रंगमंच तथा विभिन्न कला माध्यमों पर केंद्रित सांस्कृतिक दल "दस्तक" की ब्लॉग पत्रिका.

शनिवार, 27 अप्रैल 2013

मैंने सिर्फ नाम के लिए काम नहीं किया. - दिनेश ठाकुर


सुप्रसिद्ध रंगकर्मी, ‘अंक’ रंग संस्था के संस्थापक दिनेश ठाकुर से डॉ० कुसुमलता मलिक की बातचीत का संक्षिप्त अंश. विस्तृत साक्षात्कार दिनेश ठाकुर के निधन से ठीक 6 महीने पहले मुंबई में उनके आवास पर लिया गया था। इस साक्षात्कार में दिनेश ठाकुर ने हिंदी रंगमंच के समकालीन मुद्दों पर उसी बेबाकी से अपनी राय रखी है जिसके लिए वे जाने जाते हैं. पूरा साक्षात्कार पढ़ें समकालीन रंगमंच के शीघ्र प्रकाश्य अप्रैल-जून अंक में।



डॉ० कुसुमलता- क्या आपने कभी सिर्फ नाम के लिए काम किया है? प्रश्न बहुत तीखा है लेकिन मैंने थियेटर में लोगों को ऐसा करते देखा है। लोग अधिकांशत प्रसिद्ध कृतियों के अनुवाद खेलते हैं। विख्यात जीवित लोगों से जुड़ने के लिए उनकी कृतियों के नाट्य रूपांतर करते हैं और खेलते हैं। इसी तरह की जुगाड़बन्दी, नाम पाने के लिए जुगत बैठाने की कोशिश लोग करते हैं। क्या आपने कभी ऐसी कोई कोशिश की है?

दिनेश ठाकुर- डॉ० साहब! मैं बहुत ईमानदारी और विश्वास के साथ यह बताना चाहता हूं कि मैंने अपने थियेटर के इन 40-42 वर्षों में कभी कोई ऐसी कोशिश नहीं की जो मेरे सिद्धांतों के विपरीत हो। मेरे जीवन का उद्देश्य सिर्फ नाटक खेलना रहा है। उसमें नाम भी मिल जाए तो कोई बुरी बात नहीं पर मैंने सिर्फ नाम के लिए काम नहीं किया। मैंने क्लासिक भी उठाए पर सिर्फ काम के लिए नाम के लिए नहीं।

डॉ० कुसुमलता- ठाकुर साहब! हिन्दी की रंग समीक्षा बहुत पिछड़ी है। ज्मगज की आलोचना तो फिर भी कुछ मिल जाती है पर ज्मगज पर आधारित किए गए प्रदर्शनों की रंग समीक्षा अधिकांशत नहीं होती, कुछेक के सिर्फ ब्यौरे भर अखबारों में छप जाते हैं। इससे हिन्दी रंग चिन्तन में एक वैक्यूम (शून्य) नजर आता है। इससे रंगकर्म के स्वास्थ्य पर कितना असर पड़ता है?

दिनेश ठाकुर- देखिए डॉ० साहब! जो आप कह रही हैं वह तो यथार्थ है उससे इंकार नहीं किया जा सकता। यदि हमारे खेले गए नाटकों की निरंतर समीक्षा होती रहे तो हमें सहूलियत ही होगी। पर ऐसा होता नहीं है। ब्यौरे ही बड़ी मुश्किल से छपते हैं। हर प्रदर्शन के तो ब्यौरे भी नहीं छपते। खैर! लोगों ने ‘आधे-अधूरे’ को भाषा की दृष्टि से किया। ‘घासीराम कोतवाल’ को राजनीतिक चेतना की दृष्टि से किया। पर उन्हें अपनी समीक्षायें भी खुद ही करनी पड़ीं। मैं तो इस ओर ज्यादा ध्यान ही नहीं देता। हमने अपना काम चुन लिया है। हमारा काम है थियेटर करना बाकी समीक्षक-दर्शक जानें।

डॉ० कुसुमलता- ठाकुर साहब इसी के साथ एक और प्रश्न उभरता है मंच का। यानि प्रोसिनियम थियेटर का। संस्कृत नाट्यकाल में नाटक दरबारों में हुआ करते थे यानि एक खास किस्म की दरबारी मानसिकता, एक खास वर्ग, एक खास विषय और थियेटर का एक खास तरीका। धीरे-धीरे नाटक लोक की ओर बढ़ा, संस्कृत से प्राकृत और प्राकृत से अन्य लोक भाषाओं में। मध्यकाल तक आते-आते बहुत से लोक नाट्य रूप पुनः जीवित हो उठे। इसके अन्य कई और ऐतिहासिक कारण भी रहे हैं, उनमें मैं नहीं जाऊंगी। यह पृष्ठभूमि मैं इसलिए उद्धृत कर रही हूं चूंकि मुझे आज भी ऐसा अनुभव होता है कि लोकनाट्य रूपों की क्रांतिकारी रंग चेतना के प्रसार एवं प्रभाव को देखने के बावजूद हिन्दी के रंगकर्मी उस पुरानी दरबारी, खास (टाइप्ड) मानसिकता से बाहर नहीं निकल सके हैं-विशेष रूप से निर्देशक। हमारी परम्परा में रंगमंच रचा जाता था। आज मंच पर यथार्थवादी थियेटर का प्रभाव इतना ज्यादा है कि बने-बनाये सेट पर नाटक दिखाया जाता है। इससे तीन सवाल उभरते हैं पहला-मंच मुक्ति का, दूसरा-नाटक के यथार्थवादी स्वरूप का और तीसरा-अभिनय के स्वरूप का।

दिनेश ठाकुर- आप थोड़ा और खोलकर समझाइये तो मैं कुछ कहूं।

डॉ० कुसुमलता- मंच मुक्ति से तात्पर्य है कि नाटक गांव-कस्बों तक पहुंचे जहां बंद प्रेक्षागृह नहीं होते वहां भी अस्थायी मंच रच कर अथवा बिना मंच के नाटक अपनी उपस्थिति दर्ज करा सके। आपने बंद प्रेक्षागृह वाले मंच की अवधारणा को कितना तोड़ा है? यथार्थवादी स्वरूप से मतलब उस खास रियलिस्टिक फाॅर्म से है जो मंच पर हूबहू भौतिक सामग्री को दिखा कर जीवन को उसके बीच दिखाना चाहता है। क्या आप ऐसे थियेटर को पसंद करते हैं? या परम्पराशील रचनात्मक थियेटर के हामी हैं? तीसरा अभिनय के स्वरूप से मेरा तात्पर्य था कि अभिनय कला कहीं-न-कहीं आंतरिक रूप से संकुचित हो रही है। उपर्युक्त दोनों स्थितियों में अभिनेता को अपने आंगिक अभिनय कौशल से सामग्री का सृजन नहीं करना पड़ता। अपने भाव-भंगिमाओं एवं मुद्राओं से वातावरण का सृजन नहीं करना पड़ता। अतः उसकी कला कहीं-न-कहीं सीमित हो जाती है, संकुचित हो जाती है। आप अभिनय के किस स्वरूप को श्रेष्ठ समझते हैं?

दिनेश ठाकुर- देखिए! प्रोसिनियम थियेटर से मुझे कोई आपत्ति नहीं है पर हम लोग ऐसी बहुत-सी जगहों पर नाटक करते रहे हैं जहां मंच के बगैर हमें नाटक करना होता है। काॅलेजों के क्लास रूम, अस्पताल, होटल, मैदान, रेस्तरां ऐसी बहुत-सी जगहों पर हम लोग नाटक करते रहे हैं। इसलिए जरूरत के हिसाब से मंच के प्रोसिनियम थियेटर वाली अवधारणा स्वयं टूट जाती है। दूसरी बात, यथार्थवादी फाॅर्म के नाटक भी हों। मुझे कोई आपत्ति नहीं। आपत्ति वहां होती है जहां लोग सब कुछ हूबहू दिखाने पर उतारू हो जाते हैं। आपको यदि सभी-कुछ दिखाना है तो फिल्म कीजिए, थियेटर क्यों करते हैं। थियेटर में अभिनय के रचने के लिए जगह रहनी चाहिए। अभिनय वही वास्तविक अभिनय होता है जो निरंतर कुछ नया करता चले। इसलिए जब हम एक ही नाटक को कई-कई बार करते हैं तो पहले शो से लेकर 20-25 शो तक नाटक का हर शो पहले किए गए शो से कुछ अर्थों में अलग होता है। यह सब अभिनय का ही कमाल है।

डॉ० कुसुमलता- ठाकुर साहब! अब बात सीधी पटरी पर आ गयी है यानि रफ्तार पकड़ चुकी है। कुछ निर्देशक मानते हैं रंगकर्म एक खचीर्ली विधा है, उसके व्यय को वहन करना असम्भव है, इसलिए नाटक पिछड़ा हुआ है। कुछ निर्देशक ऐसे भी हैं जो नाटक को उतनी खर्चीली विधा तो नहीं मानते पर यह जरूर मानते हैं कि नाटक बिना संसाधनों के नहीं चल सकता। उसके दूसरे बैरियर्स हटा दिए जाने चाहिए जो सुरक्षा अधिनियम के अन्तर्गत उस पर लगाए जाते हैं। उदाहरण के लिए-नाटक के प्रदर्शन की अनुमति लेना, पुलिस थाने में स्क्रिप्ट भेजना इत्यादि। अब शो होगा तो उसके लिए दर्शक जुटाना भी एक समस्या है। नाटक के प्रचार के लिए पोस्टर, पैम्फ्लेट्स, ब्राॅशर्स इत्यादि का खर्चा होता है तो कुल मिलाकर आप क्या निष्कर्ष निकालते हैं कि नाटक लाखों-करोड़ों रुपयों का खेल है या फिर ठीक-ठाक रोजी रोटी की विधा।

दिनेश ठाकुर- अभी मैंने सुना दिल्ली में भानु भारती जी ने करोड़ों रुपयों में ‘अंधायुग’ का प्रदर्शन किया। यह भी सुना कि कलाकार रिहर्सल करने के लिए हवाई जहाज से मुम्बई आए थे। देखिए कोई खर्च कर रहा है इसमें दिक्कत यह है कि हम काम करने के सही तरीके को भूल जाते हैं। एक भानु भारती को पैसा मिल गया उन्होंने नाटक भी कर दिया। मैं यह नहीं कहता कि खराब किया होगा, अच्छा ही किया होगा मुझे उससे कोई शिकायत नहीं। शिकायत की बात यह है कि सैकड़ों नाट्य समूह हैं जो अच्छे नाटक करना चाहते हैं। कुछ अच्छे नाटक कर भी रहे हैं पर अच्छा नाटक किए जाने की जो करोड़ों रुपयों वाली परम्परा डाली जा रही है वह किसी भी दृष्टि से मुझे उचित प्रतीत नहीं होती। मैं ऐसे नाटक को ठीक नहीं समझता जिसका व्यय करोड़ों रुपए हों। कहां से इतना पैसा आए और कैसी परम्परा आगे बढ़ेगी? मेरी निगाह में नाटक खूब हों, कम-से-कम खर्च में हों, पर अधिक-से-अधिक रंगकर्म करने वालों को लाभ पहुंचे।

डॉ० कुसुमलता- ठाकुर साहब! हमारे देश की कोई स्पष्ट सांस्कृतिक नीति नहीं है। लोकतंत्र है, अभिव्यक्ति की पूर्ण स्वतंत्रता है पर सांस्कृतिक नीति के अभाव में क्या थियेटर जैसी सामूहिक कला फल-फूल सकती है? जो किसी हद तक रोटी नहीं दे पाती। कोई आदमी यदि उम्र भर थियेटर करना चाहे जैसे कि आपने किया तो उसके क्या रास्ते हैं? उसे थियेटर से रोटी और नजरिया दोनों पैदा करना है वह यह कैसे कर सकता है?

दिनेश ठाकुर- कुसुमलता जी! जहां तक मेरी बात है मेरे लिए नजरिया तो बहुत बड़ी बात रहा है पर रोटी उतनी बड़ी बात नहीं रही। आप एक मुट्ठी चने पर भी बसर कर सकते हैं और 56 प्रकार के भोजन पर भी। अगर मुझे रोटी नहीं मिली तो मैं भूखा भी सोया हूं पर अपने नजरिए को नहीं भूला। इसलिए जीवन के लिए नजरिया बड़ी बात है। किसी भी साधना में दुःख सहना पड़ता है। दुख सहे बगैर नजरिया नहीं बनता पर रोटी बन जाती है।

डॉ० कुसुमलता- आज हम तमाम तरह के शोर के बीच जी रहे हैं। लोग मनुष्यता की बात करते हैं पर उनमें स्वयं मनुष्यता नहीं मिलती। प्रेम चाहते हैं दूसरों से, पर स्वयं दूसरों को देना नहीं चाहते। थियेटर के माध्यम से आप जिन जीवन मूल्यों को समाज में बढ़ाना चाहते हैं उन पर कैसे काम करते हैं? क्या काम सबसे पहले स्क्रिप्ट से आरम्भ होता है?

दिनेश ठाकुर- देखिए! दुनिया में बहुत कुछ हो रहा है पर मुझे ज्यादा फर्क इस बात से पड़ता है कि मुझमें क्या हो रहा है। मेरे जीवन-मूल्य व्यक्ति से समाज की ओर जाते हैं। व्यक्ति समाज की एक सजीव, क्रियाशील, चिन्तनशील, संवेदनशील इकाई है। यदि वह स्वस्थ मानसिकता से परिपूर्ण है तो समाज में उसी का विस्तार होगा। हम उन्हीं व्यक्तियों को पूजनीय मानते हैं जिन्होंने अपने व्यक्तित्व के माध्यम से समाज को आदर्श दिए। इसलिए मेरा बल भी व्यक्ति पर अधिक रहता है। यानि कुल मिलाकर मुझमें यदि कुछ आदर्श हैं तो मैं अपने नाट्य-समूह में भी कुछ आदर्श रखूंगा। जाहिर-सी बात है मेरे द्वारा प्रदर्शित नाटकों में भी कुछ आदर्श होंगे और जो दर्शक देख रहा है, निरंतर मेरे प्रदर्शनों को परख रहा है वह भी मुझसे कुछ आदर्शों की अपेक्षा रखेगा। इसलिए मेरी दृष्टि में व्यक्ति से समाज बनता है।

डॉ० कुसुमलता- तो क्या समाज का व्यक्ति पर कोई प्रभाव नहीं पड़ता?

दिनेश ठाकुर- पड़ता है। नकारात्मक और सकारात्मक दोनों तरह का प्रभाव पड़ता है पर व्यक्ति अपने नजरिए से ऊपर उठ सकता है।

डॉ० कुसुमलता- ठाकुर साहब! आठवें दशक में नाटक की घेरेबंदी का एक दौर सामने आया था। नाटक जैसी अनुष्ठानमूलक सामूहिक कला में भी रंगमंच की घेरेबन्दी के चलते चैकीदारी का ही नहीं बल्कि अलम्बरदारी का प्रश्न मुख्य हो गया था। निर्देशकों का कहना था कि हमें नाटककार की जरूरत नहीं। हम किसी भी थीम पर नाटक तैयार कर सकते हैं। रंगमंच का सूत्र हमारे अपने हाथ में है। अभिनेताओं का मानना यह था कि रंगमंच पर आखिरकार काम तो हमें ही करना होता है। इसलिए हमारा सूत्र किसी दूसरे के हाथ में क्यों हो? हम किसी थीम पर नाटक तैयार भी कर सकते हैं, उसे निर्देशित भी कर सकते हैं और अभिनीत भी कर सकते हैं। इसलिए आखिरकार रंगमंच अभिनेता का ही होता है। आपकी इस विषय में क्या राय है?

दिनेश ठाकुर- देखिए कुसुमलता जी! बहसें बहुत होती हैं। इसी तरह प्रयोग भी बहुत होते हैं। सवाल यह है कि इन बहसों या प्रयोगों से निकला क्या? आप तब लडि़ए जब लड़ना सिर्फ जीत हासिल करने के लिए नहीं बल्कि किन्हीं जीवन मूल्यों के लिए जरूरी हो। इन झगड़े-टंटों से रंगमंच को आखिरकार कुछ भी तो सार तत्व नहीं मिला।

डॉ० कुसुमलता- लेकिन नाटककार अथवा रचनाकार को तो बाहर का आदमी समझा गया और इसी समझ के चलते आज तक हिन्दी में नाटककार को वह दर्जा नहीं मिल सका है और न ही वह लाभ मिल पाता है जो एक निर्देशक या अभिनेता को मिल रहा है। इसी कारण हिन्दी की मूल नाट्य रचनाओं पर काम बहुत कम होता है?

दिनेश ठाकुर- देखिए डॉ० साहब! नाटककार को बाहर का आदमी समझने वाली सोच रंगकर्म के लिए हितकारी नहीं है। स्क्रिप्ट एक आधार है जिससे रंगमंच का विकास होता है। आप थीम बनाकर जो नाटक करते हैं उनके दो-चार-छः-दस शो हो सकते हैं किन्तु सैकड़ों हजारों नहीं। जबकि मूल नाट्य रचनाओं के सैकड़ों-हजारों शो होते हैं और उसके बावजूद उनमें काम करने की संभावनाएं बची रहती हैं। इसलिए आपकी बात सही है कि नाटककार को बाहर का आदमी समझने वाली सोच किसी भी भाषा के रंगकर्म के लिए उचित नहीं।

प्रस्तुति : राजेश चन्द्र, सम्पादक, समकालीन रंगमंच.

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