रंगमंच तथा विभिन्न कला माध्यमों पर केंद्रित सांस्कृतिक दल "दस्तक" की ब्लॉग पत्रिका.

बुधवार, 4 दिसंबर 2013

और नाटक होने लगा : भाग तीन. - अमितेश कुमार

मैं इस सबके बारे में हमेशा से ही लिखना चाहता था. लेकिन ये नहीं सोच पाता  कि कैसे? अचानक जब लिखने लगा हूं तब उन स्मृतियों को पुनर्संगठित कर रहा हूं. इसलिये लिखने के लिये संघर्ष करना पड़ रहा है. कई बार अनुभव को शब्द हु-ब-हू अनुवाद नहीं कर पाते, शब्दातीत इसी को कहते होंगे ना!  लिखते हुए कई बार आंख बंद कर उस अतीत की यात्रा में चला जाता हूं और उस अनुभव को याद करता हूं, तब जो अनुभव थे शब्द में बदल कर क्या वहीं रह पायेंगे!  असली सुख तो आंख बंद कर उस अतीत का आनंद लेने में हैं जिसमें कुछ बड़ा करने की भावना नहीं थी बस ये साबित करना था कि हम कर सकते हैं, हमसे ही होगा.  इस परंपरा के कर्णधार हम हैं, हम भविष्य को भूलकर वर्तमान में अपनी पहचान पुख्ता कर रहे थे अपने ही लोगों के बीच. प्रशंसा पा रहे थे गाली सुन रहे थे लेकिन अपने को झोंके हुए थे. वो भी इस कदर कि सुध बुध नहीं रहती, खाना खाने की और पानी पीने की. घर वालों की गाली तो कान में से इधर से उधर निकाल देते थे. नाटक के चक्कर में हम लोगों से परिचित तो हुए ही, अगल बगल के इलाके से भी परिचित हुए. और इस सिलसिले में गांव के उन रीति व्यवहारों के बारे में जाना जो मानवशास्त्र की किसी किताब में नहीं मिलेगा.
एक बार नाच ठीक करने की बारी आई. अब गांव में नाच नहीं था तो ये पता करना था कि किस  गांव में नाच है. नाच मंडली में काम करने वाले शिवपूजन का ससुराल हमारे ही गांव में था. वो गांव भर के बहनोई है, भर गांव उनका साला. गांव इस मामले में अनूठा है. किसी भी गांव में जब किसी का रिश्ता जुड़ता है तो पूरे गांव से जुड़ता है. मेरे एक परिचित कहते हैं कि ससुराल में घुसते हुए दिखने वाले पहले आदमी/औरत ने अगर मजाक नहीं किया, गाली नहीं दी तो ससुराल आना बेकार. मेरे गांव से थोड़ी दूर पर ही उनका गांव है. हम साइकिल के पैडल दाबते हुए पहूंच गए शिवपूजन के पास. दुआ-सलाम में गाली गलौज हुआ. शिवपूजन ने तुरत मिश्री के साथ पानी पिलाया. भोजन का औपचारिक निमंत्रण दिया जिसे हमने टाला. ससुराल के मेहमान को बिना कुछ खिलाये जाने देने के लिये तैयार ही नहीं थे. हमने अपनी प्राथमिकता बताई शाम से पहले गांव लौट जाने का हवाला दिया और उनके साथ ही गये उसी गांव के एक टोले में जिसे बखौआ टोला कहते हैं. नाच पार्टी के मालिक किसान थे. बोझा ले कर खेत से लौटे थे. बात विचार शुरू हुआ. मांग बताई गई उन्हें कि क्या-क्या चाहिये. एक नालवादक, एक नगाड़ा वादक, एक बैंजो वादक, दो लौंडे, एक टिमकी सेदवा, एक एक्टर, जो खुद शिवपूजन जी थे. नाच पार्टी का साटा कैसे किया जाता है मैंने यहीं पर सिखा. हम दो लोग थे प्रदीप काका और मैं. प्रदीप काका नाटक करवाने के पीछे दीवाने थे. स्कंदगुप्त में लिखे मादक अधिकार सुख की सारहीनता का अर्थ मुझे उनके चरित्र में ही खुलता दिखता था. हमारे समिति के वे मानद अध्यक्ष थे. समिति बनाने का आलम यह था कि पहले साल के नाटक के बाद बकायदा एक समिति का कागज पर गठन हुआ. जिसमें मेरे पिता सरंक्षक अध्यक्ष थे, प्रदीप काका सचिव थे और लालबाबु कोषाध्यक्ष था. सदस्यों को दस-दस रुपये प्रति माह जमा करने थे. एक साल में इस तरह एक सदस्य जमा करता एक सौ बीस रूपये जो उसे एक बार में देने में दिक्कत होती लेकिन इस तरह आसान होता.  समिति के सदस्यों कि इतनी संख्या थी कि उस जमा किये पैसे से नाटक का खर्चा निकल आता और गांव में जो चन्दा किया जाता उससे नाटक के सामान खरीद लिये जाते. बचा हुआ पैसा अगले साल के लिये रखा लिया जाता. रोड मैप बढ़िया था लेकिन कभी लागू नहीं हो सका. आधे से अधिक सदस्य बाहर रहते थे और उन्हें महिनावार जमा करने की फूरसत नहीं थी. कुछ लापरवाही भी थी जिससे यह मॉडल सफल नहीं हो सका. इस में कोषाध्यक्ष की भूमिका थी जो अति लापरवाह था. असल जीवन में और मंच पर भी हर वक्त कॉमेडियन की भूमिका में रहता है और आजकल पैक्स अध्यक्ष है.
11खैर पहले  प्रदीप जी पर लौटते हैं उसके बाद नाच पर. प्रदीप जी पद से सचिव थे और कहलाते अध्यक्ष थे. इस नाम के लिये वो नाटक में बहुत मेहनत करते थे. उनके पास जनरेटर था जो नाटक में मुफ़्त में चलता था, तेल समिति का होता था. नाटक में काम आने वाला हर समान दरी, कपड़ा, तिरपाल, जो भी चाहिये था वो देते थे. ‘सत्य हरिश्चंद्र’ के दौरान लापरवाही से उनकी नई दरी जल गई लेकिन उन्होंने उफ़्फ़ तक नहीं की. अध्यक्ष थे इसलिए दरी जलने की जिम्मेवारी भी अपने सर पर ले ली. एक बार नाच पार्टी के लौंडे को मोजा नहीं था. पहना हुआ जूता खोलकर पैर से मोजा निकालकर लौंडा को दे दिया और लौंडे ने उसे कद्रदान का तोहफ़ा समझ कर रख लिया. इसके एवज़ में दो-चार रस सिक्त बातों का आदान-प्रदान उसे करना पड़ा होगा. वैसे प्रदीप जी ने मोजा हमेशा के लिये नहीं दिया था. नाटक के बाद मोजा मांगने पहूंचे तो लौंडा, गांव के युवकों को एक कहानी देकर जा चुका था. नाटक में उन्हें अभिनय का मौका कुल तीन ही बार मिला था. हमारे पहले नाटक में एक दृश्य की भूमिका में उन्होंने जानलेवा अभिनय किया था. हमने उनको समझाया कि आप अध्यक्ष है और किसी समिति का अध्यक्ष अगर अभिनय करेगा तो वह बाकी चीजों पर कैसे ध्यान देगा! आश्वस्त हुए और उन्होंने अपने भीतर के अभिनेता की कुर्बानी दी या ऐसे कहिये कि हमने जबरदस्ती ले ली. उनको रिहलसल के दौरान अभिनेताओं को चुप कराने, सबकी उपस्थिति सुनिश्चित करने, स्टेज तैयार करने के लिये बांस मांगने और काटने, स्टेज की लाइटिंग करने जैसे कई काम अपने हाथ में लेकर एक बड़ी जिम्मेवारी ली.
आइये, अब एक बार फिर नाच दल के दरवाजे पर वापस चलते हैं जहां हम नाच तय करने जा रहें हैं. प्रदीप काका ने पहले ही मुझे इशारा कर दिया था कि चुप रहना और देखते रहना. मैं दर्शक की भूमिका में आ गया. नाच दल मालिक ने समाजी (नाच में काम करने वाले लोगों को समाजी कहते हैं) की गिनती की और उसके हिसाब से प्रति व्यक्ति तीन सौ रूपये की मांग की. प्रदीप काका ने कहा कि इतने में हम पूरा नाटक कर लेंगे; नाटक चंदा से खेललजाला, तोरा नईखे बुझात, पर आदमी सै गो रूपया ले ल. नाच मालिक- ना जी ना होई. प्रदीप कका- ना होई, चलsहो मोनु तब.. हम उठ गये. मालिक ने रोका अच्छा दू सौ कर दीं. प्रदीप कका ने फिर कहा सै रूपया. उठने की बारी उसकी थी. उठते-बैठते तीन चार बार हम वहां से चलने-चलने को हो आये. अंततः कुल नौ सौ में बात फरिया गया. प्रदीप कका ने शिवपूजन को हिदायत किया समय से अईह, आ तु हउ आईहा ना त…!   नाच मालिक एक पुरानी कॉपी ले आये और साटा का सारा विस्तार उसमें कलम से मैंने दर्ज किया. दो बार. एक प्रति अपने पास रखी एक प्रति मालिक को दी गई.साटा हो गया. प्रदीप कका ने कहा कि नाच बान्हे सब के ना आवेला, नचनिया ताल करेल सनताल में आ गईल त कटा गईल. ये बात मैंने दिमागी डायरी में नोट की और साईकिल बढ़ा दिया. कुछ साल बाद ये सबक मेरे काम आया और मैंने भी नाच मालिक से पांच हजार के साटा को ढाई हजार में मोल-जोल कर के बांधा. इस क्रम में अलबत्ता मुझे कमरे से निकल कर तीन बार मोटर साइकिल पर बैठना पड़ा और चलने-चलने  को होना पड़ा. मेरे साथ बैठा लड़का इस बार दर्शक की भूमिका में था लेकिन उसे इस सबक से कुछ लेना देना नहीं था. नाच के तो कई किस्से हैं. एक बार नाच खोजने के चक्कर में हमने अपने आसपास के इलाके का चक्कर लगा दिया. साईकिल से पचीस तीस किलोमीटर का फेरा हुआ. नाच दल का कोई सुराग नहीं मिला, तो हम लोग देसी मुर्गा खोजने लगे. दिन खराब था वो भी नहीं मिला. भूजा पकौड़ी खा कर आ गये. एक दफ़े तो इतना घूमे कि काका यानी प्रहलाद जी यानी कुणाल किशोर विद्यार्थी जी जबरदस्त बीमार पड़ गये. मुंह-पेट चलने लगा. क्योंकि अरसे बाद उन्होंने साइकिल चलाई थी. एक बार जब ऐसे ही नाच नहीं मिला तब हमने निकटवर्ती कस्बे और प्रखंड मुख्यालय में नवजात आर्केस्ट्रा पार्टी को बांधना पड़ा. कहने को वो आर्केस्ट्रा था वस्तुतः उसमें नाचने वाली स्त्रियों को कहीं से आयात किया गया था शायद बंगाल से. लगन के दौरान नाच-नाच कर ये अपना और अपने दल के मालिक का पेट भरती थीं. गाने का हुनर उनके पास नहीं था. नाचने का भी नहीं था. वे औरत थीं और वे इस बात को जानती थीं. उनके पास कमाई का यही साधन था. एक कुंठित दर्शक समुदाय थी जो इनको देखते रहता अपलक, अगर ये खड़ी भी रहतीं. उनके लिये भी ये एक देह थीं जिसके रहस्यों वो आंख से खोलना चाहते, गाहे-बगाहे शाब्दिक उद्घाटन भी करते थे.  नाच दल की तेजी से घटती संख्या में इन्हीं दलों के उभार का भी हाथ है. स्त्री देह की तुलना में पुरुष देह कहां टिक पाते. हमने मजबूरी में इस दल का साटा किया. मजबूरी पर जोर दीजिये क्योंकि यह रक्षात्मक शब्द नहीं है. लेकिन कुछ लड़के भी थे जो चाहते भी थे कि इसे लाया जाए. ग्रामीण नाटकों की दृश्य सरंचना ऐसी होती है कि दो दृश्यों को तैयार करने के लिये या फिलर के तौर पर नाच रखना अपरिहार्य हो जाता. नाटक देखने आने के पीछे एक आकर्षण नाच का भी रहता था. नाच बढिया होगा तो नाटक भी जमेगा ऐसी धारणा थी. जिस दिन आर्केस्ट्रा का साटा हुआ उस दिन दोपहर में गांव वालों ने एक नाच दल का भी साटा कर लिया. अब दो दल हो गये. मना किसी को नहीं किया जा सकता था., बयाना हो चुका था. मना के शर्त में पूरा पैसा देना ही पड़ता नचाये या बिन नचाये. महिला नाचने वाले दल को नाटक में शामिल करने से भय था कि इनके आकर्षण में नाटक चौपट ना हो जाये, लोग नाटक छोड़ इन्हें ही न देखने लगे. इस संशय ने अभिनेताओं को भीतर से डराया और तैयारी जम के होने लगी. दूसरी समस्या थी कि जब सभी कार्यकर्ता नाटक खेल रहे होंगे तो इनकी सूरक्षा कैसे होगी? ये रहेंगी कहां? गांव में जहां भी नाच दल की रिहाइश गिरती है वहां तमाशबीनों का जमावड़ा हो जाता है. इससे निपटना समस्या था. मैंने अपनी मां से पूछा   क्या हम अपने घर में रख सकते हैं? देख लो वो लोग भी आदमी ही है.   मां ने कहा   तुम मेरे बेटे ही होआखिर. मैं समझ गया. नाटकों के आयोजन में मेरी मां की अहम भूमिका है, रिहल्सल की कितनी रातों में उसने अपनी नींद खराब की है. अपनी साड़ियां दी हैं, कलाकारों को बुलाकर खिलाया है, अनगिनत चाय बनाये हैं. इसकी कहानी अलग से. फिलहाल रहने की समस्या निबट गई. ऐसे जगह मंच बनाया जो मेरे घर से सटे था वहां से मंच के बीच में कोई अन्य न आये इसकी व्यवस्था भी हो गई. जिस दिन नाटक होना था बवाल उस दिन कट गया. जिन त्रिविक्रम झा का जिक्र पहले हुआ है उन्होंने पिता जी को और ओकिल बाबा को चढ़ा दिया कि महिलाएं हैं नाचने वाली और ये गांव के लिये ठीक नहीं है. अब तर्क’वितर्क होने लगा. एक तरफ़ मैं दूसरी तरफ़ पापा. बुजुर्गों की नैतिकता प्रबल हो गई थी. ओकिल बाबा किसी शर्त पर मानने को तैयार नहीं थे, पिताजी जिन्होंने शुरू में अनुमति दी थी अब विचलित हो रहे थे. पिता’पुत्र के बीच क्लेश कराने में त्रिविक्रम जी ने कोई कसर नहीं छोड़ी. उसने कह दिया कि मेरे शह पर ही आर्केस्ट्रा बांधा गया है. मेरी ऐसी’तैसी तय थी. मैंने पिंटु भाई को बुलवाया जिन्होंने यह साटा किया था. उन्होंने भी दोनों बुजुर्गों को समझाया कि कुछ नहीं होगा आने दीजिये. अब उनको नहीं रोका जा सकता. वो पूरा पैसा लेंगे नाचे या न नाचे. राजेन्द्र को बुलवाया गया, जो उस समय मुखिया भी था. मैंने अपनी मम्मी को सारी बात समझा के कहा कि कैसे पापा उन लोगो के कहने में आ रहे हैं. मम्मी ने घर में पापा को बुलाया, मुखिया और पिंटु भाई को पीछे से मैं ले गया. पापा जैसे ही उन से अलग हुए, सारी बात समझ गये. मुखिया ने आश्वस्त किया कि कुछ नहीं होगा, उसकी खुद की इच्छा आर्केस्ट्रा देखने की थी. बाहर निकल कर पापा ने ओकिल बाबा को समझाया कि आने से मना नहीं किया जा सकता लेकिन उनको प्रोग्राम नहीं करने दिया जायेगा. एक बड़ी मुसीबत टली. त्रिविक्रम की कारस्तानी खुली, उसका मंसूबा फेल हुआ. उसको मैं अपने दल में देखना नहीं चाहता था लेकिन दल के ही कुछ साथी उसको ले आते थे, मंच बनाने, पर्दा बांधने और ऐसे बहुत काम जो हममें से किसी को नहीं आते उसे आते थे इसलिये वह एक मजबूरी भी था.
आर्केस्ट्रा पार्टी आई. नाटक से पहले उनको हिदायत दी गई कि यह नाटक का मंच है बारात का नहीं इसलिये यहां अश्लील कार्यक्रम नहीं होगा. इतनी हिदायत के बावजूद पहली ही बार में एक डांसर ने कुछ अश्लील हरकत की, आगे बैठी महिलाओं के लिये मुश्किल हो गया. मैंने भड़क कर डांसर को डांटा. नाच दल के लौंडों को इस आर्केस्ट्रा से आराम हो गया था, एक आध बार नाच कर वो सोने चले गये ये कह कर कि खूब नचाई आज एह लोग के. नाटक जम गया था, लोग आर्केस्ट्रा भूल गये. नाटक खतम होने के बाद आर्केस्ट्रा पार्टी को देने के लिये हमारे पास पैसे नहीं थे. साटा करने चंदन गया था वो बेचैन था कि पैसा जल्दी से दे दिया जाए क्योंकि साटा उसके पिता जी के नाम से हुआ था. ये जरूरी भी था कि सुर्योदय से पहले इस दल को रवाना कर दिया जाए क्योंकि सुबह तक इनको रखने में दिक्कत थी और इनका जादू भी सुबह को ही टूटता है.  हमने नाच मालिक को कहा कि ढाई बजे हैं और हमारे पासपैसे नहीं है. हम आपको चार बजे तक पैसे देंगें और आप यहां नाच रहें हैं तो सुरक्षित हैं यहां हमारे कार्यकर्ता हैं. जैसेही आप बंद करेंगे ये सोने जायेंगे और बाकी लोग आपके पीछे लगेंगे. जहां-जहां आप जायेंगे वहां-वहां. अच्छा यहहोगा कि चार बजे तक आप प्रोग्राम चलाइये. वह तैयार हो गया. हम गांव में घूमने लगे. अभिनेता के पास चंदे का पैसा बाकी था. उसे रात ही में हम, काका और चंदन सहेजने निकले. पैसा जमा किया., पिंटु भाई को बुलाया और हिसाब करके उनको विदा किया और तौबा किया. समिति की भी राय बनाई लौंडा नाच ही अच्छा है. इसको लाना गरदन पर छुरी रखने के बराबर है. आर्केस्ट्रा दल के साफ-सूथडे़ प्रदर्शन के बावजूद विरोधियों ने आरोप लगाया किब्रेशियर पहना के स्टेज पर लड़की नचा देले बाड़सन!  इसका जवाब हमने चुप्पी से दिया.

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