दिल्ली में अच्छी
पुस्तक एवं पत्र-पत्रिकाओं के लिए विक्रय-केन्द्र न के बराबर हैं। कुछ साल पहले तक
मंडी हाउस स्थित श्रीराम सेंटर में वाणी प्रकाशन का एक पुस्तक केंद्र हुआ करता था, जहाँ हिंदी के श्रेष्ठ प्रकाशनों की पुस्तकों के अलावा पत्र-पत्रिकाएं और
नाटकों की स्क्रिप्ट भी मिल जाती थी। यह एक रहस्य ही रह गया कि पाठकों की भरपूर
आवाजाही के बावजूद यह केंद्र बंद क्यों हुआ। इसे पुस्तक संस्कृति के विरुद्ध एक
साज़िश के तौर पर क्यों नहीं देखा जाना चाहिए? आज पुस्तक
प्रेमी वांछित पुस्तकों की खोज में हलकान होते अक्सर दिखाई पड़ जाते हैं। राष्ट्रीय
नाट्य विद्यालय का पुस्तक विक्रय केंद्र इस अभाव को पाटने का एक बेहतर माध्यम हो
सकता था परन्तु प्रशासनिक उदासीनता, सरकारी ठसक, घनघोर अव्यवस्था और अपमानजनक माहौल की वजह से यह केंद्र भी लगभग मृतप्राय
है। यहाँ एक तो वांछित पुस्तकें नहीं होतीं, और अगर संयोग से
मिल भी जाती हैं तो उन्हें अधिकतम मूल्य पर खरीदना पड़ता है। एक और बात ध्यान देने
लायक है कि राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय स्वयं अधिकतम छूट लेकर पुस्तकों की खरीद करता
है और फिर उन्हीं पुस्तकों को अधिकतम मूल्य पर बेचता है।
बड़े प्रकाशकों से कम
मूल्य पर किताबें लेने को तो एक दृष्टि से उचित ठहराया जा सकता है पर
सामाजिक-सांस्कृतिक सरोकारों के कारण घाटा सह कर निकाली जाने वाली लघु पत्रिकाओं
से अगर इस एवज में 25 से 50 प्रतिशत
तक छूट मांगी जाती है कि उन्हें विक्रय पटल उपलब्ध कराया जा रहा है तो यह बात
गैर-वाजिब लगती है। राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय जैसा संस्थान केवल मुनाफा कमाने के
उद्देश्य से विक्रय केंद्र चला रहा हो यह बात मुनासिब नहीं लगती। तब फिर इस
अव्यवस्था का कारण क्या हो सकता है? विक्रय केंद्र के साथ
आदान-प्रदान का मेरा अनुभव तो महज एक साल का है पर लघुपत्रिकाओं के प्रकाशन से
जुड़े जो लोग वहाँ कई साल से आ-जा रहे हैं उनमे से कई तो नाम लेते ही मानो फट पड़ते
हैं। पत्रिकाओं के विक्रय से प्राप्त राशि का भुगतान ले लेना सबके बस की बात नहीं
होती। बिल लेकर जाने में डर लगता है मानो कोई अपराध करने जा रहे हों। एक मित्र जो
अरसे से लघुपत्रिका आंदोलन का "अलाव" जलाये रख रहे हैं, उन्हें पिछले आठ सालों से पत्रिका के विक्रय की राशि नही प्राप्त हुई। एक
से तीन साल वाले मित्र तो कई होंगे। आज इस पुस्तक विक्रय केंद्र में अगर गिनती की
महज 4 -5 पत्रिकाएं ही दिखाई देती हैं तो इसका मतलब यह नहीं
कि बाक़ी सैकड़ों पत्रिकाओं का प्रकाशन बंद हो गया है। इसके पीछे जो कारण हैं वे
बर्ताव और माहौल से ज्यादा जुड़े हुए हैं। ऐसा ही रहा तो यह केंद्र भी जल्दी ही एक
अतीत बन जायेगा।
समकालीन रंगमंच के
प्रवेशांक (जनवरी 2013) का बिल मैंने उसी साल
फरवरी माह में विक्रय केंद्र में जमा किया था। तब से लेकर सितम्बर माह तक हर बार
पूछने पर यही बताया जाता रहा कि आपका बिल सम्बंधित विभाग को भेज दिया गया है।
विक्रय प्रभारी कहते रहे कि अभी रानावि के पास इतने पैसे नहीं कि वह आपके 1100
रुपये चुका सके। थक हार कर जब अक्टूबर में मैंने अकाउंट सेक्शन में
जाकर पता किया तो उन्होंने बताया कि इस नाम का कोई बिल हमारे पास नहीं आया। मैंने
दुबारा विक्रय केंद्र से संपर्क किया और कहा कि आप मुझे मेरे बिल से सम्बंधित पूरा
ब्यौरा दीजिये। थोड़ी देर इधर उधर झाँकने के बाद उन्होंने छान-बीन करने का अभिनय
किया और तभी बिल उनकी किसी फ़ाइल में नमूदार हुआ। मैंने उनसे सादर बिल वापस मांग
लिया। इस घटना के बाद से पत्रिका अक्सर विक्रय पटल से गायब रहने लगी और पूछे जाने
पर कोई संतोषप्रद जवाब कभी नहीं मिला।
2014 के
भारंगम के दिनों में मैंने पत्रिका के लिए रानावि के विज्ञापन की मांग करते हुए एक
आवेदन विक्रय केंद्र में दिया। ऐसा करने के लिए स्वयं निदेशक महोदय ने कहा था।
लगभग एक सप्ताह तक केंद्र का चक्कर काटने के बाद भी जब वह आवेदन आगे नहीं बढ़ाया
गया तो मुझे निदेशक महोदय को यह बात बतानी पड़ी। उन्होंने कहा कि आप विक्रय केंद्र
से अपना आवेदन वापस ले लीजिये। मैंने ऐसा करना चाहा तो पहले तो साफ़ मना कर दिया
गया कि यहाँ ऐसा नहीं होता। फिर जब वही से निदेशक से बात की गयी तो उन्होंने
भुनभुनाते हुए बिल वापस किया। यह बात अलग है कि निदेशक महोदय द्वारा उसी क्षण
स्वीकृति देने के बाद आवेदन पुनः विक्रय केंद्र के हाथ आ गया और ऊंट को फिर से
पहाड़ के नीचे आना पड़ा। वहाँ से विज्ञापन आदेश प्राप्त करने में लगभग 10 दिनों तक नाकों चने चबाने पड़े। विज्ञापन आदेश में नीचे एक नोट लिखा था कि
हम जिन्हे विज्ञापन देते हैं उनसे यह अपेक्षा रखते हैं कि वे अपनी पत्रिका हमें कम
से कम 50 प्रतिशत की छूट के साथ विक्रय हेतु उपलब्ध कराएँगे।
7,500 रुपये का विज्ञापन, पत्रिका के
विक्रय से प्राप्त होने वाली राशि 1500 रुपये और उसमें भी 50
प्रतिशत की कटौती! विज्ञापन पाने की कोई खुशी नहीं हुई।
पिछले 26 मार्च को एक बार फिर हिम्मत करते हुए मैंने विज्ञापन और पत्रिका के दो
अंकों (प्रवेशांक की 50 और अंक -2 की 150
प्रतियां) का बिल विक्रय केंद्र को दिया। उन्होंने लगभग डांटते हुए
कहा कि आपलोग हद करते हैं। यह कोई वक़्त है बिल देने का? जानते
नहीं मार्च क्लोजिंग चल रही है? मैंने विनम्रता के साथ कहा
कि ले लीजिये न लगे हाथ पेमेंट हो जायेगा। तब उन्होंने चेहरा लाल-पीला करते हुए
बिल जमा कर लिया। 1 अप्रैल को उनका फ़ोन आया कि आपने यह कैसा
बिल दिया है भाई साहब? इतनी प्रतियां कब और किसको दी थीं
आपने? आपके पास कोई रिसीविंग हो तो ले आइये वर्ना यह भुगतान
नहीं हो पायेगा। जब मैंने कहा कि आप तो जानते हैं कि आपने कोई रिसीविंग कभी दी ही
नही है तो कहाँ से दूँ? जवाब में वहाँ से फ़ोन काट दिया गया। अब मैंने अपने जमा किये गए और आगामी बिलों को भी भगवान के भरोसे छोड़ दिया
है। जो भी होगा देखा जायेगा।
राजेश चन्द्र – रंगकर्मी,
नाटककार, कवि, नाट्य समीक्षक और समकालीन रंगमंच पत्रिका के सम्पादक हैं. इनसे rajchandr@gmail.com पर संपर्क किया जा सकता है.
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