रंगमंच तथा विभिन्न कला माध्यमों पर केंद्रित सांस्कृतिक दल "दस्तक" की ब्लॉग पत्रिका.

बुधवार, 14 नवंबर 2012

रंगमंच पर तुगलक : अमितेश कुमार


“निर्देशक का यह मूलभूत कर्तव्य है कि वह नाटक के अर्थ को सशक्त दृश्यबिंबों के ऐसे क्रम में जमा दे कि दर्शको को अनजाने में ही उसका ग्रहण सुलभ हो जाय।" इब्राहिम अलकाज़ी ने यह ‘तुगलक़’ के निर्देशकीय में कहा था. तुगलक देखे के लौटा तब से यह लाईन घूम रही थी दिमाग में. घर आया नाटक निकाला और पढ़ा. अब तुगलक को देखने का दरवाजा मेरे सामने खुल चुका था, और फिर वह जमीन दिखने लगी जिस पर इस “तुगलक” की भव्यता का महल खड़ा है, जो दिल्ली सरकार की, भानु भारती की और वर्ष की सबसे महत्वाकांक्षी नाट्य प्रस्तुति है. जिसके लिये जारी किये गये पास बाक्सआफिस खुलने के कुछ घंटो बाद ही बंट गए, जिसकी प्रस्तुतियां दो दिन बढ़ानी पड़ी, जिस प्रस्तुति के विरोध में रंगकर्मियों के एक व्यापक समुदाय में आक्रोश भी रहा, जिसके लिये वैसे अभिनेता काम में लाए गए जो फ़िल्मों में अधिक सक्रिय हैं, जिस नाटक के स्वागत के लिये मीडिया प्रिंट और इलेक्ट्रानिक दोनों ने अपनी बांह फैला दिए, जिसके बड़े बड़े होर्डिंग दिल्ली में टंगे थे, जिसे दिल्ली का हर संस्कृतिप्रेमी देख लेने के लिये बेताब था आदि आदि. आखिर यह प्रस्तुति थी कैसी?
 “तुगलक़” करने की वज़ह थी “अतीत की वर्तमानता”. निर्देशकीय  आग्रह भी था कि अतीत के बहाने हम भविष्य के स्वर्णिम स्वप्न को देखें कि क्या वह साकार हो पाएगा? मिथक में बदल गये उस अतीत की व्याख्या करें? अक्सर निर्देशकीय नाटक देखने के लिये दर्शकों को कन्विंस करता है और दर्शक उसी निगाह से नाटक देखने लगते हैं अच्छी बात यह थी कि ‘तुगलक’ देखते समय ब्रोशर बाद में मिला, और नाटक तक एक स्वतंत्र पहूंच बनी.
नाटक शुरू होते ही बादशाह तुगलक की छवि सामने आती है जनता के आपसी वार्तालाप के माध्यम से, उसके बाद मंच पर वह स्वंय नुमाया होता है अपनी हक और इंसाफ़ पसंदी के निश्चय से जनता को अवगत कराते हुए राजधानी दिल्ली से दौलताबाद ले जाने कि घोषणा करता है और रियाया को वहां आने की दावत देता है. इसके तुरत बाद उसके फ़ैसले का परिणाम सामने आता है जिसमें एक ठग ने बादशाह के फ़ैसले का अपने हक में इस्तेमाल कर लिया है. इसके बाद हम नाटक में तुगलक को फ़ैसले लेते, अपने फ़ैसले पर अमल के लिए जूझते, षडयंत्रों में घिरते, उनसे लड़ते और उन फैसलों को असफल होते हुए देखते हैं. वह पाता है कि उसकी बात जनता समझ नहीं रही, उसके सारे फ़ैसलों को कोई समझने वाला नहीं है या तो उसको उखाड़ फ़ेंकने की साजिश चल रही है या उसको अपने इशारो पर नचाने की तैयारी. इन सब के बीच वह चांदी के साथ तांबे के सिक्के चलाने, हिन्दू मुस्लिम आवाम को करीब लाने, राजधानी को अपने राज्य के केन्द्र में ले जाने इत्यादि फ़ैसले करता है. लेकिन किसी फ़ैसले को कारगर होते हुए नहीं देख पाता. उसकी त्रासदी यह है कि उसकी ज़बान कोई नहीं समझता. दौलताबाद के किले के प्राचीर पर टहलता हुआ वह अपने आप को निराशा में डूबता हुआ पाता है. साजिश और अपनी सता का अमल उसे क्रूर और शातिर भी बनाती है. वह अपने विरोधी इमामुद्दीन को अपने ही हक में इस्तेमाल कर उससे उसकी आवाम छीन लेता है, शहाबुद्दीन के षडयंत्र को विफ़ल कर उसकी क्रुरतापूर्वक हत्या कर उसे शहीद भी बना देता है. सियासत में घिरा हुआ वह राज्य में चोर उचक्कों को फ़ैलते, अपने फ़ैसलों के दुष्परिणाम झेलते हुए इस स्तर पर पहूंचता है कि इबादत पर भी पाबंदी लगा देता है. उसकी विडम्बना है कि उसे कोई समझ नहीं पाता और वह सबको समझाना चाहता है. जनता उसे सनकी बादशाह कहती है. वह अकेला पड़ता जाता है और उसके सभी अपने उसे बारी बारी से छोड़ कर चले जाते हैं. वह इतना न्यायपसंद है कि अपनी सौतेली मां को भी मौत की सजा सुना देता है, वह इतना चालाक है कि इमामुद्दीन के विरोध को दबा देता है, वह इल्म का इतना कद्रदान है कि विद्रोही इमान उल मुल्क को शतरंज की समस्या के हल के एवज में छोड़ देता है, वह इतना फिक्रमंद है कि बाप और भाई की हत्या का झूठे आरोप उसे परेशान करते हैं, इतना भविष्यदर्शी कि उसके लिए गये फ़ैसले भविष्य के समाज में चलन बनते हैं, इतना क्रुर की शहाबुद्दीन की बेरहमी से हत्या करता है और वह इतना उदार भी है कि एक चोर को सुबेदार बना देता है.  
प्रस्तुति मे बेहतरीन दृश्य वह हैं जब तुगलक शहाबुद्दीन की हत्या करता है, उस समय के संवाद और दृश्य योजना अभीभूत कर देने वाले हैं, फिर दौलताबाद के किले की प्राचीर पर टहलते हुए तुगलक जब सैनिक से बात करते हुए उसे समझा पाने में विफ़ल रहता है, जब अजीज यह कहता है कि खुलेआम लूटो और कहो कि हुकूमत है और जब अकेला पड़ता हुआ तुगलक नींद के आगोश में समाने लगता है और दिल्ली लौटने का फ़ैसला करता है. प्रस्तुति में कुछ दृश्य सपाट रह जाते हैं जिसके अर्थ हैं. जैसे शेख इमामुद्दीन को कपड़े पहनाता हुआ तुगलक, तुगलक उसे कपड़ा नहीं पहना रहा अपना इमेज अपना चरित्र उसे दे रहा है क्योंकि वे दोनों हमशक्ल है, दौलताबाद के किले पर टहलने का दृश्य इतनी जल्दीबाजी में शुरू होता है कि तुगलक की बेचैनी नहीं उभर पाती, तुगलक और उसकी सौतेली मां का संबंध विकसित नहीं हो पाता. कुछ अनावश्यक भी हैं, जैसे शहाबुद्दीन को मारते हुए तुगलक कहता है ‘शहाबुद्दीन तुम भी’ यह जुलियस सीजर का संवाद है. तुगलक जिस तरह से शहाबुद्दीन को मारता है उसी तरह अज़ीज़ गयासुद्दीन को मारता है. प्रस्तुति आलेख में नाटक के सबसे महत्त्वपूर्ण पक्ष को कमजोर किया गया है वह है अजीज का चरित्र. वह एक हास्य के फीलर की तरह केवल ठग में तब्दील हो कर रह जाता है. नाटक में से उसके महत्त्वपूर्ण संवादों को भी हटा दिया गया है. नाटक के द्वंद्वत्त्मकता का एक पक्ष तुगलक और अजीज का चरित्र भी है. जिसको आमने सामने रखने सी ही दोनों का चरित्र अच्छी तरह उभरता.
इस नाटक को जब लिखा गया था तब यह नेहरू युग के स्वप्नों के बारे में था उसके महात्वाकांक्षी स्वप्नों और उसकी विफ़लता को एक आख्यान में ढालने की कोशिश थी. इस प्रस्तुति में सबकी नजर यहीं थी कि निर्देशक आज के यथार्थ से इस नाटक की प्रतीकात्मकता को कैसे जोड़ता है. नाटक के आलेख को ही अप्रासंगिक मान लेना एक ज्यादती है क्योंकि ‘तुगलक’ में राजनीतिक तत्व अधिक है बनिस्पत ऐतिहासिक तत्व के. प्रस्तुति देखते हुए गिरिश कर्नाड के नाटक और ब.व.कारंत के अनुवाद की जीवंतता पर मुग्ध हुए बिना नहीं रहा जा सकता. निर्देशक की जिम्मेवारी थी कि वह अपनी व्याख्या से इस नाटक को वर्तमान संदर्भ में अर्थवत्ता प्रदान करता, जिसमें निर्देशक विफ़ल रहा है और इस तरह से उन्होंने ‘अंधा युग’ को ही दुहरा दिया जिसमें महत्वपूर्ण हिस्सों को संपादित कर के उसे निस्तेज बना दिया गया था इस बार उन्होंने उन हिस्सों को संपादित किया जो इसे संदर्भवान बनाते. अज़ीज़ के एक संवाद को छोड़कर नाटक अतीत के आख्यान जैसा ही था. वर्तमान से जुड़ने की इसकी बेचैनी उसके नाटकों के संवादों में देखी जा सकती थी, जैसे यह संवाद आते उम्मीद बढ़ती लेकिन फिर नाटक को सपाट होता हुआ देखते खीझ महसूस होती. प्रस्तुति एक गौरवशाली नाटक की पुनर्प्रस्तुति जैसी बनके रह गई और इसका भीतरी अर्थ इसकी भव्यता, तामझाम, दृश्यबंध और फ़ैलाव में ही उलझ कर रह गया. ऐसा क्युं हुआ? क्या इसलिए कि यह राज्य प्रायोजित प्रस्तुति थी और इसमें राज्य के विरोध में जाने के सारे अर्थों को दबा के तुगलक के असफ़ल लेकिन दुरगामी निर्णयों को प्रतिष्ठित किया गया? एक दृश्य के अलावे जनता की विस्थापन की वेदना और निर्णयो से उपजे असंतोष सामने नहीं आए? जो दृश्य आए वह हास्यास्पद बन कर रह गए.
अंधा युग की प्रस्तुति के समय ही ऐसा लगता है कि भानु भारती समग्र प्रस्तुति की जगह दृश्यों को संस्थापित कर देते हैं जिसे दर्शक टुकड़ो टुकड़ो में देखता है. दृश्यों की अबाध शृंखला की जो बात ऊपर हुई वैसा नहीं होता इसलिए अर्थ भी निर्मित नहीं होता. ऐसा इसलिए भी होता है क्योंकि अभिनेता अलग अलग जगहों पर काम करने वाले होते हैं. पूर्वाभ्यास के इन दिनों में भी आपस में कोई संगति नहीं बनती. नाटक में ऐसे कई चरित्र उभरते ही नहीं जैसे आजम, इमामुद्दीन और शमसुद्दीन का. सौतेली मां और तुगलक का संबंध का अर्थ भी दब जाता है. उभरता है तुगलक का चरित्र और इसे अपने बेहतरिन प्रतिभा से यशपाल शर्मा संभव बनाते हैं. और प्रस्तुति में सबसे अलग उंचे दिखते है, इसके बावजुद कि उनके तलफ़्फ़ुज़ में कमी है और संवाद भूलते हैं लेकिन तुरत संभालते हैं. अपनी भूमिका के लिये उनकी मानसिक तैयारी जबरदस्त है जो दिखती है. तुगलक के शातीरपन, इल्म के प्रति उसकी दी्वानगी, रियाया के लिये बेचैनी, इंसाफपसंदी, अपने फ़ैसलो के परिणाम का दु:ख, क्रूरता, सत्ता को बनाए रखने की जिद और अकेले पड़ जाने की हताशा सभी रंग उनके किरदार में है. अपने संवाद अदायगी में भी वे तंज के तेवर और उतार चढ़ाव को अनुकूल जगह पर ले आते हैं. बाकी के पात्र में टीकम जोशी असर छोड़ते हैं, उन्होंने आलेख में अपने लिए जगह बनाई है एक सजग अभिनेता की तरह. शेख इमामुद्दीन की छोटी सी भूमिका में सज्जाद प्रभावित करते हैं. शमसुद्दीन बने रवि झांकल, नजीब बने रवि खानविलकर, सौतेली मां बनी हिमानी शिवपुरी भी कुछ नया नहीं जोड़़ते और प्रस्थान प्रवेश के समय उनकी गति भी प्रभावित होती है. बर्नी की भूमिका में लगता है कि अभिनेता थका हुआ है और शहाबुद्दीन का किरदार भी मिस्कास्ट है. लगभग पात्र अपना संवाद भूलते हुए दिखे, अल्फ़ाज भी बहुत लापरवाही से बोला गया. ये समझना कठिन रहा कि बड़ी भूमिकाओं के अलावा छोटी भूमिकाओं में भी बाहर से अभिनेता क्युं लिया गया?
संगीत बीच बीच में दृश्यों के गैप में इस्तेमाल किया गया था, कभी कभी पृष्ठभूमि के तौर पर भी. प्रकाश व्यवस्था अत्याधुनिक किस्म की थी. लाइटस के पैनल लगे थे और दूर दूर के हिस्सों के साथ साथ नीचे की जमीन को भी रोशन किया गया था लेकिन फिर भी कभी भी अभिनेता का चेहरा पर्याप्त रोशन ना हुआ. जो जरूरी था क्योंकि अभिनेता दर्शक से अधिक् दूरी पर था. अभिनेता उसे दिख नहीं रहा था और तुगलक जैसे किरदार में जिसके दिमाग में कुछ ना कुछ चल रहा है उसके चेहरे को अंधेरे में रखने से बात नहीं बनती? मुख्य हिस्सों में रोशनी चेहरे पर कम रही. प्रकाश ने भव्यता के लिए माहौल बनाया. रंगमंच में आजकल नीले प्रकाश का प्रचलन बढ़ा है और नीला रंग सुकून देता ही है,  विभिन्न कोणों से पड़ रहे प्रकाश प्रभावित भी करते हैं.
प्रस्तुति की भव्यता में हम किले में प्रवेश के साथ ही रु-ब-रु होते हैं. किले के सबसे अंतिम भाग में एक दीवार के सहारे नाटक का पूरा दृश्यबंध बनाया गया है जो पांच भागों में है, और पीछे एक पुल जैसा है जो यमुना पर बने पुल का आभास दिलाता है. समस्त कार्यव्यापार इन्हीं पांच जगहों पर होता है. पहला स्थल है आम सभा का जहां आम सभा होती है, जनता आपस में बात करती है, और इसकी बहुधारतलीयता इसे गुप्त बैठकों का ठिकाना भी बना देती है. दूसरा तुगलक का कक्ष, इस कक्षा में कुरान और आलमारी की योजना थी लेकिन उस पर किताबे नहीं थी जिससे तुगलक के अध्य्यनशील होने का पता चलता. तीसरा हिस्सा था दिल्ली से दौलताबाद के बीच के रास्ते का शिविर, चौथा था दौलताबाद के किले की प्राचीर और पांचवा था जंगल का हिस्सा जहां अजीज खलीफ़ा के वशंज गयासुद्दीन को मारता है. नाटक का अधिकांश भाग पहले दो स्थलों पर ही था अंतिम के तीन स्थलों पर एक एक दृश्य था. इन पांच स्थलों की वज़ह से स्पेस योजना बहुत ही विस्तृत हो गई और दर्शकीय विजन के अनूकूल नहीं थी. मध्य स्थल के सामने के दो स्थलों के अलावा बाकियों को देखने के लिये मशक्कत करनी पड़ रही थी. दृश्य बदलने पर गर्दन घुमाते घुमाते हुए भी खासा व्यायाम हो गया. तीन दृश्यों के लिए निर्देशक अधिक कल्पनाशील ढंग से स्पेस के मध्यभाग में ही स्थल नियोजित कर सकता था लेकिन भव्यता के चक्कर में दर्शकों की सुविधा का खयाल नहीं रहा और उन एक एक दृश्य के अलावा पूरे नाटक में उनकी कोई उपयोगिता भी नहीं थी.
 इतनी तामझाम की प्रस्तुति का औचित्य क्या है? क्या दर्शकों को ऐसी भव्यता और सिनेमा के कलाकारों के आकर्षण में बांध कर रंगमंच की ओर लाना? ठीक है कि इससे दर्शक आते हैं लेकिन तब क्या ये जिम्मेवारी बढ़ नहीं जाती की उसे एक बेहतर नाट्य अनुभव प्रदान किया जाए जिससे वे रंगमंच की ओर आए और टिके भी. प्रस्तुति की सपाटता, फारसी और उर्दु के अल्फ़ाज और नाटक की लंबाई(बिना माध्यांतर के ढाई घंटा) ने दर्शकों को ऊबा नहीं दिया था! निर्देशक को यह सोचना चाहिए.  बिना टिकट के, फ़ैशनपरस्ती में आये दर्शक रंगमंच के प्रति क्या वफ़ादार रहेंगें?
रंगमंच को इस नाटक से क्या मिला? यह एक बड़ा मौका हो सकता है, लेकिन पिछले दो वर्ष से जाया हो रहा है. स्थानीय रंगमंचीय अभिनेता भीड़ में जगह पाता हैं और टेलीविजन सिनेमा के आयातित अभिनेता मुख्य भूमिका. रंग अनुभव के विकास के लिये इन दो प्तरह के अभिनेताओं का मेल कितना लाभप्रद होता होगा! जब भीड़ के अभिनेता मुख्य अभिनेता को दूर से ही देख पाते हैं उनके बीच कोई अंतर्क्रिया भी करवाई जाए तो रंगमंच को लाभ हो. अगर दिल्ली सरकार इस आयोजन के लिए गंभीर है तो उसे रंगमंच के व्यापक हित को ध्यान में रखना चाहिए. और बेहतर प्रतिभा से बेहतर प्रस्तुति करानी चाहिये नहीं तो ‘आयोजन’ के सिवा इसका कोई महत्त्व रह जायेगा?

आलेख रंगविमर्शसे साभार. अमितेश कुमार से यहाँ संपर्क करें.

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