रंगमंच तथा विभिन्न कला माध्यमों पर केंद्रित सांस्कृतिक दल "दस्तक" की ब्लॉग पत्रिका.

सोमवार, 15 अप्रैल 2013

समकालीन रंगमंच का आगामी अंक

आवरण - असीम त्रिवेदी 

समकालीन रंगमंच का आगामी अंक "सांस्कृतिक नीति क्यों नहीं" विषय पर केन्द्रित है। आज का रंग-परिदृश्य अजीब किस्म की विडम्बनाओं एवं विरोधाभासों का शिकार है जहाँ एक तरफ हम देखते हैं कि महानगरों से लेकर छोटे शहरों-कस्बों तक सरकारी-गैरसरकारी रंग-महोत्सवों की धूम है और करोड़ों करोड़ खर्च करके नाटक आयोजित हो रहे हैं, वही दूसरी तरफ देश भर में फैला हुआ रंगमंच तमाम तरह की बुनियादी सुविधाओं एवं संसाधनों से महरूम है। देश में संस्कृति और रंगमंच के विकास के लिए स्थापित किये गए हमारे संस्थान आज हर वर्ष लम्बी-चौड़ी योजनाओं के क्रियान्वयन के नाम पर अकूत धन खर्च कर रहे हैं पर एक रंगकर्मी को रंगकर्म करने के लिए कहीं कोई सहूलियत हासिल नहीं है। रंग मंडलियों के पास न तो रिहर्सल के लिए कोई जगह है, न मंचन के लिए प्रेक्षागृह। न तो हमारे युवा रंगकर्मियों के प्रशिक्षण की कोई व्यवस्था है और जो दस-बीस रंगकर्मी राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय जैसे संस्थान से प्रशिक्षण प्राप्त करते भी हैं तो रंगमंच में उनके लिए टिकने का कोई इंतज़ाम नहीं है। हमारे भारत जैसे देश में, जहाँ निरक्षरता, कुपोषण, बाल-मजदूरी, बाल यौन-शोषण, कन्या-भ्रूण-हत्या, स्त्रियों के ऊपर हिंसा और बर्बरता जैसी समस्याएँ विकराल स्वरुप धारण कर चुकी हैं वहां के रंगमंच तथा उसके प्रशिक्षण का आधार क्या हो, प्रदर्शनों में कितने संसाधन खर्च किये जाएँ इसको लेकर गंभीरता से सोचने की ज़रुरत है। सरकार प्रत्येक वर्ष रंगकर्म के क्षेत्र में काम करने वाले प्रतिभावान रंगकर्मियों को स्कॉलरशिप, फेलोशिप और पुरस्कार देती है, विभिन्न नाट्य मंडलियों को नाटकों के मंचन, उत्सवों के आयोजन एवं उनकी व्यावसायिक टोलियों (रेपर्टरीज़) के लिए सीमित-असीमित अनुदान भी देती है पर इस तरह लाभान्वित हो रहे रंगकर्मियों एवं नाट्य दलों की योग्यता का आधार क्या है इस सम्बन्ध में कोई दिशा-निर्देश या नीति तक मौजूद नहीं। इन सरकारी अनुदानों का ज़्यादातर हिस्सा उन रंगकर्मियों तक नहीं पहुँच पा रहा जिन्हें वास्तव में इनकी ज़रुरत होती है। अगर हम सरसरी तौर पर भी देखें तो यह समझने में कोई मुश्किल नहीं आती कि लाभान्वितों की इस सूची में हर बार एक से नाम ही मौजूद रहा करते हैं। इस तरह के विरोधाभासों को देख कर क्या ऐसा नहीं लगता कि अपने देश में भी एक ऐसी समेकित सांस्कृतिक नीति का होना अत्यंत आवश्यक है जो संसाधनों एवं सुविधाओं तक देश के सभी निवासियों की सामान रूप से पहुँच सुनिश्चित करें? क्या इस सम्बन्ध में कोई स्पष्ट नीति नहीं होनी चाहिए कि सरकार द्वारा प्रायोजित नाट्य-उत्सवों में किस प्रकार के नाटकों को अवसर दिया जाना चाहिए? क्या संस्कृति और रंगमंच के उत्सवों में शामिल होने का हक देश के उन लोगों को नहीं है जो सुदूर गाँवों-कस्बों में रहते हैं? क्या उनकी रोज़मर्रा की समस्याओं पर केन्द्रित नाटक हमारे राष्ट्रीय समारोहों का हिस्सा नहीं बन सकते? सवाल कई हैं और अक्सर हम इन सवालों से कन्नी काट कर निकल जाने के आदी होते जा रहे हैं। क्या अभी वक़्त नहीं आया है कि हम इन गंभीर मुद्दों पर रुक कर थोडा विमर्श करें? इस विषय पर हमारे दौर के प्रमुख रंगकर्मियों-संस्कृतिकर्मियों जैसे- प्रसन्ना, बंसी कौल, रामगोपाल बजाज, बापी बोस, एम. के. रैना, वामन केंद्रे, राजेश कुमार, अरुण पाण्डेय, अशोक वाजपयी, अनिल रंजन भौमिक, रामजी राय, अनिल चमड़िया आदि का क्या सोचना है? क्या वे एक राष्ट्रीय सांस्कृतिक नीति की ज़रुरत को महसूस करते हैं या यथास्थिति के पक्ष में हैं? आइये समकालीन रंगमंच के नए अंक में इस महत्वपूर्ण विषय पर हुई बातचीत का हिस्सा बनें और एक बदलाव की दिशा में एकजुट हों।
- राजेश चन्द्र संपादक एवं प्रकाशक, समकालीन रंगमंच, दिल्ली।

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