रंगमंच तथा विभिन्न कला माध्यमों पर केंद्रित सांस्कृतिक दल "दस्तक" की ब्लॉग पत्रिका.

रविवार, 9 अक्तूबर 2011

कुछ गुमान था जो रह गया : मृत्युंजय प्रभाकर

भारत रंग महोत्सव का तेरहवां संस्करण रंग प्रेमियों के लिए नया अनुभव देने वाला साबित हो सकता है था लेकिन वह बहुत हद तक अपने प्रयास में असफल रहा। 7 जनवरी से 22 जनवरी तक कुल 16 दिनों तक चलने वाले इस महोत्सव में कुल 83 प्रस्तुतियां हुईं जिनमें 60 भारत से थे जबकि लगभग 18 देशों की कुल 23 प्रस्तुतियां विदशों से थीं। महोत्सव में पहली बार इतनी बड़ी संख्या में विदेशी प्रस्तुतियां शामिल हैं। फ्रांस और चिली, बोलिविया, अर्जेंटिना जैसे लैटिन अमेरिकन देशों को खासकर फोकस किया गया है। इस सूची को देखकर तेरहवें रंग महोत्सव से यह उम्मीद बंधी थी कि दुनिया भर में खोज की जा रही नई नाट्यभाषा की कुछ झलकियां इसमें देखने को मिलेंेगी। बड़ी संख्या में शामिल विदेशी प्रस्तुतियां इस बात की गवाह हैं। भारत से भी ज्यादातर ऐसे निर्देशकों और समूहों को मौका मिला था जो नए तरीके से काम कर रहे हैं। सभी प्रस्तुतियां कमानी, श्रीराम सेंटर, अभिमंच, सम्मुख, बहुमुख और रानावि के अंदर ओपन स्पेस में थीं।

हालांकि वक्त के साथ इस महोत्सव में कई बदलाव हुए हैं। इस महोत्सव के आरंभिक संस्करणों की खासियत यह थी इसमें देश भर में चल रहे रंगकर्म की झांकी दिख जाती थी। देश के अलग-अलग हिस्से में काम कर रहे प्रमुख रंगकर्मी इसके माध्यम से अपनी प्रस्तुति दिल्ली लेकर आते थे जिनमें देश भर में चल रहे रंग मुहावरों, रंग प्रयोगों, नाट्य आंदोलनों की झलक दिखती थी। पिछले कुछ वर्षों में विद्यालय ने प्रस्तुतियों के चुनाव को न्यू मीडिया के इतना करीब ला दिया है कि अब सभी प्रस्तुतियां एक तरह की दिखने लगी हैं। इस बार का रंग महोत्सव इस बात का पूरी तरह गवाह बना। भारत जैसे बहुविध संस्कृति वाले देश में रंग आधुनिकता की ऐसी एकरस खोज कई सवाल पैदा करती है। रंग महोत्सव आईं भारतीय प्रस्तुतियों में कुछ पसंद की गईं तो कइयों को दर्शकों का अस्वीकार झेलना पड़ा।

महोत्सव में युवा निर्देशकों की भरमार थी लेकिन इसमें भी वही रंग निर्देशक अच्छा काम दिखा पाए जो मध्य वय के हैं और पहले ही अपनी पहचान दर्ज करा चुके हैं। नए निर्देशक कुछ खास असर नहीं छोड़ पाए। पूरे भारत रंग महोत्सव के दौरान रंग दर्शकों को सहज, सामान्य नाटकीय अनुभव देने वाले नाटकों की कमी भयानक तौर पर खली। पूरे महोत्सव में नाटकों को देखकर ऐसा लग रहा था जैसे दुनिया भर में नाटक नहीं हो रहे, सिर्फ प्रयोग हो रहे हैं या कि प्रोजेक्ट। चुन-चुनकर ऐसी नाट्य प्रस्तुतियों को इसका हिस्सा बनाया गया जो प्रयोगों की जमीन पर उपजे और निखरे थे। ज्यादातर प्रस्तुतियां नृत्य और देहमूलक गतियों पर आधारित थीं। उनमें संवादों से अधिक ध्वनियों और कथ्य से अधिक बिबों की भरमार थी। विदेश से आईं प्रस्तुतियां तो उस राह पर थीं हीं भारत से आई प्रस्तुतियां भी उन्हीं की हमकदम साबित हुईं, जिनका भारतीय सांस्कृतिक रंग परंपरा से कम ही लेना-देना था। क्या अपनी संस्कृति से विमुख होकर किसी भारतीय रंगकर्म की कल्पना की जा सकती है, यह सवाल महोत्सव के आयोजकों से पूछा जाना चाहिए? जहां तक दर्शकों का सवाल है, प्रयोगों की भावभूमि पर खड़े नाटकों को आम तौर पर दर्शक पसंद नहीं कर पाए। दर्शकों ने उन्हीं नाटकों को पसंद किया जिनसे वह सहज ही रिश्ता बना पाए। यही कारण है कि महोत्सव के दौरान वैसे नाटक चर्चा में रहे जो नाटकों को संपूर्ण रंगमंच का अनुभव दे पाए। हालांकि इस बार ऐसी प्रस्तुतियां बेहद कम संख्या में नजर आईं। कुछ प्रस्तुतियां जो दर्शकों को अपनी सहज नाटकीयता के कारण प्रभावित करने में सक्षम रहीं उनमें कुछ अपनी प्रस्तुति शैली के लिए पसंद किए गए तो कुछ अपने विषय और ट्रीटमेंट के कारण। जो नाटक खास तौर से पसंद किए गए उनमेंपार्क’, ‘मिस मीना’, ‘ओझा फानूस’, ‘बेगम का तकिया’, ‘विसर्जन’, ‘समंदराबा मामी’, ‘सागर कन्या’, ‘ड्रीम्स ऑफ तालीम’, ‘जान--कलकत्ता’, ‘होमेज’, आदि शामिल हैं। इनके अलावा भारतीय महाद्वीप में पाकिस्तान से आया नाटकख्बावों के मुसाफिरभी काफी पसंद किया गया। जैसा कि मैंने पहले लिखा है पसंद की जाने वाली प्रस्तुतियों के निर्देशक ज्यादातर मध्य वय के हैं।

मानव कौल निर्देशित नाटकपार्कको दर्शकों ने उसकी सहजता के लिए पसंद किया। मध्य वय के मानव वैसे भी अपने नाटकों में किसी बड़े और गंभीर मुद्दों को लेकर जीवन के आम-फहम अनुभवों को छूते हैं। वैसे अनुभव जो हमारे जीवन में भी बड़ा महत्त्व भले रखते हों पर हमें अपने को समझने में, खुद के करीब लाने में सहायक हैं। थिएट्रिकल आडंबर से भरे युग में मानव कौल अपनी प्रस्तुति शैली में भी जिस प्रकार की सहजता और मितव्ययिता बरतते हैं वह उल्लेखनीय है।

गुणाकर देव गोस्वामी भी मध्य वय के रंग-निर्देशक हैं और अपनी प्रस्तुतियों से लगातार चर्चा में रहते हैं। रंग महोत्सव में वह सर्वाधिक बार आने वाले निर्देशकों में शामिल हैं। इस बार की उनकी रंग प्रस्तुतिओझा फानूसक्रिस्टोफर मार्लो के प्रसिद्ध नाटकडॉ. फॉस्टसपर आधारित था। गुणाकर ने नाटक की प्रस्तुति शैली को बेहद ही थिएट्रिकल बनाया था, हालांकि इसमें तकनीक से ज्यादा मूवमेंट्स का योग था। इस कारण असमिया में होने के बावजूद लोगों ने इसे पसंद किया। नाटक में गुणाकर ने खुद हीफानूसकी भूमिका का बेजोड़ निर्वहन किया।

इसी तरह मध्य वय के ही निर्देशक सुमन मुखोपाध्याय के नाटकविसर्जनको भी दर्शकों ने पसंद किया। सुमन भी कई रंग महोत्सवों में प्रतिभागिता कर चुके हैं और युवा नाट्य निर्देशकों में जाने-माने नाम हैं। रवींद्रनाथ ठाकुर के नाटकविसर्जनका मंचन आसान काम नहीं माना जाता लेकिन इस मुश्किल को भी सुमन ने अपनी निर्देशकीय कुशलता से पार किया है, हालांकि प्रस्तुति को पूरी तरह कमजोरियों से मुक्त नहीं कहा जा सकता। नाटक में काव्यात्मकता की भरमार है जिसके लिए अच्छे अभिनेताओं का होना अनिवार्य था। गौतम हाल्दार ने अपनी भूमिका से दर्शकों को बांधे भी रखा लेकिन उनके अलावा दूसरा कोई अभिनेता उभरकर सामने नहीं सका।

एच. कन्हाईलाल और रतन थियम जैसे दिग्गज नाट्य निर्देशकों की भूमि मणिपुर वहां की युवा प्रतिभाओं को भी उसी तरह सींच रही है जैसे इन दो महारथियों को सींचा था। ऐसा ही एक नाम है हेन्सनम तोंबा। पिछले कुछ वर्षों से तोंबा ने अपनी नाट्य प्रस्तुतियों से देश भर के रंगप्रेमियों का ध्यान अपनी ओर खींचा है। भारत रंग महोत्सव में इस बार की उनकी प्रस्तुतिसमंदराबा मामीभी दर्शकों को प्रभावित कर गई। लय, ताल, भाव और आंगिक गतियों का जिस तरह का गुंफन इस प्रस्तुति में देखने में आई वह अद्भुुत है। जेल में बंद कुछ कैदियों के मार्फत तोंबा ने एक ऐसे नाटकीय संसार की रचना की है जो सिर्फ उन कैदियों की कहानी नहीं कहता बल्कि पूरे उत्तर-पूर्व भारत के उस दर्द को दर्शाता कि किस तरह हरा-भरा, जीवंत संस्कृति वाला एक पूरा इलाका केंद्रीय शासन व्यवस्था की कैद में घुट रहा है। नाटक में अभिनेताओं का काम देखते ही बनता है। सिर्फ मणिपुर ही नहीं, बल्कि असम, त्रिपुरा आदि स्थानीय संस्कृतियों से भी कुछ तत्वों का समावेश इस नाटक में किया गया है।

मध्य वय के निर्देशकों में केरल के ज्योतिष एम.जी. बेहद चर्चित नाम है और वह अपने रंग प्रयोगों के लिए जाने जाते हैं। पूर्व में उनकी कई प्रस्तुतियां चर्चित रही हैं।लेडी फ्रॉम सीनाटक उन्होंने मलयालम मेंसागर कन्यानाम से किया है। यह नाटक भी उनके रंग प्रयोगों के लिए विशेष तौर पर याद किया जाएगा। खासकर जिस कुशलता से उन्होंने इस नाटक में मल्टीमीडिया का प्रयोग किया है वह काबिले तारीफ है। आम तौर पर निर्देशक इसे चौंकाने वाली चीज या प्रयोग के तौर पर इस्तेमाल करते रहते हैं लेकिन ज्योतिष ने इसे नाटक का हिस्सा बना दिया है। साथ ही साथ यह नाटक को दृश्य के सतर पर मजबूती भी प्रदान करता है। ज्योतिष ने नाटक में आंगिक गतियों और अभिनेता के संवादों को बेहद स्लो मोशन में रखा है। उसके साथ ही उसका विजुअल पीछे स्क्रीन पर चलता रहता है। चूंकि नाटक में गति का अभाव है तो बदलते स्क्रीन और ऑब्जेक्ट उसकी पूर्ति करते हैं। नाटक में यह संवादों और आंगिक गतियों का यह ठहराव दो व्यक्तियों के रिश्तों के ठहराव को भी बखूबी दर्शाते हैं। हालांकि उनका यह नाटक देखते हुए मन में रतन थियम की प्रस्तुति वाली ताजगी और जीवंतता की कमी खलती है।

सुनील शानबाग जब भी दिल्ली आते हैं, रंगप्रेमियों के लिए कुछ खास लेकर आते रहे हैं। इस बार भी उन्होंने यहां के दर्शकों को निराश नहीं किया है।कॉटन 56, पॉलिस्टर 84’ औरसेक्स मोरलिटी एंड सेंसरशिपजैसे शानदार नाटक देने वाले निर्देशक सुनील शानबाग इस बार अपने नए नाटकड्रीम्स ऑफ तालीमके साथ दर्शकों से रूबरू हुए।ड्रीम्स ऑफ तालीमनाटक उनके पूर्ववर्ती नाटकों से कई मामलों में भिन्न है। अपने पूर्ववर्ती नाटकों में जिस प्रकार की रंगशैली की खोज उन्होंने की वह उनकी इस प्रस्तुति में दूसरे रूप में हाजिर है। यह दर्शाता है कि निर्देशक नए विषय और नाटक के साथ नई रंग भाषा विकसित करने में समर्थ है। इस नाटक में जितना प्रभावी निर्देशन है उतना ही खूबसूरत अभिनेताओं का अभिनय। इससे भी आगे बढ़कर कहें तो अभिनेता इस नाटक की जान हैं। दिव्या जगदाले, गीतांजल कुलकर्णी, सुब्रत जोशी और आनंद तिवारी जैसे मंजे हुए अभिनेता इस नाटक के जटिल पाठ को अपने शानदार अभिनय से रुचिकर और ग्राह बनाते हैं। सेट डिजायन और प्रकाश परिकल्पना सहज पर नाटक को मजबूती देनी वाली है। यह नाटक वस्तुतः मराठी के ही युवा रंग निर्देशक, नाटककार चेतन दत्तार के जीवन और उनके द्वारा लिखित एक एकांकी का मिश्रण है। चेतन दत्तार की असामयिक मृत्यु दो साल पहले हो गई थी।ड्रीम्स ऑफ तालीमएक तरीके से चेतन को सुनील का आखिरी सलाम है।

भारत रंग महोत्सव में बंगाली नाटकों की बहुआअत रहती है। हिंदी की बात छोड़ दें तो किसी भी क्षेत्रीय भाषा में आने वाले नाटकों में बंगाली नाटकों की संख्या हमेशा ज्यादा रही है। लगभग प्रत्येक रंग महोत्सव में दर्जन भर या उससे अधिक प्रस्तुतियां आती रही हैं। कई बार तो हिंदी से भी अधिक नाटक बंगाली में होते रहे हैं। इस बार भी महोत्सव में बंगाली नाटक अच्छी संख्या में आए हैं। नाट्य प्रशंसक इसे बुरा भी नहीं मानते क्यूंकि जाहिरा तौर पर बंगाल एक ऐसी जगह है जहां सबसे अधिक नाट्य प्रस्तुतियां होती हैं। उनके यहां नाटक करने वाले समूहों की संख्या भी अधिक है। निरंतर रंगकर्म होने के कारण उनके नाटकों की गुणवत्ता भी ऐसे क्षेत्रों की तुलना में अच्छी है जहां नाटक कम होते हैं या रंगमंच की कोई विकसित संस्कृति नहीं हैं। बंगाली नाटकों में जुटने वाली भीड़ भी दर्शाती है कि उन नाटकों का अपना दर्शक वर्ग भी है। इन तमाम तर्कों को सामने रखकर देखें तब भी रंग महोत्सव में इस बार आए बंगाल के नाटक कुछ खास धमाल नहीं मचा पाए हैं। सुमन मुखोपध्याय के नाटकविसर्जन’, स्वातीलेखा सेनगुप्ता कीमाधवीऔर भद्र बसु की प्रस्तुतिजान--कलकत्ताको छोड़ दें तो दूसरे नाटकों की गुणवत्ता भी वैसी नहीं रही है जिसके लिए बंगाली के नाटक जाने जाते हैं। यह सिर्फ इस रंग महोत्सव की बात नहीं है। पिछले कुछ रंग महोत्सव में आए बंगाली नाटकों से दर्शकों को निराशा ही हाथ लगी है।

आजादी उपरांत हिंदी रंगकर्म की पहली पीढ़ी में शुमार किए जाने वाले और गैर हिंदी भाषी क्षेत्र कलकत्ता में रहकर हिंदी रंगकर्म की मशाल जलाने वाले श्यामानंद जालान का पिछले साल देहांत हो गया था। अपने शानदार निर्देशन से उन्होंने हिंदी रंगकर्म को नया आकाश प्रदान किया था। यथार्थवादी नाटकों के मंचन में उन्होंने उस स्तर को छुआ जहां बहुत कम लोग पहुंच पाते हैं। उन्हीं की याद में उनकी संस्थापदातिकने इस बार रंग महोत्सव मेंहोमेजनाम से उनके नाटकों और अपनी अभिव्यक्तियों पर उनकी टिप्पणियों की नाट्य प्रस्तुति की। इसमें उनके पांच नाटकों के प्रमुख दृश्यों को दर्शाया गया है। वैसे दर्शकों के लिए जो श्यामानंद जालान के नाटकों से परिचित रहे हैं, यह एक विशेष अवसर था। इसके माध्यम से वह श्यामानंद जालान जी के निर्देशन प्रक्रिया से वाकिफ हो सके और उनकी यादगार प्रस्तुतियों की झलकियां देखने का अवसर भी उन्हें प्राप्त हो सका। तमाम रंगप्रमियों के लिए श्यामानंद जालान साहब को श्रद्धांजलि देने का एक बेहतरीन अवसर था। इस प्रस्तुति की खासियत यह थी कि नाटक के दुश्यों को बहुत ही अच्छे तरीके से एक-दूसरे से गुंफित किया गया था। इसके लिए प्रस्तुति निर्देशक विनय शर्मा बधाई के पात्र हैं। प्रस्तुति में अभिनेताओं का काम देखने लायक था। यथार्थवादी अभिनय शैली का बेहतरीन नमूना उन्होंने इन प्रस्तुतियों के जरिए पेश किया। इससे यह भी जारि होता है कि श्यामानंद जालान साहब ने अपने रंगमंच की पूरी प्रक्रिया में एक खास अभिनय शैली का भरपूर विकास किया था।आधे-अधूरे’, ‘लहरों के राजहंस’, ‘सखाराम बाइंडरजैसे नाटक उनकी रंगमंचीय प्रतिभा में कुछ इस प्रकार निखरी की भारतीय नाट्य साहित्य में छा गईं। नाटककार मोहन राकेश के साथ उनके नाटकों के मंचन के दौरान हुए संवाद भी अब ऐतिहासिक महत्व के हैं। बाद में उन्होंने कई दूसरे प्रयोग भी किए और अपने रंगकर्म को भारतीय रंगकर्म की लोकधारा से भी जोड़ा।रामकथा रामकहानी’, ‘माधवीजैसे नाटक उनके इस नवीन प्रयोग की ऐतिहासिक प्रस्तुतियां हैं। पिछले साल रंग महोत्सव में ही उनकी प्रस्तुतिलहरों के राजहंसआई थी जिसकी उन्होंने 40 वर्षों बाद पुनर्प्रस्तुति की थी।

भारतीय महाद्वीप से आने वाली प्रस्तुतियों में पाकिस्तान से आने वाली प्रस्तुतियों का दर्शक बड़ी बेसब्री से इंतजार करते हैं। इन्हें देखने बड़ी संख्या में दर्शक आते हैं। इसकी एक वजह तो जाहिर सी बात है कि दोनों देशों की सांस्कृतिक अभिन्नता है। हालांकि कई बार सांस्कृतिक आदान-प्रदान के ये अवसर भी सांप्रदायिक राजनीति के शिकार हो जाते हैं, ऐसा कई बार देखने में आया है। इस बार महोत्सव में पाकिस्तान के दो नाटक शामिल थे लेकिन जिया मोहेद्दीन के निर्देशन में पाकिस्तानी नाटकख्बावों के मुसाफिरको ही पसंद किया गया। अपनी सहज और भाव प्रधान अभिनय शैली में प्रदर्शित इस नाटक ने दर्शकों को रंगमंच की वह तमाम खुशियां प्रदान कीं जो उन्हें इस महोत्सव में कम ही मिले थे। वहीं पाकिस्तान के नाटक समूहअजोका थियेटरकी प्रस्तुतिदारादर्शकों की उम्मीदों पर खरी नहीं उतर सकी।

आयोजन पर बात करें तो इस बार भी इसमें कई कमजोरियां देखने में आईं। इसकी सबसे बड़ी कमजोरी राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय का खुद से ऊपर उठ पाना भी है। महोत्सव में पहले भी विद्यालय से निकले स्नातक छात्रों को आम रंगकर्मियों पर वरीयता देने के मुद्दे उठते रहे हैं। अब तो डिप्लोमा प्रस्तुतियों को सीधे-सीधे ही इसका हिस्सा बना दिया गया है। रानावि एक तरफ चयन में पारदर्शिता की बात करती है दूसरी तरफ अपने लोगों को खुल्लम-खुल्ला अनुग्रहित भी करती है। आयोजकों से यह सवाल भी पूछा जाना चाहिए कि आखिर महोत्सव का उद्देश्य क्या है। क्या यह महोत्सव भारत में खास तरह का रंगकर्म विकसित करना चाहता है? क्या इस पर पहला हक राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय का है और उनके वर्तमान और पूर्व छात्रों को कसी भी सूरत में मौका दिया जाएगा (यहां तक कि इसके कर्मचारियों को भी क्योंकि इस बार उनके कर्मचारियों की एक प्रस्तुति भी महोत्सव में शामिल थी)? यह सवाल इसलिए कि आयोजन कमिटी के कुछ लोगों ने ही यह सवाल उठाए कि जिन नाटकों को उन्होंने नहीं चुना वे भी रंग महोत्सव में शामिल कर लिए गए। एक दूसरा अहम सवाल यह कि क्या रानावि ने ऐसी कोई सूची बनाई है कि कुछ युवा रंगकर्मियों को भारतीय रंगकर्म में स्थापित करना है? कारण कि महोत्सव में पिछले कुछ वर्षों से लगातार कुछ खास युवा निर्देशकों को वाइल्ड कार्ड एंट्री दी जा रही है जबकि इतने मौके मिलने के बाद भी उनकी प्रस्तुतियां कहीं से भी रंग उपलब्धि के तौर पर चिन्हित नहीं की जा सकी हैं।

रंग महोत्सव से एक सवाल और निकलता है कि ऐसा क्यों है कि दर्शक अपनी भाषा और क्षेत्र के नाटकों में तो टूट पड़ते हैं पर दूसरे नाटक देखने नहीं आते? यही कारण है कि सुदूर क्षेत्रों से आए अच्छे नाटकों में भी हॉल खाली मिलते हैं जबकि कुछ नाटकों के लिए मार मची रहती है। दर्शकों से जुड़ा एक बड़ा सवाल यह भी है कि रंग महोत्सव में शुतुरमुर्ग की तरह दिखने वाले यह रंग दर्शक साल भर कहां गायब रहते हैं? कारण कि महोत्सव के वक्त उत्सवी माहौल में दिखने वाले ये रंग दर्शक साल भर होते रहने वाले नाटकों में के बराबर दिखते हैं। इससे एक बड़ा सवाल उठता है कि क्या तेरह संस्करण खत्म होने के बाद भी रंग महोत्सव दर्शकों को प्रशिक्षित करने में असफल रहा है?

मृत्युंजय पेशे से पत्रकार हैं. रंगमंच और साहित्यर में गहरी दिलचस्पी रखते हैं. 'सहर' नामक रंगसंस्था से संबद्ध है. रंगमंचीय कलाओं में जेएनयु से रिसर्च कर रहे हैं. उनसे mrityunjay.prabhakar@gmail.com पर संपर्क साधा जा सकता है.

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