमें शिरकत करेगी। उक्त समारोह में वर्षो बाद मशहूर रंगकर्मी अनिल पतंग एकल अभिनय ('आज का अभिमन्यू') में दिखेंगे।
वहीं, मई में ही नाट्य विद्यालय, बाघा, बेगूसराय की ओर से रंग महोत्सव आयोजित है। उक्त महोत्सव नाटक की पत्रिका 'रंग अभियान' की रजत अंक के विमोचन-लोकार्पण पर आयोजित किया गया है। यहां पर यह बताते चलें कि, बेगूसराय में नाट्य विद्यालय वर्ष 1992 से गतिविधि में है। जबकि, 'रंग अभियान' रंगमंच की दुनिया में न केवल बेगूसराय, बल्कि बिहार की पहचान बन चुकी है।
'बिदेसिया' से लेकर 'पॉल गोमरा का स्कूटर' तक खैर, बिहार दिवस के अवसर पर आयोजित 'शताब्दी नाट्य महोत्सव बेगूसराय' ने भी रंगमंच पर एक जोरदार दस्तक दी। उक्त महोत्सव में प्रवीण गूंजन के निर्देशन में द फैक्ट आर्ट एंड कल्चरल सोसाइटी, बेगूसराय की ओर से 'समझौता,' उत्पल झा के निर्देशन में पंचकोशी, सहरसा द्वारा 'पॉल गोमरा का स्कूटर,' परवेज अख्तर के निर्देशन में नटमंडप, पटना की ओर से 'बाघिन मेरी साथिन' व माडर्न थियेटर फाउन्डेशन, बेगूसराय की ओर से परवेज यूसुफ के निर्देशन में 'बिदेसिया' का मंचन किया गया।
'रोमियो जुलियट और अंधेरा' से नई बहस की शुरुआत इधर, अप्रैल में द फैक्ट आर्ट एंड कल्चरल सोसाइटी, बेगूसराय की ओर से दिनकर भवन में आयोजित 'रोमियो जुलियट और अंधेरा' के मंचन ने यहां पर एक नई बहस की शुरुआत कर दी।
समीक्षक, आलोचक व जनवादी लेखक संघ के जिलाध्यक्ष डा. भगवान सिन्हा कहते हैं, बेगूसराय में रंगमंच को महानगरीय परिपाटी से मुक्त होना पड़ेगा। यहां के रंग निर्देशकों को कस्बाई दर्शकों को ध्यान में रखना पड़ेगा। जो 'रोमियो जुलियट और अंधेरा' में देखने को मिला। परंतु, यह नाटक कुछ लंबा खिंचा और बाजार के दबाव से मुक्त नहीं हो पाया। इसलिए जहां भय, विषाद दिखना चाहिए था, वहां उत्सवी माहौल दिखा।
तकनीक, डिजाइन व दर्शक को लेकर सवाल! यहां के रंगमंच पर तकनीक के बढ़ते दबाव को लेकर अनिल पतंग, प्रदीप बिहारी भी चिंता का इजहार करते हैं। साथ ही यह भी कहते हैं कि, रंगमंच की स्थिति उत्साहव‌र्द्धक है। कुछ ऐसी ही बात रंग निर्देशक दीपक सिन्हा भी कहते हैं। बकौल दीपक सिन्हा- वर्तमान रंगमंच सक्रिय है। परंतु, डिजाइन व तकनीक के कारण दर्शकों से दूरी बढ़ी है। इस ओर ध्यान देने की जरूरत है। वहीं, कवि कुंवर कन्हैया का कहना है कि, सरकारी पैसे से जो रंगमंच हो रहा है, वह असली नहीं है। वहीं, भिखारी ठाकुर सम्मान से सम्मानित रंग निर्देशक प्रवीण गुंजन कहते हैं- बेगूसराय के रंगमंच की परंपरा समृद्ध रही है। वर्तमान भी सुंदर है। हां, रंग ग्रुपों की संख्या, सक्रियता घटी है। जो चिंता की बात है। परंतु, रंगमंच पर हलचल है। जो सकुन तो देती ही है।

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