जो लोग मध्यप्रदेश की अपनी
सांस्कृतिक यात्रा से वाकिफ हैं उनको ये बताने की जरूरत नहीं है कि न सिर्फ इस
रंगयात्रा में बल्कि संस्कृति यात्रा में हबीब तनवीर की केन्द्रीय भूमिका रही है.
जब भारत भवन में रंगमंडल
बनाने की बात हुई थी तो सबसे पहले निर्देशक का प्रस्ताव लेकर मैं उनके पास गया था. उन दिनों उनके लिए ये संभव नहीं था कि वो अपने छत्तीसगढ़ के रंग कलाकारों को छोड़कर
यहां आएं. या हमारे लिए संभव नहीं था कि भारत भवन में सिर्फ छत्तीसगढ़ी के कलाकारों
को लेकर एक रंग मंडल बनाएं. बहरहाल वो नहीं आ सके थे.
मेरा जन्म छत्तीसगढ़ में हुआ और बाद
में सरकारी नौकरी में थोड़े दिन छत्तीसगढ़ में काम करने का भी मौका मिला. लेकिन मैं
ये नहीं कह सकता कि मैंने छत्तीसगढ़ को वैसा जाना था, जैसा हममें से बहुतों ने सबसे पहले छत्तीसगढ़ी कलाकारों को हबीब तनवीर
के नाटकों में देखकर जानना शुरू किया.
मुझसे कोई सलाह क्यों लेगा. आजकल तो
वैसे भी नहीं लेता. लेकिन अगर ले तो इस नए छत्तीसगढ़ राज्य का पहला राज्यपाल हबीब
तनवीर को बनाना चाहिए....अगर किसी एक व्यक्ति का नाम लिया जा सकता है पिछले पचास
वर्ष में, जिसने छत्तीसगढ़ को उसकी अस्मिता दी है, उसकी पहचान दी है, और
छत्तीसगढ़ पर जो जिद करके अड़ा रहा है. और ये जिद सारे संसार में उन्हें ले गई है तो
वह हबीब तनवीर हैं.
एक तो हिन्दी में ही नाटक करना कठिन
है, ऐसे में हम कभी नहीं सोचते थे कि एक
बोली और वो भी हिन्दी की एक उपबोली में नाटक करें. और उस नाटक को इस हद तक ले जाएं, इतने बरसों तक ले जाएं. बोली जो निपट स्थानीय है. और प्रभाव
और लक्ष्य जो सार्वभौमिक है.
हबीब तनवीर ने एक तो पहली बार ये
सिद्ध किया कि बोली में भी समकालीन होना न केवल संभव है बल्कि बोली भी समकालीनता
का ही एक संस्करण है.
आप में से बहुतों को ये याद होगा कि
हबीब तनवीर भारत भवन के आरंभिक न्यासियों में से थे. भारत भवन (अब तो भारत भवन का
अनौचित्य बताना जरूरी है. लेकिन उस जमाने में हम लोग औचित्य बताते थे.) के मूल में
ये परिकल्पना थी कि समकालीन सिर्फ शहर में रहने वाला नहीं है. वो परिकल्पना ये थी
कि समकालीन सिर्फ वो नहीं है जो तथाकथित एक नागरिक किस्म की आधुनिकता में फंसा हुआ
है. समकालीन वो भी है जो जंगल में रहता है. जो पहाड़ में रहता है. जो शायद किसी तरह
की समकालीन अभिप्रायों से बिल्कुल अनजान है.
असल में अपने-अपने ढंग से अलग-अलग
क्षेत्रों में तीन लोगों ने मध्यप्रदेश में ये काम किया. सबसे क्रांतिकारी काम तो
निश्चय ही हबीब तनवीर का है. जिन्होंने छत्तीसगढ़ की बोली को लेकर काम किया. और
सिर्फ बोली नहीं, बोली
के साथ जो कुछ जुटा होता है, उन सब
पर. बोली लेना तो आसान काम है. लोकगीत वोकगीत गाते रहते हैं आकाशवाणी पर. उससे कुछ
बात बनती-वनती नहीं है. लेकिन बोली के साथ जो समूची जातीय स्मृति है, जो समूची लोक संपदा है, जो
उसके बिंब हैं,
जो उसकी मुद्राएं हैं, उन सबको गूंथकर कुछ ऐसा करना जो स्थानीय भी है और जो
स्थानीयता से आगे भी जाता है.
अधिकांश लोगों को छत्तीसगढ़ी समझ में
नहीं आती थी. हिन्दी वालों को भी नहीं आती है तो गैर हिन्दी वालों को क्या आती.
लेकिन इससे उनके उनके नाटक के प्रभाव में कभी कोई क्षति नहीं हुई. कोई हानि नहीं
हुई. एक काम किया रंगमंच में हबीब तनवीर ने. दूसरा काम किया कुमार गंधर्व ने.
मालवी लोकसंगीत को लेकर एक शास्त्रीय संगीत को सबवर्ड करने का काम. ये तीनों काम
असल में बहुत ही आधुनिक शब्दावली में कहें तो सबर्वशन के काम हैं. तीनों लोगों के.
हबीब तनवीर ने आधुनिक भारतीय रंगमंच
को सबवर्ड किया. उसको उसकी तथाकथित यथार्थवादी और एक तरह की पश्चिम की नकल में हो
रहे यथार्थवादी आग्रहों से मुक्त किया. सबवर्ड किया, इस अर्थ में भी कि बोली में शास्त्र को भी और आधुनिक को भी, दोनों को अपने में संभव करना शुरू किया.
बहुतों ने देखा होगा ‘मिट्टी की गाड़ी’. मैंने
पहली बार अपने जीवन में यह देखा था कि शास्त्र को लोक कैसे मुंह चिढ़ाता है. कैसे
जब संस्कृत के,
मतलब ‘मिट्टी की गाड़ी’, ‘शूद्रक’ अद्भुत नाटक है. या ‘मुद्राराक्षस’ की संस्कृत की पदावली. संस्कृत के वक्तव्य यकायक छत्तीसगढ़ी
में जब बोले जाते थे या छत्तीसगढ़ी कलाकार उनको अपने ढंग से बोलते थे. तो वो जो एक
बहुत महिमा मंडन था संस्कृत का. एक विराट आभिजात्य था जो अपने आपमें बहुत सुंदर
है. मैं उसकी अवमानना नहीं करना चाहता. वो महान है. लेकिन उसको जैसे मुंह चिढ़ाते
थे ये लोग. जैसे एक डिप्रेशन होता है शास्त्र का लोक द्वारा. बिना शास्त्र की
मर्यादा का उल्लंघन किए. शास्त्र को लोक में ऐसे संभव जैसे हबीब तनवीर ने बनाया.
वैसे ही एक दूसरे स्तर पर कुमार
गंधर्व ने बनाया. कौन-सा ऐसा शास्त्रीय गायक है जो तीन घंटे का एक मालवा की लोक
धुनें कार्यक्रम प्रस्तुत कर सकता है. थोड़ा कजरी वजरी गा देते थे अंत में. बहुत
सारे कलाकार एक थोड़ा क्षेत्रिय, थोड़ा
लौकेक छौंक लगाने के लिए आखिर में. लेकिन बड़े-बड़े उस्ताद बड़े-बड़े पंडित ये हिम्मत
नहीं कर सकते थे कि लोक संगीत का एक पूरा कार्यक्रम प्रस्तुत कर दें. जो कुमार
गंधर्व ने किया.
तीसरा काम हमारे मित्र जगदीश
स्वामीनाथन ने कला के क्षेत्र में किया. भारत भवन के माध्यम से. जहां लोक और
आदिवासी कलाकार को वही समकक्षता दी जो समकालीन कला को हासिल थी. अकबर पदमसी और
हुसैन और रजा और मंजीत बावा के साथ-साथ प्रेमा फात्या और जनगण सिंह श्याम और वो सब
लोग आए. मिट्टी बाई, भूरी
बाई इत्यादि.
ये दिलचस्प बात है कि ये तीनों काम
मध्यप्रदेश में हुए. ये दिलचस्प बात नहीं है इस अर्थ में कि ये शुद्ध संयोग है. ये
कोई भौगोलिक या जैविक संयोग नहीं है कि ऐसा यहां संभव हुआ. दो लोग ऐसे थे जो असल
में मध्यप्रदेश के नहीं थे. कुमार गंधर्व मूलत: मध्यप्रदेश के नहीं थे. स्वामीनाथन
भी मूलत: मध्यप्रदेश के नहीं थे. हबीब तनवीर मूलत: मध्यप्रदेश के हैं. लेकिन ये
इसलिए हिन्दुस्तानी आधुनिक कला परिदृश्य में पिछले पचास वर्षों में, मुझे ये कहने की इजाजत दीजिए. कम से कम भोपाल में तो कहा ही
जा सकता है;
आधुनिकता का जो सबर्वशन तीनों
ने किया, उसमें आधुनिकता का जो दृश्य था वो
मौलिक रूप से बदल दिया.
उन रंगकर्मियों में, कलाकारों में, संगीतकारों में एक नया आत्मविश्वास पैदा हुआ, जो चाहे आधुनिकता
के कारण या शास्त्रीयता के कारण अपनी लोक परंपरा को कुछ अविश्वास, कुछ संदेह, कुछ बेचैनी से
देखते थे.
ये सिर्फ ऐसे लोगों को जड़ों तक वापस ले जाने का प्रयत्न
नहीं था, जो जड़ से टूट चुके
थे. बल्कि जो लोग जड़ों के आसपास अभी भी आत्म विश्वासहीन मंडरा रहे थे, उनको उन जड़ों पर
फिर से जम जाने देने की दावत थी.
इसीलिए बाद में हिन्दुस्तान में दो तरह की राष्ट्रीयताएं
बनना शुरू हुईं, जो अगर विरोधी नहीं
भी हैं तो एक दूसरे से थोड़ा अलग थीं. मैं सिर्फ कला और साहित्य के क्षेत्र की बात
करता हूं. एक थी जो ये मानती थी कि हमको परम परिष्कार चाहिए, आभिजात्य चाहिए. हम
एक नया देश हैं. हमारे काम में कुछ ढीला पोलापन नहीं होना चाहिए. हमको सब कुछ कर
सकना चाहिए. और इप्सम भी कर सकना चाहिए, शेक्सपियर भी कर सकना चाहिए, ग्रीक नाटककार भी
कर सकना चाहिए. ये सब हमारी राष्ट्रीय आत्मविश्वास के लिए आवश्यक हैं. जिसके बड़े
भारी स्थापति हुए इब्राहिम अलकाजी. उनके काम का बहुत महत्व है.
एक तरह की राष्ट्रीयता थी, जो बहुत सारी स्थानीय विशेषताओं को तजकर, छोड़कर बनाई गई
राष्ट्रीयता थी. जिसमें इन सब चीजों को थोड़ी-बहुत जगह भले दे दी जाए लेकिन....मैंने
नाटक देखे हैं. मैंने ‘अंधायुग’ देखा था. उस दिन जब
‘अंधायुग’ नाटक फिरोजशाह
कोटला के मैदान में हुआ था, उन खंडहरों में. वो
हिन्दी रंगमंच के लिए, भारतीय रंगमंच के
लिए एक ऐतिहासिक क्षण था. इसमें कोई शक नहीं है. वो पिछले पचास साल की श्रेष्ठतम
प्रस्तुतियों में से है. लेकिन अलकाजी की जो रंग दृष्टि थी, वो हमको विश्व स्तर
पर लाने के लिए परिष्कार और आभिजात्य की रंग दृष्टि थी. जरूरी थी. अच्छी थी. उसके
बहुत अच्छे परिणाम भी निकले.
जो एक दूसरी व्यंग्य दृष्टि थी, वो भी थी शंभु
मित्र की. जो संयम की और एक तरह के भावेच्छवास और संयम दोनों की मिली-जुली दृष्टि
थी. उसमें भी बहुत सारा पश्चिम का शामिल था. लेकिन एक भारतीय संयम भी उसमें था. और
एक तीसरी दृष्टि थी. वो हबीब तनवीर की दृष्टि थी.
वो ही एक दृष्टि थी, जो मानती थी कि हमारी लोक परंपरा में सब कुछ करना
संभव है. कि इसका जीवट, कि इसकी जड़ें, कि इसकी जिजीविषा, इसकी ऊर्जा इतनी
अदम्य, इतनी अपार है कि
इसमें शास्त्र को और आधुनिक को पालतू बनाने में कोई दिक्कत नहीं होगी. ये भी एक जरूरी
आधुनिकता थी. ये भी एक जरूरी राष्ट्रीयता थी. जो बहुत कुछ को छोड़कर, भूलकर बनाई गई एक
आधुनिक राष्ट्रीयता नहीं थी. बल्कि जो जहां-जहां जो कुछ है, उसको अपनी जगह देते
हुए उसी जगह में गठित आधुनिकता थी. और इस आधुनिकता का अब धीरे-धीरे हम पर प्रभाव
बढ़ रहा है. अब धीरे-धीरे हमको नजर आ रहा है कि हम अगर पूछे जाते हैं. काहे के लिए
पूछे जाते हैं हम ? हम उन चीजों के लिए
पूछे जाते हैं, जो पहले ही धक्के
में निपट भारतीय लगती हैं.
जब एडिनबरा के समारोह में बरसों पहले हबीब तनवीर को प्रथम
पुरस्कार मिला था तब बहुत लोग चौंके थे. ये पुरस्कार उस आधुनिकता को नहीं मिला था, जो अलकाजी ने
विकसित की थी. ये पुरस्कार उस संयमित आधुनिकता को भी नहीं मिला था जो शंभु मित्र
ने विकसित की थी. ये पुरस्कार उस कच्ची ऊबड़-खाबड़ बीहड़ आधुनिकता को मिला था, जो हबीब तनवीर ने
किसी हद तक खोजी थी. किसी हद तक विन्यस्त की थी और किसी हद तक विकसित की थी.
आप सब जानते हैं कि हबीब तनवीर के बहुत सारे नाटक, बहुत सारे रंग
समीक्षकों को एक जमाने में अंडर रिहर्सड नाटक लगते थे. मुझे याद है, मैंने गालिब पर
उनका एक नाटक देखा था. जिसमें शायद रिहर्सल का वक्त न मिल पाने की वजह से सारे
पात्र अपने हाथ में अपना-अपना जो पाठ था, वो लेकर पढ़ते थे. तो एक-एक नाटकीय विधि ही बन गया था.
स्वयं हबीब तनवीर उसमें गालिब की तरह थे और वो हाथ में लेके पढ़ते थे.
ये जो अंडर रिहर्सड है, इसके पीछे भी एक कारण है. एक बना बनाया रूपाकार पहले से तय नहीं है. शास्त्र में पहले से तय होता है. पूर्व रंग. फिर ये होगा, फिर ये होगा, फिर सूत्रधार आएगा, फिर ये करेगा, फिर वो करेगा. हबीब तनवीर के नाटकों में एक जो लचीलापन-सा है, जिसको कई लोग ढीलाढालापन भी कहते हैं, वो बहुत सख्ती से बांध दिया गया किन्हीं सीमाओं में महदूद किया हुआ नाटक नहीं है. हर नाटक ऐसा लगता है कि थोड़ी देर और चल सकता था. वो कुछ-कुछ मल्लिकार्जुन मंसूर के गाने सा है. यानी कभी-कभी मल्लिकार्जुन गाते-गाते उनको लगता था कि अरे पंद्रह मिनट हो गए खतम करो. तो वो फट से खतम कर देते थे. कहां आप अंदाज लगाते हैं कि भाई ऐसा गाएगा. फिर यों करेगा और फिर धीरे से उसका अवसान होगा.
ये जो अंडर रिहर्सड है, इसके पीछे भी एक कारण है. एक बना बनाया रूपाकार पहले से तय नहीं है. शास्त्र में पहले से तय होता है. पूर्व रंग. फिर ये होगा, फिर ये होगा, फिर सूत्रधार आएगा, फिर ये करेगा, फिर वो करेगा. हबीब तनवीर के नाटकों में एक जो लचीलापन-सा है, जिसको कई लोग ढीलाढालापन भी कहते हैं, वो बहुत सख्ती से बांध दिया गया किन्हीं सीमाओं में महदूद किया हुआ नाटक नहीं है. हर नाटक ऐसा लगता है कि थोड़ी देर और चल सकता था. वो कुछ-कुछ मल्लिकार्जुन मंसूर के गाने सा है. यानी कभी-कभी मल्लिकार्जुन गाते-गाते उनको लगता था कि अरे पंद्रह मिनट हो गए खतम करो. तो वो फट से खतम कर देते थे. कहां आप अंदाज लगाते हैं कि भाई ऐसा गाएगा. फिर यों करेगा और फिर धीरे से उसका अवसान होगा.
हबीब तनवीर के नाटकों में ये अक्सर ऐसा लगता है कि थोड़ी देर
और चल सकता था. असल में हबीब तनवीर का नाटक जितना मंच पर चलता है, उससे कुछ अधिक ही
शायद उसके पहले और उसके बाद चलता है. इस अर्थ में चलता है कि छत्तीसगढ़ में जिन लोक
प्रकारों को उन्होंने चुना अपने-अपने रंग संयोजन के लिए, वो सब लगभग रात-रात
भर चलने वाले हैं. वो कोई दो-ढाई घंटे वाले नहीं हैं. छत्तीसगढ़ में लोगों के पास
सौभाग्य से इन सब चीजों के लिए काफी वक्त है. और काफी फुर्सत है. और उनको कहीं
जाने की जल्दी नहीं होती. स्थान से भूमि की ओर जाना यानी स्थानीयता से
सार्वभौमिकता की ओर जाना. स्थान है छत्तीसगढ़. लेकिन भूमि तो सारा संसार है. स्थान
से भूमि तक जाने का जो सफर है वो जल्दबाजी में तय नहीं हो सकता. वो हड़बड़ी में तय
नहीं हो सकता. वो बहुत कम वक्त, जिनके पास फुर्सत कम है उनके लिए ये नाटक नहीं हैं. हालांकि
कम फुर्सतिया लोग भी देख के प्रसन्न ही होते हैं. लेकिन अब इसको क्या किया जाए कि
मूर्ख भी कई बार निवेदन सुनकर मुस्करा ही देते हैं.
कुल मिलाकर नाटक जो है वो एक तरह का हस्तक्षेप है. एक
रंगक्षेप है, जिसमें आप वो नाटक
देखते हैं. लेकिन नाटक प्रसंग पहले भी चल रहा है. और नाटक बाद में भी चलता है.
क्योंकि वो जो सिर्फ नाटक का मोटा-मोटा सा कथ्य है, उसको ही हबीब तनवीर की रंग शैली सबवर्ड कर देती है.
ये आकस्मिक नहीं है कि हबीब तनवीर उन चंद निर्देशकों में से हैं, जिन्होंने लिखे
लिखाए नाटक बहुत कम किए हैं.
मोहन राकेश, धर्मवीर भारती, बादल सरकार, विजय तेंदुलकर, गिरीश कर्नाड जैसे प्रसिद्ध नाटककारों का नामटक करके
ही उन दिनों कीर्ति बनती थी. पिछले बीस पच्चीस साल में बनती रही है. ये सब बड़े बड़े
नाम हैं. हबीब तनवीर ने इनमें से किसी का नाटक नहीं किया. जहां तक मैं जानता हूं, कम से कम उनके
कुख्यात नाटकों में ये नहीं हैं. जिन नाटकों से उनकी बदनामी होती है, उन नाटकों में से
एकाध छोड़ दें, ‘मिट्टी की गाड़ी’ और अब ‘कामदेव का
अपना...सपना’ और ये शेक्सपियर का
जो है, तो या तो उन्होंने
क्लासिक लिए हैं, शेक्सपियर, शूद्रक इत्यादि या
फिर खेलते-खेलते नाटक बनाए हैं. ‘चरणदास चोर’ की कहानी आप सब जानते हैं. कैसे चरणदास चोर की वो
कहानी है, जिससे वो नाटक बना
है. अक्सर उनके कलाकार मिलकर नाटक बनाते हैं.
इसलिए ये वो नाटक नहीं हैं, जिन नाटकों का एक बंधा बंधाया और सुनिश्चित कथ्य है. आजकल चूंकि वो बहुत बदनाम हैं, इसलिए उसका जिक्र आवश्यक है. एक अर्थ में आधुनिकता के मतलब
भरे-पूरे समय में, आधुनिकता की भरी
जवानी में, हबीब तनवीर के नाटक
उत्तर आधुनिक हैं. यानी उनका जो रूपाकार है वो.
बहुत ही आदि मध्य और अंत वाली जो मानसिकता थी, आधुनिकता की जिसमें
हर चीज मुकम्मल होनी चाहिए. किसी चीज को आप ढीला नहीं छोड़ सकते. ये नहीं कि इससे
अगर आपके मन में ये छवि बन रही है कि ऐसा ढीला-ढालापन कोई बहुत आसान बात है. ठीक
उसी तरह से जैसे जो लोग मुक्त छंद नहीं लिखते हैं और सिर्फ छंद में ही अपनी गति
पाते हैं. या दुर्गति पाते हैं अक्सर वो सोचते हैं कि छंद जो है. मुक्त छंद लिखना
बहुत आसान है. कोई भी लिख सकता है.
ये ढीलाढालापन, ये आधुनिकता का और शास्त्र का सबर्वशन आसान बात नहीं
है. इसमें बहुत सामर्थ्य की भी जरूरत है. बड़ी गहरी कल्पनाशीलता की भी जरूरत है. और
इसमें एक ऐसी सूत्रधारी प्रतिभा की भी जरूरत है, जो लोगों को सब कुछ खेलने की छूट दे. लेकिन जब जरूरी
लगे तो धीरे से धागा या ताना खींच दे. इसमें अक्सर ये होता रहा है.
आप इसे उनके तीन नाटकों में देख सकते हैं. एक है ‘आगरा बाजार’. ‘आगरा बाजार’ अव्वल तो पहले नाटक
ही नहीं था. उन्हीं ने बनाया. नजीर अकबराबादी की कविताओं में जिस आगरा शहर का, आगरा बाजार का बखान
है, उन कविताओं को लेकर
एक पूरा नाटक है. अब आप पूछें कि नाटक का कथ्य क्या है. वो नाटक यहां से कहां जाता
है. वो कहीं नहीं जाता. वो आपको ‘आगरा’ नाम के एक स्थान में, ‘आगरा बाजार’ नाम के एक स्थान में ले जाता है. ये उसकी परम
स्थानीयता है. नजीर अकबराबादी की कविताओं से तिखरी वाला आता है और फलाना आता है और
बंदर वाला आता है और ये आते हैं और वो आते हैं. आगरा बाजार जिन्दगी का एक जो मेला, जो तमाशा, तमाशा ए अहले करम, जो हमारे सामने हो
रहा है. ‘होता है शबे रोज
तमाशा मेरे आगे’ वाले अंदाज में. उस
तमाशे का एक हिस्सा ये नाटक है. इसमें कोई कहानी नहीं है. उस अर्थ में कोई कहानी
नहीं है, जिस अर्थ में बाकी
इतिहास में कहानी है. जिस अर्थ में ‘आषाढ़ का एक दिन’ में कहानी है.
ये कहानी से मुक्त नाटक है. उसमें आपको दो-ढाई घंटे जिन्दगी
का एक कच्चा-पक्का बिखरा हुआ-सा और फिर भी बहुत बाकायदा अनुस्यूत दृश्य मिलता है.
बीच-बीच में संस्कृत शब्दों का इस्तेमाल करके ये बताना आवश्यक है कि आपको शास्त्र
का पर्याप्त ज्ञान है. इस तरह से बना हुआ एक हिस्सा दिखाया जाता है.
आप दूसरा नाटक लें ‘मिट्टी की गाड़ी’. ‘मिट्टी की गाड़ी’ की एक कहानी है. शूद्रक ने उसे लिखा है. जैसा मैंने
पहले कहा कि पहली बार एक साधारण आदमी के नायकत्व का बोध उस प्रस्तुति से होता है. ‘मिट्टी की गाड़ी’ भारतीय रंग इतिहास
का एक बहुत बड़ा मील का पत्थर है. सन् 1952 या 1954 में जब वो पहली बार आया, तब यकायक पता चला कि जिसको हम मृच्छकटिक कहते हैं, उसको मिट्टी की
गाड़ी भी कह सकते हैं. लेकिन मृच्छकटिक की कुछ लालित्य और कुछ महिमा है, वो थोड़ी-सी अच्छे
अर्थ में घटती है. यानी ये जो नायक है ये हमारे आसपास का हमारे बीच का आदमी लगने
लगता है. बजाय वो दूर कुछ धीरोदआत्त नायक की तरह. नायिका भेद इत्यादि की तरह. वो
सब बहुत अच्छी चीजें हैं. लेकिन उनको थोड़ा-थोड़ा कुरेदना जरूरी है, उनको मुंह चिढ़ाना
जरूरी है, उनको आंगन में ले
आना जरूरी है.
एक महान संस्कृत शास्त्रीय नाटक को जो कि भरत द्वारा विहित विकृष्ट मध्य पर ही संभवत: खेलने योग्य माना जाता था. यह नाटक के विकास का एक बहुत बड़ा मोड़ था कि हम ऐसा कर सकते हैं. यहीं से, स्थान से ही भूमि तक जाया जा सकता है. भूमि से स्थान की ओर आना कठिन है. लगभग असंभव है.
एक महान संस्कृत शास्त्रीय नाटक को जो कि भरत द्वारा विहित विकृष्ट मध्य पर ही संभवत: खेलने योग्य माना जाता था. यह नाटक के विकास का एक बहुत बड़ा मोड़ था कि हम ऐसा कर सकते हैं. यहीं से, स्थान से ही भूमि तक जाया जा सकता है. भूमि से स्थान की ओर आना कठिन है. लगभग असंभव है.
मैं कम से कम ऐसे कोई उदाहरण नहीं जानता, जिसमें कोई महान
कलाकृति भूमि से चलकर स्थान पर पहुंची हो. स्थान से चलकर भूमि तक. सब लोग भूमि तक
चलते हैं स्थान से चलने वाले ऐसा भी नहीं है. बहुत सारे बेचारे रास्ते में ही खत्म
हो जाते हैं. जैसे वो कांवर इत्यादि होता है. कोई हरिद्वार की यात्रा पर गए. रस्ते
में तूफान आ गया, मारे गए. तो अब
वहां पहुंचे की नहीं. खुदा जाने. हर आदमी जो स्थान से शुरू करता है, वो जरूरी नहीं है
कि भूमि तक जाए. लेकिन हर वो व्यक्ति जो भूमि तक पहुंचना चाहता है. ये स्पष्ट है.
कारंत जी बहुत पहले से ही कहते रहे हैं. बाकी सब कलाओं में
तो जैसे ये संभव है कि वो गया. ऐसा कह दिया जाए. कविता में कह दें- वो चला गया.
चला गया. हमारे मित्र कहते हैं “वो चला गया नया गरम कोट पहनकर विचार की तरह.” तो चला गया. इससे
काम चल जाता है. लेकिन रंगमंच में जब चला गया कहें तो उसको जाना पड़ता है. एक
व्यक्ति को सचमुच चले जाना पड़ता है. ये उसकी जो भौतिकता है, एक तरह की स्थूल
भौतिकता है (जैसा कारंत जी एक जमाने में कहते थे कि बहुत ही स्थूल भौतिक प्रकार है
रंगमंच) उसमें जाना होगा. जाना होगा. वो क्रियाएं करनी होंगी. आप बैठे-बैठे कुछ कह
दें, ऐसे चलेगा नहीं.
उनका तीसरा नाटक है ‘चरणदास चोर’. अब चरणदास चोर की कहानी जो है, वो यों तो एक कहानी
है. लेकिन असल में वो एक जो बहुत ही सीधा साधा मिट्टी में मटमैला सा सच है. जो गीत
गाते हैं आरंभ में पंथी- “सत्यनाम सत्यनाम
सत्यनाम साधो महिमा अपार.” ये सत्य की महिमा
का नाटक है. और बार-बार उसका सत्य बदलता रहता है. वो जोखिम में पड़ता है, वो भागता है. आपको
याद होगा, जैसे वो चरणदास चोर
जो भागता है, जो रंग अभिनेता यह
भूमिका निभाते थे मदनलाल, वो अपना एक कड़ा
जैसा पहने हुए. यहां से वहां. मैंने भारतीय रंगमंच में ऐसी भागदौड़ ही नहीं देखी.
मतलब. आप चतुर सुजान हैं आपने देखी होगी कि यहां से यहां तक एक आदमी दौड़ रहा है और
फर्राटे से दौड़ रहा है. और सब कुछ बिल्कुल व्यवस्थित है. ऐसे नहीं दौड़ रहा है कि
मतलब किसी को लात मार दी. किसी को कुछ कर दिया. जैसे हम लोग दौड़ते हैं. अव्वल तो
दौड़ते ही नहीं हैं. दौड़ें तो पांच लोग घायल मिलें.
ये जो स्थानिकता है. इसका उपयोग करना, आखिर जो सच है- “सत्यनाम सत्यनाम सत्यनाम साधो महिमा अपार” कि सत्य की महिमा अपार है. ये तो एक सार्वभौमिक सी बात है. लेकिन इसमें जो टेढ़ पैदा होती है, जो तनाव पैदा होता है वो इस बात से पैदा होता है कि एक निपट छत्तीसगढ़ी व्यक्ति भागदौड़ के इस सच को आप तक लाने की कोशिश कर रहा है. ‘चरणदास चोर’ या ‘आगरा बाजार’, दोनों बिना स्थान के संभव नहीं हैं. ‘मिट्टी की गाड़ी’ बिना स्थान के संभव नहीं है. और तरह की मिट्टी की गाड़ियां हो सकती हैं और हुई भी हैं. इसलिए एक-एक विलक्षण बात हुई. जिसने हमारी रंग आधुनिकता को बहुत जरूरी तौर पर सबवर्ड किया. उसके लिए बहुत सारी नई दिशाएं खोलीं.
ये जो स्थानिकता है. इसका उपयोग करना, आखिर जो सच है- “सत्यनाम सत्यनाम सत्यनाम साधो महिमा अपार” कि सत्य की महिमा अपार है. ये तो एक सार्वभौमिक सी बात है. लेकिन इसमें जो टेढ़ पैदा होती है, जो तनाव पैदा होता है वो इस बात से पैदा होता है कि एक निपट छत्तीसगढ़ी व्यक्ति भागदौड़ के इस सच को आप तक लाने की कोशिश कर रहा है. ‘चरणदास चोर’ या ‘आगरा बाजार’, दोनों बिना स्थान के संभव नहीं हैं. ‘मिट्टी की गाड़ी’ बिना स्थान के संभव नहीं है. और तरह की मिट्टी की गाड़ियां हो सकती हैं और हुई भी हैं. इसलिए एक-एक विलक्षण बात हुई. जिसने हमारी रंग आधुनिकता को बहुत जरूरी तौर पर सबवर्ड किया. उसके लिए बहुत सारी नई दिशाएं खोलीं.
बाद में कारंत, कावलम नारायण पणिक्कर, रतन थियम, बहुत सारे लोगों को रंग संगीत का उपयोग करने की राह
मिली. कारंत, अलकाजी के नाटकों
में भी रंग संगीत होता था. लेकिन वो रंग संगीत मसलन वनराज भाटिया इत्यादि का होता
था. और बहुत ही अच्छा होता था. वगैरह वगैरह. लेकिन उसमें वो संगीत स्वयं एक चरित्र
नहीं बन पाता था.
हबीब तनवीर के नाटकों में संगीत और नृत्य अलंकरण नहीं हैं.
वो ऊपर से किए गए, मतलब उसको कुछ
बेहतर बनाने के लिए, कुछ ज्यादा रसमय
बनाने के लिए गए किया गया उपक्रम नहीं है. वो उसकी संरचना के, उसके ढांचे के
अनिवार्य अंग हैं. संगीत के बिना वो संभव नहीं है. क्योंकि संगीत और नृत्य के बिना
हमारा लोक नाटक संभव नहीं है.
ये सब तो हमने, शहर वालों ने और शास्त्रकारों ने भेद बना रखे हैं कि ये संगीत है और ये नृत्य है और ये नाटक है. रंग परंपरा में ये भेद नहीं हैं. रंग परंपरा में ये भी भेद नहीं है कि बजाने वाला अलग है और गाने वाला अलग है और बनाने वाला अलग है. वो तो खुद ही ढोलक बनाता है, खुद ही ढोलक बजाता है, खुद ही गाता है, खुद ही नाचता है. सब काम खुद करता है. इसका बहुत सुघर उपयोग रंग परिकल्पना में हबीब तनवीर ने किया है, जहां थिगड़ा नहीं है. वो वस्त्रभूषा नहीं है. जब तक वो आके गाने नहीं लगते तब तक जैसे उस दृश्य का रंग आशय खुलता ही नहीं है. और वो रंग आशय खोलने वाले ही लोग नहीं हैं.
ये सब तो हमने, शहर वालों ने और शास्त्रकारों ने भेद बना रखे हैं कि ये संगीत है और ये नृत्य है और ये नाटक है. रंग परंपरा में ये भेद नहीं हैं. रंग परंपरा में ये भी भेद नहीं है कि बजाने वाला अलग है और गाने वाला अलग है और बनाने वाला अलग है. वो तो खुद ही ढोलक बनाता है, खुद ही ढोलक बजाता है, खुद ही गाता है, खुद ही नाचता है. सब काम खुद करता है. इसका बहुत सुघर उपयोग रंग परिकल्पना में हबीब तनवीर ने किया है, जहां थिगड़ा नहीं है. वो वस्त्रभूषा नहीं है. जब तक वो आके गाने नहीं लगते तब तक जैसे उस दृश्य का रंग आशय खुलता ही नहीं है. और वो रंग आशय खोलने वाले ही लोग नहीं हैं.
आप ये भी देखें कि एक अर्थ में हबीब तनवीर के नाटक
चरित्रहीन नाटक हैं. यानी चरित्रहीन से मेरा मतलब कोई बदचलन नाटक नहीं हैं. इस
अर्थ में चरित्रहीन हैं कि उसमें आपका ध्यान चरित्रों पर बहुत केंद्रित नहीं होता.
इस तरह की सामूहिक कला बहुत कम संभव हुई है. कम से कम भारतीय रंगमंच में जितना
मैंने उसे देखा है, हमारी आधुनिकता पर
यह आग्रह था. शंभू मित्र का भी आग्रह था और अलकाजी साहब का भी आग्रह था कि मतलब
चरित्र होना चाहिए, अभिनेता होना
चाहिए. नेमी जी का भी आग्रह है कि अभिनेता होना चाहिए और अभिनेताओं का एक विकास
होना चाहिए और कथोपकथन और चरित्र निर्माण इत्यादि. ये सब अच्छी-अच्छी जो चीजें हैं
ये सब रंगमंच पर होना चाहिए. और इन पर ध्यान आकर्षित होना चाहिए.
किसी हद तक हबीब तनवीर का आधुनिक लिखे गए नाटकों को न चुनना
इस अपने नाटक की सामूहिकता और उसकी चरित्रहीनता को बचाने की कोशिश भी है. क्योंकि ‘आषाढ़ का एक दिन’ आप ऐसे शायद नहीं
कर सकते, जिसमें सब कुछ धुल
पुछ जाए. और इससे मैं उस बात पर आता हूं, जो मुझे लगता है कि इन कलाओं को और विशेषकर हबीब
तनवीर के. हबीब तनवीर की कला प्रश्न पूछने वाली कला है. लेकिन बहुत आपको आनंदित
करने वाली भी कला है. बहुत मजा आता है.
कुमार जी कहते थे कि निर्गुण भजन वो है, जिसमें शोक तो करें
पर घायल न हो. मतलब चोट लगे पर घायल न हो. कुछ-कुछ वैसा हबीब तनवीर भी करते हैं.
चोट करते हैं पर ऐसा करते हैं कि आप फौरन घायल न हों. मतलब लहुलुहान होके रंगमंच
से न जाएं. बाद में जब आप सोचेंगे तो आप पाएंगे कि चोट कुछ ज्यादा ही गहरी है. कुछ
ज्यादा दुखती है. लेकिन वो बाद में दुखती है. शुरू में बहुत मजे मजे की है. और
इसमें एक तरह का ट्रेजिक तत्व है. जिसकी ओर मैं आपका ध्यान आकर्षित करना चाहता
हूं.
ये आनंद का रंगमंच नहीं है. यद्यपि उसमें आनंद के सारे
सामान हैं. यानी ये आनंद स्वरूप नहीं है. ये आपको आनंद देने के लिए हैं कि कुछ. रस
आपमें उपजे और आप बहुत ही रसमग्न हो जाएं. यद्यपि वो बहुत अच्छा काम है. लेकिन ये
है तो रंगमंच ट्रेजिक कि ये सब धीरे धीरे मिटता जाता है. आप देख रहे हैं और आपके
सामने वो नष्ट भी हो रहा है. ये दोनों तीनों कलाओं में ये समानता है. चित्रकला में
ये तत्व नहीं है. और साहित्य में ये नहीं है. हमारा लिखा अच्छा बुरा, अक्सर बुरा ही बचा
रहता है. फिर भी पोथी वोथी में बंधा रहता है.
इसीलिए कुमार गंधर्व कहते थे कि गाते-गाते मैं रोज मरता हूं. क्योंकि जो गा चुका वो कुमार गंधर्व नहीं रहा. जो तिलक का मोद गाया गया, वो तिलक का मोद भी नहीं रहा. कल फिर कुमार गंधर्व गाएंगे और संभवत: तिलक का मोद ही गाएंगे. लेकिन न वो कुमार गंधर्व होंगे न वो तिलक का मोद होगा.
इसीलिए कुमार गंधर्व कहते थे कि गाते-गाते मैं रोज मरता हूं. क्योंकि जो गा चुका वो कुमार गंधर्व नहीं रहा. जो तिलक का मोद गाया गया, वो तिलक का मोद भी नहीं रहा. कल फिर कुमार गंधर्व गाएंगे और संभवत: तिलक का मोद ही गाएंगे. लेकिन न वो कुमार गंधर्व होंगे न वो तिलक का मोद होगा.
कुछ इसी तरह से मैंने ‘चरणदास चोर’ को 1-12 या 15 बार देखा होगा.
मैंने कुल दो ही चीजें 10-15 बार देखी हैं. एक
दिलीप कुमार की ‘देवदास’ नाम की फिल्म. तब
तो मैं अपरिपक्व बुद्धि था. अभी भी हूं लेकिन तब ज्यादा था. उस समय मैंने उसको 18-19 बार देखा था. वो
मनोहर टॉकीज में लगती थी. गुलाब थियेटर और मनोहर टॉकीज सागर में. और दूसरा देखा
मैंने ‘चरणदास चोर’. ‘चरणदास चोर’ मैंने इतनी बार
देखा है. लेकिन हर बार उसका एक सत्य नये रुप में सामने आता है. वो सत्य ये भी है
कि ये कैसे धीरे धीरे हमारे सामने आते हैं और मिट जाते हैं. एक दृश्य बन रहा है और
दूसरा मिट रहा है. मुझे मालूम है कि अब आगे क्या होने जा रहा है. उसके बहुत सारे
गाने मैं उसके साथ गुनगुना सकता हूं. लेकिन फिर भी उसमें एक ये विचित्र अवसाद है.
जो अवसाद वक्तव्य का अवसाद नहीं है. भाव का अवसाद है. वो कहा नहीं जा रहा है. कहा
जा रहा है वो तो नाचते-गाते कहा जा रहा है. हंसते-दौड़ते कहा जा रहा है. लेकिन जो
मूल भाव है, जो अंत:सलिल भाव है
वो अवसाद का है.
ये जो ट्रेजिक चरित्र है हमारी हमारी प्रर्दशनकारी कलाओं का, उसे हमें भूलना
नहीं चाहिए. क्योंकि वो एक दूसरे स्तर पर आधुनिकता और शास्त्रीयता का भी अनिवार्य
तत्व है. आधुनिकता भी एक तरह के अवसाद बोध से पैदा होती है. शास्त्रीयता भी एक तरह
के अवसाद बोध से पैदा होती है कि अब वो नहीं रहा. अब वो नहीं है. फिर भी हम कोशिश
करते हैं कि चलो आज शाम के लिए, इस नाटक के लिए, इस अवसर के लिए वो फिर से संभव हो.
हमें मालूम है कि कालिदास नहीं रहा. वो लोग नहीं रहे. वो
दुष्यंत नहीं रहा. वो शकुंतला नहीं रही. इत्यादि इत्यादि. पर चलो फिर एक बार कोशिश
करते हैं कि कालिदास हो, शकुंतला हो, कि दुष्यंत हो. ये
एक बुनियादी तौर पर बहुत गहरा अवसाद बोध है कि हमारे हाथ से चीजें छूट गई हैं, जा चुकीं हैं और
फिर भी हम कोशिश करते हैं कि वो किसी हद तक संभव हो.
आधुनिकता में भी ये बोध है कि हमसे वो दुनिया छूट गई, जो बहुत सुसंगत बनी
बनाई थी. जिसमें दो और दो चार होते थे. वगैरह. अब पता नहीं दो और दो चार होंगे कि
पांच होंगे. पता नहीं इसके आगे कितना अंधेरा है. पता नहीं, उस कोने में क्या
है. ये जो पता नहीं का भाव है, ये भी आधुनिकता को गहरे अवसाद से भरता रहा है. हबीब तनवीर
के नाटकों को देखना और उनके इस छुपे हुए अंत:सलिल अवसाद बोध को न देखना. मेरा
प्रस्ताव है कि थोड़ा कम देखना है.
हबीब तनवीर का काम और उसका महत्व, उसका इम्पलीकेशन, उसका अभिप्राय, सिर्फ रंगमंच तक
सीमित नहीं है. उसकी और बहुत सारी अंतरध्वनियां दूसरी कलाओं में भी हैं. क्योंकि
आधुनिकता के पहले दौर के बाद यकायक जब हमने अपने आप को निहत्था पाया कि इस
आधुनिकता से निपटने में हम यकायक निहत्थे हैं. तब हमको हबीब तनवीर जैसे लोगों ने
ये राहत दी. ये सहारा दिया कि हम जहां हैं, जिस स्थान पर हैं, वहां से भी बहुत बड़ी भूमि तक जा सकने का जोखिम उठा
सकते हैं. अगर थोड़ी सी हिम्मत हमारे पास हो. अगर जीवट हमारे पास हो.
सब जानते हैं कि हबीब तनवीर की अपनी निजी जीवन यात्रा बहुत
कठिन रही है. आसान नहीं था. क्योंकि ये मंच इस तरह की चीजों के लिए बहुत आसानी से
सुलभ नहीं था. लेकिन अपनी जिद से उन्होंने इसे संभव बनाया. आप जानते हैं कि मैं
औपचारिक अतिरंजना में विश्वास नहीं करता हूं. तो बिना अतिरंजना के मैं ये कह सकता
हूं कि पूरी 20वीं शताब्दी में
जिन लोगों ने भारतीय उपमहाद्वीप में आधुनिकता को संभव किया और आधुनिकता को संभव ही
नहीं किया, दूसरों के लिए
आधुनिक होने का रास्ता खोला. ऐसे अगर 25-30 नाम विभिन्न क्षेत्रों से लिए जाएं तो उनमें निश्चय
ही हबीब तनवीर का नाम जरूर होगा क्योंकि उन्होंने आधुनिकता को, आधुनिक रंगमंच को, लोक की हमारी
अवधारणा को सीधे सीधे मुख्य मंच पर आधुनिकता और शास्त्रीयता की मुख्य रंगभूमि पर
स्थापित किया है. ये आसान काम नहीं है क्योंकि लोक को हम अलग मानते हैं. जिसको हम
ऐतिहासिक दृष्टि से पिछड़ा मानते हैं. जिसको हम ये मानते हैं इनको विकास की जरूरत
है. ये ऐतिहासिक काम है. ये क्रांतिकारी काम है. ये ऐसा काम है जिसका सिर्फ रंगमंच
तक परिसीमन नहीं किया जा सकता. जिसके अभिप्राय और जगह भी निकलते रहे हैं.
असल में तो पिछले 50 वर्षों में मध्यप्रदेश के जो चार-पांच शलाका पुरुष
हुए होंगे उनमें निश्चय ही हबीब तनवीर हैं. बाद में जब आप 21वीं शताब्दी को याद
करेंगे कि मध्यप्रदेश में क्या हुआ था तो उनमें जिन लोगों को याद करेंगे, उनमें निश्चय ही
हबीब तनवीर का नाम होगा.
(म.प्र संस्कृति
विभाग द्वारा आयोजित हबीब तनवीर के रंग अवदान पर केन्द्रित प्रणति प्रसंग में दिया
गया वक्तव्य.)
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