रंगमंच तथा विभिन्न कला माध्यमों पर केंद्रित सांस्कृतिक दल "दस्तक" की ब्लॉग पत्रिका.

सोमवार, 31 अक्तूबर 2011

एक्टर बनने निकला था, थियेटर करने लगा

हबीब तनवीर से आलोक प्रकाश पुतुल की बातचीत
हबीब तनवीर अब जब नहीं हैं तो उनके बारे में कई बातें याद आ रही हैं. रायपुर वाले घर में खाने की मेज के पास बैठ कर सिगार फूंकते हुए या रिहर्सल के दौरान किसी के खराब अभिनय पर अफसोस करते हुए या बातचीत करते समय सवालों को तौलने वाले अंदाज में चश्मे के पीछे से देखते हुए....दिल्ली 6 देखते हुए जब 'सास गारी देवे' के शब्द कान में पड़े तो मुंह से निकल गया- हबीब तनवीर. लगा कि इस बार हबीब साहब अपने घर आएंगे तो उनसे लंबी बातचीत की जाए. उनके जल्दी ही रायपुर आने की खबर मिली. लेकिन वे रायपुर नहीं आ पाए. खबर आई कि अस्पताल में भर्ती हैं. फिर एक दिन सुबह-सुबह उनके देहावसान की खबर... फिल्म ब्लैक एंड व्हाईट के वे दृश्य आंखों के सामने आ गये, जिसमें हबीब साहब सफेद कफन में लेटे हुए थे. तो क्या यह जिंदगी के नाटक का रिहर्सल था ?... रंगमंच पर शाइर नासिर काज़मी की ग़ज़ल गाते हुए हबीब तनवीर याद आ रहे हैं- "गए दिनों का सुराग लेकर किधर से आया, किधर गया वो, अजीब मानूस अजनबी था, मुझे तो हैरान कर गया वो..."
यहां पेश है, हबीब तनवीर से की गई एक पुरानी बातचीत के अंश.

  बाजार का दबाव व प्रभाव जिस तेजी से बढ़ा है, उसमें आप रंगमंच के स्थान को कहां निर्धारित करते हैं ?

बाजार का जो दबाव बढ़ा है, आपका मतलब फ्री मार्केट से है; उसका नतीजा है सेटेलाइट टेलीविज़न, इंटरनेशनल पैकेज, इनसे कटा हुआ, दूर का विदेशी, गलत कल्चर. उसका प्रहार हमारी संस्कृति पर है और हमारे सारे संस्कार पर है , इसी का शिकार थिएटर भी है. बस मैं यही देखता हूं. 

सरकार को जो भ्रम है कि हम इस देश की कल्चरकी सुरक्षा कर रहे हैं, वो महज एक ढकोसला बन कर रह जाता है. कल्चरकी सुरक्षा के लिए उनको बाजार का भी ख्याल रखना पड़ता है. मंत्रालय के जो काम हैं सूचना-प्रकाशन विभाग हो, संस्कृति विभाग हो, कामर्स हो या फॉरेन अफेयर्स हो, सब जगह इनको समझौता करने पड़ेगा. कोई भी चीज ऐसी नहीं है, जिसका कल्चरपर प्रभाव नहीं पड़ता. कल्चरएक ही है, जो सब में `प्रोवेटकरती है. लेकिन कल्चरही ऐसी चीज है, जिसके उपर किसी भी सरकार ने आज तक ध्यान नहीं दिया. सिवाय कुछ ग्रांट देने, अनुदान देने के. तो इससे कल्चरकी सुरक्षा नहीं होती. कल्चरकी सुरक्षा का मतलब बिल्कुल एक ऐसे विकास का तरीका है, जिसमें बड़ी टेक्नालॉजी, बड़ी फैक्ट्रियों के साथ-साथ ग्रामीण विकास, आदिवासी विकास, इनको शामिल किया जाए. इनकी समस्याओं का समाधान क्या है, ये जान कर जो विकास होगा, वह बेहतर होगा. कोई जरूरी नहीं है कि गांव का कोई आदमी भाग-भाग कर शहर आए. कोई जरूरी नहीं है कि ऐसी शिक्षा हो, जिसको हासिल करके आदमी बाबू बने और बाबू न बने, चपरासी बने और वो भी न बने, झुग्गियों में जाकर फसाद करे. शिक्षा का ये नतीजा हुआ है.
शिक्षा के अंदर भी जो बुनियादी गड़बड़ियां हैं तो उसके अंदर भी सोचना पड़ेगा. शिक्षा का कौन-सा तरीका अच्छा होगा, ये गौर से सोचना होगा. हालांकि कोई भी शिक्षा बुरी नहीं होती लेकिन वो कौन-सी शिक्षा हो जो सबके लिए कनवेनिएंट हो, यह विचार किया जाना चाहिए. तो आपने एक सवाल किया और उसके जो सारे आस्पेक्ट हैं शिक्षा, विकास आदि-आदि, ये सब बाजार के शिकार हुए हैं.

 ऐसे समय में जब बुनियादी रास्ते में ही भटकाव हो तो आपको लगता है कि रंगमंच सरवाइवकर पाएगा ?

रंगमंच सरवाइवकर पाएगा, अगर हम सरवाइवकर पाएंगे. मेरा ख्याल है कि जनजीवन में रंगमंच से जुड़े लोगों का जो जीवटपन है कल्चरली, वो थोड़ा खास किस्म का है. थिएटर में आदमी आता है और चला जाता है लेकिन वो अपने आपको सचेत करके रखे, उनकी क्रिएटिविटी बची रहे तो सब ठीक हो जाएगा. हालांकि नुकसान बहुत हो चुका है, हो रहा है लेकिन मुझे यकीन है क्योंकि बहुत से नौजवान लगे हुए हैं थिएटर की बेहतरी के लिए, उसकी सच्ची पहचान कायम करने के लिए. ऐसा नहीं हुआ कि टेलीविज़न आया या फिल्म आई तो थिएटर खत्म हो गया.लेकिन टेलीविज़न और फिल्म के लिए ही थिएटर को लांचिंग पैड की तरह इस्तेमाल किया जा रहा है, ऐसा नहीं लगता ? कुछ लोग कर रहे हैं. वह भी इसीलिए क्योंकि टेलीविज़न-फिल्मों ने हमला बोला है. वैसे ये सवाल उनसे ही पूछा जाना चाहिए.

 बाजार के हमले के अलावा एक दूसरा हमला असंगत रूप से अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पर भी बोला जाता रहा है. जो इधर के दिनों में तेजी से बढ़ा है. आप क्या सोचते हैं ?

जैसे ?

 उदाहरण के लिए मी नाथूराम गोडसे बोलतोएनाटक को ही ले लें. इस नाटक के पक्ष-विपक्ष में खूब हंगामा हुआ. आप क्या सोचते हैं ?

अगर आप सिर्फ नाथूराम....वाले प्ले के बारे में पूछ रहे हैं तो उसका जवाब अलग है और बाकी जवाब अलग है.

 पहले नाथूराम…’ पर ही बात करें.

नाथूराम….’ जैसा कि अखबारों में मुझे रपटें मिली मेरी अपनी जाति राय यही है कि बैन सही था. इसीलिए क्योंकि एक लेखक को इसका तो हक है कि वो किसी को भी क्रिटिसाईज़ करे. चाहे वो गांधी जी हों या नेहरू जी हों या कोई भी हो. लेकिन इसका हक किसी को नहीं है कि वो स्थिति को, फैक्ट्स को डिस्ट्राय करके यह काम करे. हमें जो अखबारों से रिपोर्टें मिली हैं, हमने स्क्रिप्ट नहीं पढ़ा, हमने ड्रामा नहीं देखा, हो सकता है गलत हो. अखबारों में जो पढ़ा उससे पता चलता है कि गांधी जी जो थे, वो पाकिस्तान के फेवर में थे औऱ गोडसे जो थे वे इसके खिलाफ थे ये बकवास है. गांधी जी... जब यह सब कुछ हो रहा था, हम भी होश में थे, बच्चे नहीं थे. गांधी जी ने कहा था कि बंटवारा मेरी लाश पर होगा. अगर ये कहना चाहते हैं कि यह कहने के बावजूद उन्होंने पटेल को नहीं रोका तो यह हो सकता है. क्रिटिकल पॉलिटिक्स हो सकता है. मगर ये कहना गलत है कि गांधी पक्ष में थे और गोडसे इसके खिलाफ थे. ये बात सभी जानते हैं कि वो लोग गोडसे को हीरो बनाने की कोशिश कर रहे हैं. गोडसे हीरो-वीरो कुछ नहीं था, एक कातिल था. जिसने एक ऐसे आदमी की हत्या की, जिसने सारे हिंदुस्तान में घूम-घूम कर हिंदू-मुस्लिम फसाद को रोकने के लिए, पार्टिशन को रोकने के लिए पूरी ताकत लगा दी. ये और बात है कि उनकी बात तब किसी ने सुनी नहीं.
लिबर्टी का जो मामला है, हमारे जो बहुत सारे दोस्त हैं, खासकर के प्रगतिशील हलके के दोस्त, सभी ने ये कहा कि बैन नहीं होना चाहिए. हालांकि आम तौर पर ये सही है कि किसी पर पाबंदी नहीं लगानी चाहिए, इसका डिमान्स्ट्रेशन होना चाहिए लेकिन हरेक चीज की हद होती है. ऐसा नहीं है कि ये लिबर्टी असीम होगी. कोई भी लिबर्टी असीम नहीं होती. अगर मैं सड़क चलते हुए अपनी आजादी का इस्तेमाल करना शुरु करूं तो न जाने कितने खून बह जाएंगे. एक ख्याल रखना पड़ता है क्योंकि आपकी आजादी की एक हद है. तो यही बात सेंसरशिप है. ऐसा नहीं है कि सेंसरशिप एक अच्छी चीज है, और ऐसा भी नहीं है कि सेंसरशिप होना भी नहीं चाहिए.

हम जिस जमाने में काम कर रहे थे मुंबई में, तब मोरारजी देसाई मुख्यमंत्री थे. 50 के दशक की बात कर रहा हूं. अभी तक उनके हवाले, उनकी पुलिस की गठरी में वो प्ले है जो सेंसरशिप में चला गया और आज तक वापस नहीं आया. कोई ऐसा कमाल का प्ले नहीं था कि जिंदगी भर उसका अफसोस हो लेकिन मसविदा अभी भी पुलिस की फाइलों के ढेर में पड़ा हुआ है.

मुझे इसकी परवाह नहीं है कि वह कोई खराब प्ले था.

 क्या था उस प्ले में ?

उसी जमाने की बातें थी. हम लेफ्टिस्ट आदमी हैं, लेफ्टिस्ट पॉलिसी थी. मोरारजी देसाई राइटिस्ट आदमी, उनको पसंद नहीं आई. सेंसरशिप तो थी ही उस जमाने में.

 फंडामेंटलिस्ट से अलग जो लेफ्ट का स्टैंड अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता को लेकर है, आपको नहीं लगता कि लेफ्ट का पक्ष ठीक से नहीं रखा जाता था. लोग समझ नहीं पाते. सलमान रुश्दी वाला मामला ही लें, साफ दिखता है कि लेफ्ट से जुड़े लोग एक तरफ तो हां बोलते हैं दूसरी तरफ ना बोलते हैं.

कौन ? लेफ्ट वाले ?

 हां लेफ्ट वाले. लेफ्ट का जो ब्राडर प्रास्पेक्ट है, वो स्पष्ट नहीं हो पाता कि आप कहना क्या चाहते हैं.

इन तमाम चीजों की जिम्मेदारी मेरी नहीं है और मैं इसका जवाब भी नहीं दे सकता कि लेफ्ट वाले क्या बोलते हैं, क्यों बोलते हैं, कितना बोलते हैं, कितना और ज्यादा बोलना चाहिए, कम बोलते हैं. मैं ऐसा लेफ्ट वाला नहीं हूं, जैसा आप तसव्वुर कर रहे हैं. ना मैं कभी किसी पार्टी का प्रतिनिधि रहा, ना हूं. कभी कोई कार्ड होल्डर नहीं रहा. मैं तो जिस लेफ्ट से अपने को जोड़ता हूं वो कांग्रेस में भी लेफ्ट है और जनता दल में भी. कम्यूनिस्ट पार्टियां तो दस से बारह है. लेफ्ट का मतलब critical to the establishment, critical to the expected policy... कोई चीज आँख बंद करके स्वीकार कर लेते हैं लोग. उसको जरा सा सोच समझ कर एक सवाल उठाना, एक प्रश्न खड़ा करना. उसको कहते हैं लेफ्ट मेरी नज़र में. मैं लेफ्ट को ऐसे ही डिफाइन करता हूं.

 फिर बात उदाहरण से ही लें. सलमान रुश्दी की किताब पर अब तक प्रतिबंध है तो क्या यह प्रतिबंध जारी रखना चाहिए ?

बिल्कुल नहीं. कभी भी उस पर प्रतिबंध होना ही नहीं चाहिए. कोई जरूरत नहीं है उनको बैन करने की. गलत है बैन करना. ये मेरी जाति राय है.

 अरुंधति राय फिल्म में काम करती हैं, किताब लिखती हैं और परमाणु विस्फोट के खिलाफ रैसी भी निकालती हैं, नर्मदा को बचाने के लिए आंदोलन भी करती हैं. क्या नाटक से इतर नाटककार की प्रत्यक्ष रूप में आदोलनों में भूमिका नहीं होनी चाहिए.

होना चाहिए क्योंकि नाटककार कोई अलग चीज नहीं है, वो भी नागरिक है. और वो भी अपनी राय रखता है. वो जितना ज्यादा जीवन के घमासान में रहेगा, उतनी ही ज्यादा उसकी योग्यता बढ़ेगी.

 लेकिन कुछ लोग तो केवल नाटक करने को ही क्रांति मानते हैं. क्रांति करने का एक बड़ा हथियार मानते हैं.

क्रांति मानने वाले तो बहुत ही ज्यादती करते हैं. क्रांति तो कभी थिएटर से आज तक आई नहीं है. क्रांति हमेशा पॉलिटिकल होती है. हां, पब्लिक ओपिनियन चेंज करना है, क्रांति के लिए जमीन तैयार करती है. अच्छे ढंग से, कलात्मक ढंग से आप पब्लिक ओपिनियन चेंज करते हैं तो आपका प्रभाव पॉलिटिकल पार्टियों से ज्यादा पड़ेगा. उससे विचारधारा में परिवर्तन हो सकता है और विचारधारा के परिवर्तन से बहुत बड़ी क्रांतियां हुई हैं, होती हैं. लेकिन सारे लेखक क्रांति लाने के लिए सड़क पर नहीं निकल जाएंगे. और अगर निकल भी जाएं तो ऐसा नहीं है कि वैचारिक रूप से कमजोर होने पर भी केवल सड़क पर उतर आने से क्रांति हो जाएगी.

 इतने साल हो गए आपको थिएटर करते. आपको ऐसी नहीं लगता कि थियेटर का अर्थतंत्र बहुत कमजोर है ?

नहीं तो. अर्थतंत्र क्यों कमजोर है?

 कलाकार पूरी प्रतिबद्धता से थिएटर करता है लेकिन जैसे ही आर्थिक जिम्मेवारियां आती हैं, वह थिएटर से क्रमशः विमुख होने लगता है. आर्थिक तनाव के बजाए आर्थिक निश्चिंतता हो तो वह और बेहतर ढंग से काम करता. लेकिन स्थितियां ऐसी बन जाती हैं कि एक समय के बाद वह थिएटर से भाग खड़ा होता है ?

आमतौर पर आप बात कर रहे हो तो यह सब भी टेलीविज़न वगैरह के कारण ही हैं. थिएटर कोई साधन नहीं पैदा कर पाता. बहुत बेहतर कमाई के लिए आप इंजीनियर हैं या कोई आईएएस हैं तो आपकी तनख्वाह है, हर महीने की एक मोटी रकम. थिएटर में तो ऐसा नहीं है. आप आज आ जाएं और उन इंजीनियर, आईएएस की तरह कमाई की सोचें तो यह गलत हैं. ऐसी अपेक्षा थिएटर में क्यों करें, यहां तो बहुत त्याग की जरूरत होती है.

 आप अपना ग्रुप कैसे चलाते हैं.

मेरा तो छोड़िए. आप जनरल सवाल कर रहे हैं और मैं जनरल जवाब दे रहा हूं.
 चलिए मैं आप ही की बात करता हूं.

मैं पूरे हिंदुस्तान में घूम घूम कर नाटक करता हूं. मेरा अलग ही हिसाब है.

 कैसा हिसाब है ?


बस खुले ढंग से करते हैं. हमारे न तो कोई कांट्रेक्ट है और न ही कुछ दूसरे बंधन. सब साथ में रहते हैं, काम करते हैं. तनख्वाह लेते हैं. जाना चाहते हैं, चले जाते हैं, वापस आना चाहते हैं, तो वापस आ जाते हैं. इसीलिए चल रहा है.

बाकी सबके अंदर बंदिशें हैं, कांट्रेक्ट हैं, झगड़े हैं. जहां मोहभंग हुआ तो छोड़कर सब कुछ चल दिए. मैं तो लोगों को कहते-समझाते थक गया. सीखते-सिखाते थक गया. एनएसडी वाले जो पर्पेट्री चलाते हैं तो उसमें तनख्वाह देते हैं. हम तो तनख्वाह के अलावा आर्टिस्ट को प्रति शो के हिसाब से अलग से पैसे देते हैं, एडिशनल और वो सिर्फ इसीलिए कि वो जिंदा रहे, प्ले को जगाए रखें. मुर्दा ना होने दें. एनएसडी में किसी प्ले के 8-10 शो हो गए तो ऊब जाते हैं. कहते हैं कि नया ड्रामा करो, बहुत हो गया. और हमारे य़हां जितने ज्यादा शो होते हैं, आर्टिस्ट उतने खुश होते हैं. मान लीजिए उन्होंने तीस शो किए तो पंद्रह बीस दिन में उन्होंने प्रति शो के हिसाब से कुल तीन हज़ार रुपए और मिल जाएगा. तनख्वाह के अलावा. तो ऐसे खुद के नियम कायदे कानून निकाले हैं हमने. और फिर हमारी कोई संस्था भी नहीं है. मतलब इंस्ट्यूशनलाईजेशन नहीं किया है इसको. मतलब फ्री, ओपन किस्म का है. मुझे नहीं लगता है कि पूरी दुनिया में आपको ऐसी मिसाल मिलेगी कि कोई संस्था अगर चली तो चली. सबसे पहले 1953 में आए फिर 1958 में आए, फिर 1973 से लगातार चल रही है. कोई चला एक-दो साल, कोई पाँच साल के भीतर खत्म हो गया.... हमारे यहां तो चल रहा है.

 नाटक में आपको उपियोगिता के हिसाब से क्रम बनाना हो तो सबसे ज्यादा किसको महत्व देंगे? रंगकर्मी को, निर्देशक को, लेखक को?

बड़ा एकेडमिक सवाल है क्योंकि यहां उपियोगिता सबकी है. आप कहेंगे तो मेरी नज़र में सबसे ज्यादा दर्शक की है. लेखक की भी उपयोगिता है, रंगकर्मी की भी और निर्देशक की भी. लेकिन सब कुछ दर्शक की कसौटी पर होता है. हम हमेशा परिवर्तन करते हैं. आज भी मैंने आर्टिस्टों को बुलाया है. हम हरेक नाटक के बाद दर्शक के कमेंट्स लेते हैं. हमको उससे अंदाजा हो जाता है कि किस नाटक में झोल है और वो झोल क्या है. अब कल एक साहब सुनबहरीनाटक देखकर बोलने लगे कि उसमें जो चेतन नाम है वो खपता नहीं है. वो बहुत कमजोर नाम लगता है. गोरखनाथ की इंट्री के बाद स्थिति दूसरी होती है. तो इसको एनलाईज करना चाहिए.
 भारत भवन के बारे में आज आपकी क्य़ा राय है?
यार वो क्लोज़ चैप्टर है, काहे को उसके बारे में बुलवाना चाहते हो. भारत भवन, कुछ नहीं हो रहा है वहां पर. डेड इंस्ट्यूशन..सरकार ने भी उसको छोड़ दिया है. और जो कल तक थे तवज्जो देने वाले, उन्होंने भी ज्ञान देना बंद कर दिया है. आर्टिस्टों ने भी कबाड़ा कर रखा है.

 और एनएसडी ?

ठीक है, अपनी जगह. जो कर रहे हैं, उनका काम भी टाइप्ड किस्म का है. सीमित है उनका दायरा भी. थिएटर का जनता से ताल्लुक होना चाहिए. एक जीवन से ताल्लुक होना चाहिए. खास तौर से संस्कृति से ताल्लुक होना चाहिए.

मान लो कि ट्रेनिंग का माध्यम हिंदी है तो सारे हिंदुस्तान से जाकर अभिनेता वहां जाकर क्या सीखेगा. बांग्ला बोलने वाला, मराठी, गुजराती, मलयालम, तेलगु, तमिल, कोंकणी वाला अच्छी हिंदी कैसे बोलेगा. और अगर बोलेगा तो अभिनय नहीं कर सकेगा ठीक से, नाटक भूल जाएगा. तो ये बुनियादी बात है. मीडियम बनाना है हिंदी और काम करना है एक्टिंग का, जुबान का. मामला बहुत बड़ा है. जुबान से वाकिफ होना चाहिए. यह तकाज़ा है.

 एनएसडी की ही तरह फिल्मों की हालत भी गड़बड़ नहीं लगती? अभी जो फिल्में आ रही है….

कमर्शियल फिल्मों का बुरा असर पड़ रहा है चारों तरफ. मगर हमारे बहुत से नौजवान अच्छा काम कर रहे हैं. और जब तक बुरी चीज नहीं हो तो रिकगनिशन नहीं होता अच्छी चीज का. अच्छा को अच्छा कहेंगे कैसे, जब सामने बुरा ना हो? मगर बुरा इतना ज्यादा है कि अच्छी चीजें खो रही है. पहले एक-दो लोग बुरी फिल्में बनाते थे, अब पूरा ग्रुप है.

 आपने लंबे समय तक पत्रकारिता की है. आज की पत्रकारिता के बारे में क्या सोचते हैं? खासतौर से नाट्य आलोचना की हालत?

पत्रकारिता में सनसनी ज्यादा है. और बाज़ार, चाहे वो विज्ञापन के माध्यम से हो या लेख के माध्यम से, उसका खूब असर है. अभी तो हिंदुस्तान में नाटक बालिग नहीं हुआ है. अखबार के अंदर आलोचना भी बालिग नहीं हुई है. अभी घुटना चल रही है.

 निकट भविष्य में कुछ बेहतरी के आसार पाते हैं ?

थिएटर पनपे तो आलोचक पैदा हों. बात यह है कि थिएटर जो अभी चल रहा है, वह थिएटर इतना चले कि उसके अंदर अलग वजन पैदा हो. थिएटर ही अभी नहीं पनप पाया तो आलोचक कैसे पैदा होगा ?

 थिएटर में आने के फैसले को लेकर कभी अफसोस नहीं हुआ ?

मुझे नहीं हुआ. मैं निकला था एक्टर बनने, इधर थिएटर करने लगा. मुझे कोई अफसोस नहीं कि मैं ज्यादा पैसे नहीं कमा सका. मैं चाहता तो मैं भी कमा लेता. पहले तो थिएटर से जो इंकम होती थी, उसके टुकड़ों पर पलने के लिए इतने मजबूर थे.... इप्टा करते थे शौक से मुंबई में. जो भी मिल जाता था उसी में खुश.

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