रंगमंच तथा विभिन्न कला माध्यमों पर केंद्रित सांस्कृतिक दल "दस्तक" की ब्लॉग पत्रिका.

रविवार, 9 अक्तूबर 2011

भारत रंग महोत्सव में 'भारत' कितना? : अमितेश कुमार

आज से तेरह साल पहले दिल्ली में एक अभूतपूर्व आयोजन की प्रस्तावना हुई भारत रंग महोत्सव के रूप में. इस आयोजन का स्वागत, रंगकर्मियों, समीक्षकों एवं दर्शकों ने खुले दिल से किया. लगातार एक महीना तक चलनेवाले इस आयोजन के महत्त्व को कई दृष्टियों से रेखांकित किया गया और इसके उज्ज्वल भविष्य की कामना की गई. भारंगम ने एक साथ कई स्वप्नों को साकार किया. कई धाराओं और भाषाओं के रंगमंच को एक जगह एकत्र कर दिया. हिन्दी रंगमंच का अन्य क्षेत्रीय भाषाओं के रंगमंच से परस्पर संबध खुले रूप में कायम हुआ. बाद के भारंगमों में अन्य देशों के रंगकर्म को भी इसमें शामिल कर लिया गया. रंगमंच से लगभग विमुख हो चुके दर्शकों को भी इसने फिर एक बार अपनी ओर खींचा. भारतीय रंग परिदृश्य में इसने एक महत्त्वपूर्ण आयोजन का रूप ले लिया.
वर्ष भर लोग इस आयोजन की प्रतीक्षा करते हैं. टिकट की इतनी मारामारी होती है हर साल राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय (रानावि) को टिकट बेचने की रणनीति में परिवर्तन करना पड़ता है. बुकिंग शुरु होने के कुछ घंटों के बाद ही हाउसफुल का बोर्ड टंग जाता है. कई दर्शक निराश लौट जाते हैं और कई प्रेक्षागृह के बाहर उत्साह से आपके हाथ में टिकट देख के पूछते हैं किएक्सट्रा है क्या’? ये अलग बात है कि टिकट का एक बड़ा हिस्सा रानावि पास के रूप में अपने पास तो रखता ही है, कई बार टिकट भी कम ही बेचे जाते हैं.(इस बार मैकबेथ के टिकट काऊंटर खुलने के कुछ मिनट बाद ही खत्म हो गये.) क्योंकि हाउसफुल नाटक देखने जब आप पहुंचते हैं तो प्रेक्षागृह की बहुत सारी सीट दर्शक का इंतज़ार करती हुई मिलती है. इतने उत्साह से टिकट कटाने और नाटक देखने पहुंचने के बाद जब निराशा हाथ लगती है तो क्या होता है ? इस बार भारंगम का कुछ ऐसा ही अनुभव था. 82 प्रस्तुतियों में अगर आप तीन को भी अच्छी प्रस्तुतियों के तौर पर मुश्किल से याद न कर पाये तो इस तथ्य पर संदेह हो जाना स्वाभाविक है जिसमें रानावि इस आयोजन को बेहतर रंगकर्म का शो केसकहता है.(वेबसाईट देखें) इस निराशा में डूबने की बजाय यह भारंगम के विगत आयोजनों की पड़ताल का समय है. भारंगम की भारतीय रंग परिदृश्य में क्या भूमिका बन रही है ? भारंगम भारतीय रंगमंच के सम्मेलन का स्थल बन रहा है या विशेष प्रकार के रंगकर्म को प्रोत्साहित करने का माध्यम. भारंगम के आयोजन के साथ रानावि अभिन्न रूप से जुड़ा है. तथाकथित तौर पर भारतीय रंगमंच का अगुआ यह संस्थान किस प्रकार के रंगमंच को स्पेस दे रहा है. वह अपने समवर्तियों के रंगकर्म को प्रोत्साहित कर रहा है या उन्हें विशेष प्रकार के रंगकर्म के लिये निर्देशित कर रहा है. जो इस कार्य में रानावि के पीछे नहीं चल रहे, रानावि उन्हें कितनी जगह दे रहा है या उन्हें हाशिये पर ढकेल रहा है या उनकी उपस्थिति से ही इनकार कर रहा है.
भारतीय रंगमंच का भारंगम जैसे आयोजनों से कितना विकास होता है ? जब हम यहां रंगमंच कह रहें हैं तो इसमें सभी घटक नटककार, अभिनेता, निर्देशक, पार्श्वकर्मी इत्यादि भी शामिल हैं. रंगमंच का विस्तार इस आयोजन से हुआ है या यह सिमट गया है ? इन सब बातों का पता चलने से इसकी प्रासंगिकता का भी पता चल जायेगा. इस भारंगम में भारत कैसे निरूपित होता है. क्या सचमुच भारत के हर इलाके का रंगमंच यहां होता है या भारत महज एक संबोधन भर है. रंगमंच के विकास के साथ रानावि की एक बड़ी जिम्मेदारी हिन्दी रंगमंच के विकास की भी है. इसकी स्थापना इन्हीं उद्देश्यों से हुई थी. यह सुखद है कि रानावि में रंगकर्म अब भी हिन्दी भाषा में हो रहा है परन्तु इसके अतिरिक्त हिन्दी मुश्किल से मिले. (प्रस्तुतियों की विवरणिका में हिन्दी की भूलें एक मामूली उदाहरण है) अतः यह प्रश्न भी मौजूं है कि हिन्दी रंगमंच को गति देने में भारंगम कितना सहायक है ? भारंगम के विगत चार संस्करणों को आधार मान कर तथ्यों की पड़ताल आगे की जा रही है. यद्यपि होना यह चाहिये कि भारंगम के सभी संस्करणों का विस्तृत विश्लेषण किया जाता परन्तु यह अलग से भी किया जा सकता है.
भाषा
2011
2010
2009
2008
हिन्दी
17
19
14
31
अंग्रेजी
14
9
5
8
बंगाली
9
8
13
4
मराठी
2
4
2
2
मणिपुरी
1
4
2
4
मलयालम
2
2
3
1
असमी
1
2
2
4
नेपाली
2
1
1
2
तमिल
2
1
2

बहुभाषी/द्विभाषी
4
10
8
2
दारी
1
1
3
2
पोलिश
1

1
1
स्पेनिश
3



जापानी
1
1
1
1
निःशब्द (Non Verbal)
10
3
1
5
पंजाबी
2
1
2
4
कन्नड़
1
1
1
3
सिंहली
1


1
उर्दु
2
1


कश्मीरी
1



अल्बानियन
1



इतालवी

1


जर्मन

2


युक्रेनी
1



चीनी
1
1

1
हिब्रू


1

बोडो

1


गुजराती

1


इरानी



1
मिजो



1
हंगेरियन
1




81
74
62
78
(उदघाटन प्रस्तुतियां शामिल नहीं) तालिका - 1
भारंगम के प्रस्तुतियों को पहले भाषायी आधार पर विश्लेषित करने से कुछ बाते स्पष्ट हो जायेंगी. भारंगम की मानें तो भारत में कुछ भाषाओं में रंगमंच ही नहीं है. जैसे- गुजराती, तेलगु, मैथिली, इत्यादि. पिछले चार सालों में इन तीनों भाषाओं में सिर्फ़ गुजराती का एक नाटक हुआ है. इसका मतलब इन भाषाओं में रंगकर्म नहीं हो रहा है या हो रहा है तो उस स्तर का नहीं है जिससे भारंगम में प्रस्तुत हो सके. यह दोनों तथ्य स्वीकार नहीं किये जा सकते. क्योंकि गुजराती और मैथिली में प्रचूर रंगकर्म होता है और उसमें कुछ स्तरीय भी होते हैं. मैथिली में दिल्ली में ही बढिया रंगकर्म होता है और मुम्बई थियेटर गाईड की वेबसाईट देखिये तो वहां लगातार हो रहे गुजराती नाटकों की सूचना मिलती है. यहीं पर आ करभारतकेवल संबोधन भर लगने लगता है. इस पर संदेह हो तो आगे के विवरण उसे दूर करने में मददगार होंगे.
भारंगम में जिन भाषाओं का वर्चस्व है उनमें हिन्दी, बंगाली और अंग्रेजी मुख्य हैं. इनके अलावा अन्य सभी भाषाओं की उपस्थिति इक्क-दुक्का नाटकों की ही है. इससे यह निष्कर्ष निकलता है कि इन तीन भाषाओं में विपुल रंगकर्म होता है. हिन्दी को अगर हटा लें क्योंकि रानावि का लक्ष्य ही हिन्दी भाषा के माध्यम से रंगमंच को बढावा देना है तो बचती है बंगाली और अंग्रेजी. बंगाली नाटक 2008 से 2011 तक क्रमशः चार, तेरह, आठ और नौ हुए है. अंग्रेजी नाटकों की संख्या दुगने से भी अधिक हो गये हैं. क्रमशः आठ, पांच, नौ और चौदह. इनमें से कुछ विदेशी नाटक भी होते हैं. मराठी का उदाहरण ले तो मराठी में इन भाषाओं के मुकाबले कम रंगकर्म नहीं होता. कम से कम अंग्रेजी से अधिक तो होता ही है. लेकिन मराठी का प्रतिनिधित्व मणिपुरी, कन्नड़, असमी, पंजाबी नाटकों जितना ही है. जाहिर है कि अंग्रेजी और बंगाली के नाटकों को अधिक तरज़ीह दी जा रही है. यहां मराठी के उदाहरण से हम अन्य भाषाओं की हालत समझ सकते हैं. इसके बचाव में यह तर्क दिया जा सकता है कि हम भाषा के बजाय रंगकर्म को मौका दे रहें हैं तो भी यह चिंतनीय है. वैसे इन आंकड़ो के भीतर जायें तो यह पता चलता है कि कुछ खास भाषाओं में लगातार एक ही निर्देशक और एक ही शहर को मौका मिल रहा है. जैसे बांग्ला के अधिकांश नाटक कोलकाता से आते हैं. पंजाबी में पिछले कई भारंगम से लगातार नीलम मान सिंह चौधरी (चंडीगढ़) आती रहीं हैं. इस तरह नेपाली में सुनील पोखरेल, मराठी में मोहित तकालकर, मलयालम में ज्योतिष एम.जी. इत्यादि. इसी तरह कई नाट्य समूह लगातार मौका पाते हैं. जैसे, पदातिक (कोलकाता), आरण्यक (मुम्बई), आरोहण (नेपाल), अजोका (पाकिस्तान) इत्यादि.
भाषा के रंगमंच को अगर हम देख रहें हैं तो यह भी देखना होगा कि कैसी रंग गतिविधियां हो रहीं है. इसमें एक ओर मणिपूरी के नाटकों को देखते हैं तो लगता है कि किस तरह रतन थियम (व्हेन वी डेड अवेकेन,10), कन्हाईलाल(अचिन गायनेर गाथा,10), हेनसेम तोंबा(सदारम्बा मामी,11) ने अपनी क्षेत्रिय अस्मिता और समस्या को अपने रंगकर्म से जोड़ा है. दूसरी ओर हम नीलम मान सिंह के नाटकअ वाईफ़्स लेटर’(11) को देखते हैं तो बेहतर प्रस्तुति होने के बाद भी यह प्रमाणिक नहीं लगती. पंजाबी में कलकता की कहानी अपनी प्रामाणिकता खो देती है. हिन्दी में भी नाटकों की यही स्थिति है. चुंकि हिन्दी क्षेत्र के रंगकर्म को स्पेस ही नहीं दिया जा रहा और हिन्दी रंगमंच के नाम पर जिनको मौका मिल रहा है वो कुंभकथा (त्रिशला पटेल,11), चंदा मामा दूर के (एम.के. रैना, 10), बेहद नफ़रत के दिनों में (दौलत वैद, 09) इत्यादि जैसी प्रस्तुतियां करते हैं, इन नाटकों को पूरा देखना एक यातना ही है. वस्तुतः भारत में कई प्रकार के रंगकर्म होते हैं. एक प्रकार का रंगमंच वह है जहां रंगकर्मी अपने स्थानीय संसाधनों से जूझते हुए किसी तरह रंगकर्म कर रहें हैं. इस प्रकार के रंगमंच में वे रिहर्सल स्पेस से लेकर प्रेक्षागृह तक के इंतज़ाम तक संघर्ष करते रहते हैं बिना इस बात से भयभीत हुए कि उनकी प्रस्तुति के कितने शो होंगे. वह एक शो के बाद भी समाप्त हो सकता है और इससे अधिक भी. जाहिर है ऐसे रंगमंच से किसी प्रकार के आय की आशा मूर्खता है. बड़े शहरों में ऐसे रंगमंच को कुछ प्रयोजक और कुछ टिकट कटा के देखने वाले दर्शक भी मिल जाते हैं लेकिन छोटे शहर में ऐसा नहीं होता. साथ ही मुम्बई एवं दिल्ली जैसे शहरों में टेलीविजन या सिनेमा से जुड़े कुछ कलाकार निरंतर रंगकर्म करते हैं उन्हे भी संसाधनों की ऐसी दिक्कत का सामना नहीं करना पड़ता. इस प्रकार के रंगमंच में भी महत्त्वपूर्ण रंगकर्म होता है. दूसरे प्रकार का रंगमंच वह है जिसमें संस्थागत अनुदान के जरिये या कार्यशालाओं में नाटक तैयार किये जाते हैं. इस प्रक्रिया में हर साधन के लिय वित्त की पर्याप्तता रहती है. इस प्रकार अनुदानों के जरिये तो कुछ अच्छी प्रस्तुतियां तैयार हो जाती हैं लेकिन कार्यशाला रंगमंच में थोड़ा कच्चापन होता है. भारंगम में देखें तो यह जो संघर्षी रंगमंच है जो अपनी परिस्थितियों के बीच विकसित हो रहा है को उतना मौका नहीं दिया जाता जितना कार्यशालाओं में चल रहे उत्पादित रंगमंच को. पिछले तीन सालों से तीन अलग अलग जगहों से राजकुमार रज्जाक की कार्यशाला प्रस्तुति भारंगम में शामिल होती रही है. यह मात्र एक उदाहरण है. फ़िल्म और टेलीविजन से जुड़े कलाकारों के नाटक को भी आसानी से प्रवेश मिल जाता है. क्या फ़र्क पड़ता है कि उस नाटक का पहली प्रस्तुति ही भारंगम में होने वाली हो.(जगदम्बा की पहली हिन्दी प्रस्तुति भारंगम में इस साल हूई.) तात्पर्य यह कि रंगमंच को भी उत्पाद के तौर पर स्थापित करने का प्रयास किया जाने लगा है.
दो खास प्रवृति वाले रंगकर्म को भारंगम में पिछले चार सालों में अधिक मौका दिया गया है. इनमें से एक है बहुभाषिक प्रस्तुति की. बहुभाषिक प्रस्तुतियों की संख्या 2008 में 2, 2009 में 8, 2010 में 9 और 2011 में 4 रही. इन नाटकों को किस भाषा के नाटक के अंतर्गत रखा जाये. रंगमंच जैसी मिश्रित कला में भाषा का यह मिश्रण क्या हम बहुभाषिक समाज के नाम पर कर रहें हैं, नहीं. अधिकतर ऐसी प्रस्तुतियां प्रायोगिक (Experimental) होती हैं. यह भी कहना की यह एक नये प्रकार की रंगभाषा है, दुराग्रह ही है क्योंकि दर्शक असमंजस में आ जाता है. रंगमंच की संकल्पना में भाषा का पक्ष अत्यंत ही महत्त्वपूर्ण है. अभिनय की पूरी अवधारणा जिन खंभो पर टिकी है, उसमें भाषा भी एक है. भाषा सिर्फ़ बोलचाल ही नहीं व्यवहार भी है. प्रत्येक भाषा की एक अपनी विशिष्ट देह भाषा भी होती है. जापानी और अंग्रेजी बोलने वाले की देहभाषा में एक निश्चित अंतर होगा. अपने भाषिक व्यवहार से निकलकर किसी अन्य भाषा में अभिनय करना अभिनेता और दर्शक के लिये कितना तकलीफ़देह होता है यह आये दिन हम रानावि की छात्र प्रस्तुतियों में देखते हैं. अभी 13 वें भारंगम में अरूणाचल प्रदेश की प्रस्तुतिद्रोवा झाग्मुकके मंचन के दौरान अभिनेताओं की मुश्किल उनके अभिनय में दिखायी दे रही थी. इन प्रस्तुतियों में ऐसा कभी नहीं होता कि अभिनेता अन्य-अन्य भाषा समुदाय के हों. प्रयुक्त सभी भाषाओं का बोझ एक ही अभिनेता पर होता है. बहुभाषिकता का रचनात्मक इस्तेमाल भी हो सकता है. उदाहरण के तौर पर हबीब तनवीर हैं जिनके रंगमंडल में शहरी और ग्रामीण अभिनेता थे. वे मंच पर हमेशा मातृभाषा का प्रयोग करते थे. रतन थियम और कन्हाईलाल का भी उदाहरण हमारे सामने हैं जिन्होंने अपनी भाषा परंपरा में अभिनय की शैली विकसीत की है. यहां ये याद करने की जरूरत है कि भाषा की अहमियत को समझ कर ही हबीब तनवीर ने राडा (ROYAL AKADEMY OF DRAMATIC ARTS) को एक ही साल में छोड़ दिया. जिसमें जाने के लिये आज के युवा रंगकर्मी लालायित रहतें हैं और वहां से लौट कर दर्शको को अपना प्रयोग झेलने को विवश करते हैं.
दूसरी प्रवृति है शब्दहीन नाटकों (Non Verbal) की. इस तरह के नाटकों में भी दो प्रवृतियां है. एक जिसमें लेडी मैकबेथ रीविजिटेड (माया राव, 2010) और एबाउट राम’ (अनुरूपा राय, 2011) जैसे नाटक आते हैं. जो शब्द हीन होकर और तकनीक के कुशल उपयोग से अभिभूत कर देने वाला रंग अनुभव रचते हैं . दूसरी श्रेणी में वे प्रस्तुतियां हैं जिन्हें जबरदस्ती रंगमंच साबित किया जा रहा है. इस प्रकार की प्रस्तुतियों की संख्या इस बार दस रहीं. इन प्रस्तुतियों में नृत्य सरंचना है (जैसे टिल्ट और मैथमैटिकल ज्योमेट्री - अनुषा लाल), इन्स्टालेशन है (ग्लास हाउस प्रोजेक्ट, गार्बेज प्रोजेक्ट - हरीश खन्ना), सोशल गेमिंग (अमितेश ग्रोवर) है. अब गार्बेज प्रोजेक्ट’ जैसे अतिशय लागत वाले इन्स्टालेशन को रंगमंच कैसे कहा जा सकता है ? ऐसी कुछ प्रस्तुतियां निस्संदेह प्रभावी होती है. इन्स्टालेशन एक दृश्य कला के रूप में तेजी से उभरा है और बहुत तीक्ष्ण अभिव्यक्ति भी करता है परन्तु भारंगम इसके लिये उचित मंच नहीं है. यह निश्चय ही नाट्यकला नहीं है. वैसे यह एक विडंबना ही है कि इस बार गार्बेज प्रोजेक्ट करने के लिये लगभग बीस लाख रूपये(सूत्र के अनुसार) खर्च कर दिये गये. यह दिखाने के लिये महानगरीय जीवन में एक अमीर और गरीब के जीवन के क्या अंतर्विरोध हैं ? गरीबी दिखाने के लिये पैसे का ऐसा इस्तेमाल अश्लील है. खैर, अभिव्यक्ति का हर माध्यम अगर रंगमंच है तो फिर चित्रकला, साहित्य, नृत्य जैसे विभाजन की आवश्यक्ता ही क्यों है? यहां एक बात साफ हो जानी चाहिये कि ऐसी प्रस्तुतियां आयोजकों की व्यक्तिगत पसंद हैं. क्योंकि इन्हें हम अगर रंगमंच के आयोजन में जगह दे रहें है तो फिर कथक, भरतनाट्यम, कुडियाट्टम, बहुरूपिया. इत्यादि जैसी कलायें बाहर क्यों हैं ? जबकि इनका दावा कुछ अधिक ही बनता है क्योंकि इनमें अभिनय है, कथा है और रस भी है. पारंपरिक नाटकों का प्रतिनिधित्व भी नहीं हई है. जबकि पारंपरिक शैली की प्रस्तुतियों, जिसमें शहरी रंगकर्मी होते हैं, को प्रतिनिधित्व मिल जाता है. मूल कलाकारों से सजे प्रामाणिक प्रदर्शन में रानावि को कोई रूची नहीं है.
वैसे चारों साल की सूची देखें तो ऐसी प्रस्तुतियों के लिये तय लोगों को हर साल आमंत्रित किया जाता रहा है. जैसे अनुषा लाल (10,11), अमितेश ग्रोवर (08,10,11), हरीश खन्ना (08,11), मिन तनाका (10,11). इन कलाओं को रंगमंच मनवाने का दुराग्रह इतना बढ़ गया है कि इस साल सोशल गेमिंग, सर्प्राइज्ड बाडी प्रिजेक्ट, स्पेशल ड्युएट इत्यादि जैसी प्रस्तुतियों को शामिल किया गया. सोशल गेमिंग यदि रंगमंच है तो फ़िर फ़ेसबुक जैसी सोशल नेट्वर्किंग साईट पर बैठ कर रोज़ लोग रंगकर्म कर रहें हैं. एक बात उल्लेखनीय है कि नुक्कड़ नाटक जैसी रंगमंचीय विधा का प्रवेश भारंगम में नहीं हो पाया. एक सशक्त फ़ार्म के रूप में आज जब इसको बचाये रखना जरूरी है और रानावि इससे उदासीन है. पहले भारंगम से ही इसको शामिल करने की आवाज़ लगातार उठती रही है फिर भी रानावि फ़ुड हब बनाने में ज्यादे उत्सुक रहता है, वैसे उसके पीछे ही एक मंच ऐसा है जहां यह नाटक हो सकते हैं.
भारंगम में शामिल होने वाले समूहों में बड़े नगरो खासकर महानगरों के समूहों की संख्या अधिक होती है. महानगरों में रंगकर्म अधिक होता है पर इनके बरक्स छोटे नगरों की भागीदारी लगभग नगण्य है. इन महानगरों में कोलकाता, मुम्बई, दिल्ली की भागीदारी अधिक है.
तालिका - 2

2011
2010
2009
2008
दिल्ली
17
13
7
25
मुम्बई
5
10
14
8
कोलकाता
7
9
16
1
चेन्नई
4

2

बेगुलुरू
1

1
2
पूणे
2
2
1
1
चंडीगढ़
1
1
1
2
लखनऊ


1
1
पटना
1
1

1
भोपाल

1

1
मणिपुर(इंफ़ाल)
3
4
3
4
असम(गुवाहाटी)
1
4
4
4






वर्ष
कुल संख्या
विदेशी
महानगर
2011
82
23
33
2010
75
12
32
2009
63
11
30
2008
78
18
34
तालिका- 3

अगर प्रस्तुतियों की कुल संख्या में से हम विदेशी प्रस्तुतियों को निकाल दें तो महानगर का हिस्सा आधे से भी अधिक हो जाता है.इन महानगरों में हम अगर पूणे, चंडीगढ़, अमृतसर, बेंग्लोर आदि जैसे बड़े शहरों को भी शामिल कर लें तो इनका हिस्सा तीन चौथाई हो जायेगा. पूर्वोत्तर के राज्यों मणिपुर और असम की भागीदारी अन्य राज्यों से अधिक हैं. ये प्रस्तुतियां भी इंफाल और गुवाहाटी से ही अधिकांश होते हैं. अर्थात भारत में अभी भी रंगमंच बड़े शहरों में सिमटा है और छोटे शहरों में है भी तो उन्हें भारंगम के योग्य नहीं माना जा रहा. लखनऊ, पटना, भोपाल जैसे शहरों में बड़े पैमाने पर रंगकर्म होता है भारंगम में इन शहरों की उपस्थिति लगभग नहीं के बराबर है. नटरंग जैसी पत्रिकाओं में इन शहरों में हो रहे रंगकर्म की डायरी लगातार छपती है. अभी रायगढ़, बरेली, उज्जैन, पटना जैसे शहर में रंग उत्सव आयोजित हुएं हैं. जाहिर है इन शहरों से आने वाली अर्जियां निरस्त कर दी जाती है. हिन्दी रंगमंच को केन्द्र में रख कर विश्लेषण करने से कुछ बातें और सामने आयेंगी.


2011
2010
2009
2008
हिन्दी
17
19
14
31
दिल्ली
9
8
6
19
पटना (बिहार)
1
1

1
अरूणाचल प्रदेश
1


1
कोलकाता
2

2

मुम्बई
4
4
2
5
हैदराबाद

1


मंडी

1


भोपाल

1

1
केरल

1


रणथम्भौर

1


अमृतसर

1


गुवाहाटी

1


इलाहाबाद


1

लखनऊ


1
1
चंडीगढ़


1

पटियाला



1
उदयपुर



1
मारिशस



1





तालिका - 4 (हिन्दी प्रस्तुतियां शहर के अनुसार)
तालिका देखने से यह साफ़ हो जाता है कि हिन्दी की ज्यादातर प्रस्तुतियां दिल्ली और मुम्बई से होती है. इन चार सालों में हिन्दी की इक्कासी (81) प्रस्तुतियों में 11 हिन्दी प्रदेश की रही. इनमें भी छत्तीसगढ़, झारखंड, उत्तरांचल गायब है. इन 11 प्रस्तुतियों में भी से तीन ही ऐसे निर्देशक हैं जिनका संबंध रानावि से नहीं है. बिहार से पिछले सालों से लगातार संजय उपाध्याय को बुलाया जाता रहा. बारहवें भारंगम में जो एक प्रस्तुति बिहार से थी वह रानावि के स्नातक छात्र शशिभूषण को श्रद्धांजलि थी. इसी तरह भोपाल से जो दो नाटक इन चार सालों में हुए उनमें से एक का निर्देशन बंसी कौल ने किया और दूसरा हबीब तनवीर को श्रद्धांजलि थी. रानावि से बाहर के कुछ निर्देशको को लगातार मौका दिया जाता रहा है. जैसे सुनील शानबाग (2007, 2010, 2011) और मानव कौल (2008, 2010, 2011). दिल्ली से जिन निर्देशकों को शामिल किया जाता है वे रानावि से संबधित होते ही हैं. दिल्ली में पिछले कुछ सालों में बाहर के निर्देशक को शायद ही मौका दिया गया हो. हिन्दी प्रदेश के प्रति इस उपेक्षा का क्या कारण हो सकता है. सुक बहादुर (2008, 2010) बहारूल इस्लाम, सत्यव्रत राउत इत्यादि अहिन्दी भाषी निर्देशकों की कमजोर प्रस्तुतियां शामिल कर ली जाती है क्योंकि वे रानावि के स्नातक है. पिछले दो भारंगम से युवा रंगमंच को मौका देने की बात घोषित तौर पर की जाती है. पर इस प्रक्रिया में हिन्दी का कोई भी युवा निर्देशक सामने नहीं आया रानावि के स्नातकों के अतिरिक्त जबकि अन्य भाषाओं में आये. क्या हिन्दी रंगमंच केवल रानावि के स्नातक ही कर रहें हैं? स्पष्ट है कि इन प्रदेशों से आई अर्जियां इस पत्र के साथ ठुकराइ जाती रहीं हैं किआपका नाटक बेहतर है पर हम इसे भारंगम में नहीं रख सकते.
पिछले दो सालों में रानावि के डिप्लोमा प्रस्तुतियों को भी रखा जाने लगा है, तर्क है इनके रंगकर्म को व्यापक मंच दिया जा रहा है. जबकि अधिकांश डिप्लोमा प्रस्तुतियां कमजोर होती साबित होती रही हैं. इन डिप्लोमा प्रस्तुतियों में अगर रानावि रंगमंडल को भी शामिल कर लें तो हिन्दी की प्रस्तुतियों की आधी संख्या रानावि की ही हो जाती है. अगर इन प्रस्तुतिओं में भूतपुर्व स्नातकों को भी शामिल कर लें तो बाहर की प्रस्तुतियां बहुत कम रह जाती हैं. 2008 क्रमश: 10, 5, 8 और 5. एक बात और द्रष्ट्व्य है कि हिन्दी प्रस्तुतियों की संख्या लगातार कम हो रहीं हैं. जबकि हिन्दी नाटकों के टिकट सबसे पहले बिक जाते हैं. हिन्दी नाटकों में कमी का सीधा प्रभाव दर्शकों की संख्या पर पड़ता है.
रानावि भारंगम का इस्तेमाल अपने स्नातकों को सरंक्षित करने के लिये कर रहा है. प्रस्तुतियों का एक बड़ा हिस्सा तो इनके नाम रहता ही है साथ ही साथ आयोजन के संचालन के लिय भी इनको रखा जाता है. क्या कारण है कि रानावि को अपने स्नातकों को सरंक्षित इस तरह से करना पड़ रहा है लगभग परजीवी बनाने की हद तक? रानावि में छात्रों को भारी तामझाम मुहैया कराया जाता है. रंगमंच के लिये बाहर इतना उपलब्ध नहीं हो पाता. अब ये स्नातक बाहर जा कर या तो अनुदान का मुंह देखते हैं या रानावि का. कुछ जो समझ जाते हैं कि रंगमंच सीमित साधनों से किया जाये वे जारी रखते हैं नहीं तो सिनेमा या टेलीविजन में स्ट्रगल करने चले जाते हैं. अपने कुछ स्नातकों को रानावि कार्यशालाओं के जरिये कुछ समर्थन देता है और इस तरह तैयार प्रस्तुति को भारंगम में शामिल कर लिया जाता है. बहरहाल, रानावि के स्नातकों को इस तरह से मौके देना एक तरह से उन निर्देशकों के साथ अन्याय है जो अपनी जीजिविषा से रंगकर्म में निरंतर संलग्न है. रानावि एक संतुलन बना कर उन निर्देशकों को भारंगम के रूप में व्यापक मंच उपलब्ध करा सकता है लेकिन नहीं! रानावि उन्हीं को यह मौका देता है जो उसको प्रिय हों. इस तरह से वह निर्देशक विशेष और रंगकर्म विशेष को प्रोत्साहन दे रहा है. मोहित तकालकर (09,10,11), राजकुमार रज़्ज़ाक (09,10,11), नीलम मान सिंह चौधरी (08,10,11), राजेंद्र नाथ (08.10,11) त्रिपुरारी शर्मा (08,09,11), गौरी रामनारायण (09,11), ज़ुलेखा चौधरी (09,11), दौलत वैद (08,10), ज्योतिष एम.जी. (09,11) इत्यादि निर्देशकों की लंबी कतार है. कुछ विदेशी निर्देशक भी है जो अपनी अच्छी बुरी प्रस्तुतियों के साथ लगातार आमंत्रित किये जाते हैं. सुनिल पोखरेल (नेपाल - 08,09,10), मोइनेर हाशमी (अफ़गानिस्तान - 08,09,11), शाहिद नदीम (पाकिस्तान - 08,09,11), कमालुद्दीन निलु (बांग्लादेश 08,09), मिन तनाका (जापान - 10,11) इत्यादि का नाम इनमें प्रमुख है.
जिन निर्देशकों को मौका दिया जाता रहा है उनमें उन निर्देशकों की संख्या अधिक है जो नाटक करने की बजायप्रोजेक्टऔरप्रयोगपर अधिक जोर देते हैं. नि:शब्द (नान वर्बल) और बहुभाषिक प्रस्तुति वाले निर्देशक भी यहीं हैं. ऊपर बताया जा चुका है कि इन प्रस्तुतियों की संख्या लगातार बढ़ी है. ये प्रस्तुतियां अधिकांशतः अनुदान के जरिये की जाती है. आम तौर पर इन प्रस्तुतियों को दर्शक नहीं मिलता. भारंगम के दौरान दर्शक इन प्रस्तुतियों को भी देखने पहूंच जाते है लेकिन प्रयोग की अतिरेकता से अंततः निराश हो जाते हैं. दर्शक अभी ऐसी प्रस्तुतियों के लिये तैयार नहीं है. दर्शक सामान्यतः रंगद्वारी रंगमंच से आगे बढ नहीं पाया और ना ही उसे प्रशिक्षित करने का कोइ सार्थक प्रयास हुआ. नुक्कड़ नाटकों ने रंगमंच को दर्शक तक लाने का प्रयास किया था पर यह भी मंद पड़ता गया. इन नाटकों में दृश्य का विखंडन, नैरेटिव और तकनीक निर्भरता दर्शकों को दुविधा में डाल देती है. ये प्रस्तुतियां किसी ऐसे रंगानुभव का सृजन करने में असमर्थ रहती हैं जिससे दर्शक आत्मसात कर सके. तेरहवें भारंगम में ज़ुलेखा चौधरी निर्देशित प्रस्तुति दर्शकों के लिये डरावने अनुभव में बदल गयी. ऐसी प्रस्तुतियों को जगह दे कर रानावि अपने उस कथन से ही पीछे हटता प्रतीत होता है कि भारंगम समकालीन रंगकर्म का शोकेस है. (वेबसाईट देखें)
भारत में कई ऐसी संस्थायें हैं सरकार के अतिरिक्त, जो रंगकर्म के लिये अनुदान देती हैं. कई रंगकर्मी इन्हीं अनुदानों पर नज़र गड़ाए रहते हैं. निश्चय ही जोड़ तोड़ में विशेष दक्ष होने के कारण इनको भारंगम में भी मौका मिल जाता है और ये कई कोणों से एक साथ लाभान्वित हो जाते हैं. दो उदाहरण देखें पहला अभी राष्ट्रमंडल खेलों के दौरान राष्ट्रमंडल देशों के साहित्य पर प्रस्तुति तैयार करने के लिये कुछ रंगकर्मियों को अनुबंधित किया गया था. इनमें से दो भारंगम में भी प्रदर्शित हुई. ‘जिंदगी मधुर है कुमानसेनू में’ (वागीश सिंह और हेमा सिंह) और क्वालिटी स्ट्रीट’ (माया कृष्णा राव). इनमें से हेमा सिंह रानावि की प्राध्यापक हैं और माया राव ने अपने रंगकर्म की शुरुआत अनुराधा कपूर के साथ की थी.
दूसरा, इब्सन फ़ेस्टिवल के नाम से 2008 से नियमित तौर पर दिल्ली में समारोह हो रहा है. इसमें नार्वे दुतावास प्रस्तुति तैयार करने के लिये अनुदान देता है. इस समारोह के निर्देशक निसार अल्लाना है, रानावि अध्यक्ष अमाल अल्लाना के पति. इस फ़ेस्टिवल की प्रस्तुतियां भारंगम में शामिल होती रहीं हैं. 2011 मेंसम स्टेज डायरेक्शन आफ़ जान गब्रियल बोर्कमैन’ (जुलेखा चौधरी) (जुलेखा चौधरी के इसी नाटक की चर्चा ऊपर की गयी है और ये अमाल अल्लाना की बेटी है) सागर कन्या (ज्योतिष एम.जी.) 2010 में व्हेन वी डेड अवेकेन’ (रतन थियम) और लिटिल इयोल्फ़’ (नीलम मान सिंह चौधरी). दर्शक अगले भारंगम का इंतजार करें जिसमें 2010 में शामिल प्रस्तुतियां सम्मिलित होंगी.
ये सारी बातें जिस एक जगह आ के सिमट जाती है वह है, चयन प्रक्रिया. भारंगम में नाटकों का चयन कैसे होता है? वेबसाईट के अनुसार 30 अगस्त तक प्रस्तुत होने वाली प्रस्तुतियों को अगले वर्ष के भारंगम के लिये आवेदन आमंत्रित किया जाता है. आवेदन के साथउच्च गुणवत्ता वाले वीडियोकी मांग की जाती है. किसी नाटक का चयन या उसकी बेहतरी का निर्धारण वीडियो से किया जा सकता है? नहीं, खास कर उन प्रस्तुतियों का तो बिलकुल नहीं जो विखंडित होती है और जिनकी संख्या बढ़ती जा रही है. अब इसी वर्षगार्बेज प्रोजेक्टका क्या वीडियो बनेगा? निसंदेह चयन का निर्धारण वीडियो नहीं करता. लेकिन इस वीडियो के कारण ही कुछ ऐसी प्रस्तुतियां शामिल हो जाती हैं जो फ़ोटोग्राफ़ी के अनुकूल होती है लेकिन रंगमंच पर आकर धाराशायी हो जाती है. सवाल यह है कि इन तेरह सालों में रानावि ऐसा तंत्र विकसित नहीं कर पाया जो जीवंत प्रस्तुतियों को भारंगम में भेज सके. क्या ऐसी चयन प्रक्रिया नहीं बनाई जा सकती जैसे खेलों में होती है. क्रिकेट के चयनकर्ता मैच दर मैच देख कर टीम सेलेक्ट करते हैं. एक ही निर्देशक और संस्था और एक ही प्रकार के रंगकर्म को लगातार मौका मिलता रहता है. अतः रानावि में भारंगम के नाटको के चयन के पीछे राजनीति गहरे छुपी हुई नजर आती है. रंगमंच जैसी लोकतांत्रिक विधा में यह तानाशाही के समान ही आचरण है.
भारंगम कुछ महती आकांक्षाओं की पूर्ति करने में असमर्थ रहा है. जैसे रंगमंच का विकेंद्रीकरण, विस्तार और दर्शक का निर्माण. एक ही दर्शक लगभग हर नाटक और भारंगम को देखता है. इस प्रक्रिया में कुछ लोग निकल भी जाते हैं और शामिल भी हो जाते हैं. रंगकर्मी, पत्रकार, रंगप्रेमी, शोधार्थी, अध्यापक एवं स्टेटस सिंबल ग्रंथि से युक्त दर्शकों की संख्या ही अधिक होती है. आम दर्शक कहां है ? इन तेरह सालों में भारंगम ऐसे आयोजन में तब्दील नहीं हो सका है जिससे इस दौरान दिल्ली में दर्शकों और रंगकर्मियों का जमावड़ा हो. इसके बरक्स जयपुर लिट्ररेरी फ़ेस्टीवल या फ़्रिंज फ़ेस्टिवल को देखे तो निराशा होती है.
भारंगम ने निर्देशक को रंगमंच पर अत्यंत शक्तिसंपन्न बना दिया है जबकि रंगमंच में सबसे ज्यादा बाहरी वहीं है. इससे नुकसान अभिनय और अभिनेता का हुआ है. अभिनेता एक जीवित प्रापर्टी में तब्दील होता जा रहा है. प्रयोग और प्रोजेक्ट वाली प्रस्तुतियों ने इस प्रक्रिया को और तेज़ कर दिया है. भारंगम में सत्तर से अस्सी प्रस्तुतियों के बीच चार पांच प्रस्तुतियां ही ऐसी हो जिन्हें आप अभिनय के लिये याद करें तो यह निराशाजनक है. जबकि वहीं प्रस्तुतियां सराही जाती है जिनमें अभिनेता केन्द्र में हो. अभिनय की उपेक्षा ने भी कुछ दर्शकों को दूर कर दिया है.
सवाल हो सकता है कि भारंगम में इतनी सारी खामियां ही हैं, अच्छाई नहीं है. अच्छाई पर बहुत बात हो चुकी है अब वक्त है कि इस आयोजन के छिद्रों पर ध्यान दिया जाये, ताकि इनकी मरम्मत हो नहीं तो यह नाव कभी भी गोता लगा सकती है. और हममें से बहुत सारे लोग कतई ऐसा नहीं चाहेंगे.

हिन्दी
2011
2010
2009
2008
NSD
8
6
4
4
ALMUNAI
4
5
5
17
EXTERNAL
5
8
5
10

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