रंगमंच तथा विभिन्न कला माध्यमों पर केंद्रित सांस्कृतिक दल "दस्तक" की ब्लॉग पत्रिका.

सोमवार, 31 अक्तूबर 2011

रंगमंच का पर्याय हबीब


रंगमंच का पर्याय हबीब तनवीर नहीं रहे। यह खबर थिएटर जगत को स्तब्ध करने के साथ उनकी रचनाधर्मिता के प्रति अपनी आदरांजलि अर्पित करने वाली हैं। एक हरफनमौला, जमीन से जुड़ा, सीधा सरल इंसान। अपनी ही धुन में इतना मगन कि उसे कहीं भी, कभी भी, किसी भी विषय पर बात करना बेहद सरल था। मगर यह भी सच है कि उनसे बात करने की पहल करना बड़ा मुश्किल था।
पद्मश्री, पद्म भूषण, रायसभा सदस्य के अतिरिक्त अनगिनत रंगमंचीय उपलब्धियाँ उनके खाते में दर्ज रहीं। न जाने कितने अलंकरण उनके समान में सजे रहे, मगर वे निर्लिप्त जैेस यह सब उन्होंने नहीं बल्कि किसी और ने हासिल किया हो।
कला की शायद ही कोई ऐसी विधा रही है जिसकी किरण हबीब को छूकर न गुजरी हो और अभिव्यक्ति का शायद ही कोई ऐसा आयाम हो जो हबीब को छूने को न मचला हो। उनके प्रमुख नाटकों में शतरंज के मोहरे (1954), लाला शोहरत राय (1954), मिट्टी की गाड़ी (1958), गांव के नांव ससुराल, मोर नांव दामाद (1973), चरण दास चोर (1975), हिरमा की अमर कहानी (1977), पोंगा पंडित, जिन लाहौर नहीं वेया (1990), कामदेव का अपना वसंत ऋतु का सपना (19930), जहरीली हवा (2002), राजरक्त (2006) आदि गिनाए जा सकते हैं। लेकिन चरण दास चोर की अपार लोकप्रियता ने हबीब की कला जगत में एक खास जगह बनाई। जहरीली हवा नामक नाटक उन्होंने भोपाल गैस त्रासदी पर लिखा था।
जब हबीब तनवीर इंडियन पीपुल्स थिएटर एसोसिएशन (इप्टा) और प्रगतिशील लेखक संघ (पीडब्लूए) से जुड़े, तो वे अपने समाज और वंचितों के प्रति सजग हुए। इन दोनों संस्थाओं से जुड़ने से उनकी सोच और कला दोनों में सामाजिक स्तर पर एक नई चिंगारी ने जन्म लिया। हबीब ने अभिनय की दुनिया में भी अपनी विशिष्ट छाप छोड़ी। भारत-भवन (भोपाल) में हबीब से मुलाकात इतनी सहज होती थी कि सहसा विश्वास नहीं होता था कि यह अंतरराष्ट्रीय याति प्राप्त कलाकार है जो बिना किसी गुमान के शांत भाव से धूप सेंक रहा है। लगातार चलने वाला चिंतन उनके चेहरे पर साफ नज् ार आता था। मगर आरंभिक डर निकल जाने के बाद हबीब जी को सुनना अतीत की महकती क्यारियों से गुजरने जैसा था। अभिव्यक्ति के तमाम शिखर को स्पर्श करने वाला वह सच्चा इंसान खामोश हो गया लेकिन हबीब के नाटकों में उनके विचारों और तेवरों की खुशबू कला जगत को सराबोर करती रहेगी। हबीब जैसे इंसान भला कहाँ मरा करते हैं। उन्हें तो दिलों में जिंदा रहने का हुनर आता था।
पीढ़ियाँ याद करेंगी
हबीब तनवीर के बारे में यह बात बहुत विशेष है और मैं कल्पना कर सकता हूँ कि देशभर में संगीतकारों, फिल्मकारों, नाटकतकारों, लेखकों और कवियों की एक बड़ी जमात है जिनकी कई पीढ़ियाँ उनको कई रूपों में याद कर रही होगी।
देशभर में उनका काम लोगों ने देखा, वे केवल एक ऊँचे दर्जे के अभिनेता और निर्देशक ही नह ीं थे बल्कि हमारे कला समाज के कला का जो पूरा परिवार है उसके एक मुखिया की तरह थे। सभी लोग उनको इसी रूप में देखते थे कि उनसे हमको कुछ मिलेगा और वो मिलता भी रहा है। मेरा और उनका रिश्ता बहुत पुराना है। मैं हमेशा से उनको याद करता ही रहा हूँ, पर आज विशेष रूप से उनकी बहुत सारी बातें याद आ रही हैं। उन जैसे व्यक्ति कम ही होते हैं। उनका काम, उनका योगदान बहुत दिनों तक याद रखा जाएगा, ऐसी मैं उम्मीद करता हूँ।
थिएटर की खोज
उन्होंने परंपरागत भारतीय नाटय शैली को जो योगदान दिया, लोक कलाकारों और ग्रामीण कलाकारों को राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय मंच दिया, वह उनका बहुत बड़ा योगदान है। लंदन से जब पढ़कर यहाँ आए तो भारत में बहुत दिनों वे इस खोज में रहे कि वे जो तकनीकी बातें सीखकर आए हैं, उनकी मदद से कैसे वे अपना थिएटर बनाएं।
आज विशेष रूपसे उनकी बहुत सारी बातें याद आ रही हैं। उन जैसे व्यक्ति कम ही होते हैं। उनका काम, उनका योगदान बहुत दिनों तक याद रखा जाएगा।
जाहिर है कि उस उथएटर की खोज, अपने कामकाज की खोज उनको छत्तीसगढ़ के अनेक कलाकारों के बीच ले गई जहाँ वे स्वयं थे और उन्होंने लोक कलाओं में जो चीजें हैं उनको पहचाना। इस बात को वे कहते भी थे कि हमारे यहाँ शास्त्र और लोक का कोई गहरा भेद नहीं है।
इसमें उन्होंने इस बात को फिर एकबार जोर देकर दोहराया है कि शास्त्र और लोक का जो रिश्ता रहा है उसमें उनकी बहुत गहरी दिलचस्पी रही है।इन दोनों को मिलाकर ही फिर उन्होंने अपना एक सचमुच का नया थिएटर बनाया जो उनके ग्रुप का नाम भी पड़ा। उनकी प्रमुख कृतियों में आगरा बाजार और मिट्टी की गाड़ी है। मिट्टी की गाड़ी आला दर्जे की कृति है। इसके अलावा चरणदास चोर है। चरणदास चोर को देखने के लिए भीड़ उमड़ती रही है। चार पाँच साल पहले भोपाल में रवींद्र भवन में पैर रखने की भी जगह नहीें थी। बेठने वाले लोगों के अलावा सैकड़ों लोगों ने खड़े होकर भी उस नाटक को देखा। हबीब साहब उसमें कांस्टेबल की भूमिका निभाया करते थे। उनकी भूमिका थोड़ी ही देर की थी जिसे देखने के लिए लोग उमड़ते थे।
पीढ़ियों के पार
उनकी कृतियों का तो हम नाम लेते चले जा सकते हैं। सच पूछिए तो उनकी कौन सी ऐसी कृति है जिसके बारे में कहा जा सकता है कि वे लोकप्रिय नहीं हुई या जनप्रिय नहीं थी। अपने पिछले इंटरव्यू में उन्होंने इस बात को फिर एक बार जोर देकर दोहराया है कि शास्त्र और लोक का जो रिश्ता रहा है उसमें उनकी गहरी दिलचस्पी रही है। - अमृतसंदेश से

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