अश्वनी कुमार पंकज
1987 में नाट्य पत्रिका ‘बिदेसिया’ की शुरुआत तथा रांची में भिखारी ठाकुर जन्म शताब्दी समारोह के आयोजन के सिलसिले में मैं पहली बार दियारा गया था। भोजपुरी के शेक्सपीयर का गांव – कुतुबपुर। भोजपुरी अंचल में यह मेरा प्रथम प्रवेश था। कोई 10 दिनों तक मैं भोजपुर की बलुही पगडंडियों पर भिखारी ठाकुर की अंगुलियां थामे बच्चे-सा भागता रहा। वह पूरा प्रवास जनभाषा से अंतरंग मुलाकात का अविस्मरणीय अनुभव है। संभवत इसी यात्रा के बाद झारखंडी लोकजीवन को देखने की नई दृष्टि विकसित हुई। भोजपुरी के साथ-साथ झारखंडी भाषाओं तक की रेशमी दुनिया की मेरी यात्रा के सूत्रधार भिखारी ठाकुर ही हैं।
लोकभाषा, लोकजीवन और लोकसंघर्ष के पर्याय हैं भिखारी ठाकुर। भारतीय सिनेमा के माइलस्टोन सुपर स्टार अमिताभ बच्चन को भी शायद इस बात पर रश्क हो कि कैसे बिना बाजार एवं मायावी विज्ञापन संजाल के बावजूद कोई कलाकार जीवित किंवदंती बन जाता है। भिखारी की खासियत है कि वे अपनी हर रचना में आम आदमी की तरह प्रवेश करते हैं तथा जीवन के गहरे अनुभवों की तेज लहर से आपको भीतर तक तरल कर जाते हैं। दुष्यंत के शब्दों में कहें तो ‘वह आदमी नहीं, एक मुक्कमल बयान है।’ एक ऐसा सार्वकालिक मानवीय बयान जो अपनी भाषा में अपनी बात कहता हुआ भी आप, तुम या हम हो जाता है। उनके नाटकों और गीतों को देखने, सुनने व पढ़ने वाला शायद ही कोई इंसान हो, जो इस अहसास से परे हो कि यह तो मेरी कहानी है। यह तो मेरे ही घर, परिवार और समाज का किस्सा है यार!
सुनाने वाले अब नहीं रहे, और न ही सुनने वाले। जो भी है हमारी इस नई सदी में वह दिखाने वाली चीज है। आज हर तरफ सब कुछ दिखता है। दिखने-दिखाने का बाजार सजा हुआ है। सबकी लालसा दर्शनीय बन जाने की है। विज्ञापन, फिल्में एवं वीडियो एलबम हर रोज फैशन परेडों और सुंदरी नुमाइशों से इस लालसा को उकसा रहे हैं। पर अभी भी भारत का लोकजीवन इससे ‘अंखिया चुराये हुए है।’ भिखारी ठाकुर के लोकमंचीय संस्कार का नशा आंखों पर तारी है। बिदेसिया का बटोही भोजपुरी भारत के हर मोड़ पर खड़ा है। लिये लुकाठी हाथ – एकदम बिंदास।
‘बनल बा जवानी तबले करत बाड़ऽ मजवा।
थकला पर दांत से न टूटी नरम खजवा।।
लरिका बजा के भागी थपरी के बजवा।
गावत भिखारी नया गीत के तरजवा।।’
थकला पर दांत से न टूटी नरम खजवा।।
लरिका बजा के भागी थपरी के बजवा।
गावत भिखारी नया गीत के तरजवा।।’
हमारे जीवन में इतिहास की रटी-रटायी तारीखें हैं। इन तारीखों को याद करने के लिए मास्टर की छड़ी के साये में एक उम्र तक हम बार-बार रटंत क्षमता विकसित करते हैं। इस अर्थ में भिखारी के जीवन और मृत्यु की तारीख निश्चित रूप से निर्जीव रट्टू इतिहास का हिस्सा नहीं है। यह भोजपुर ही नहीं वरन् भारतीय देशज समाज के भाषा एवं सम्मान की तारीख है। लोकभाषा, लोकमंच, लोककलाकार, लोकसर्जक और देहाती दुनिया के सर्वाधिक लोकप्रिय दर्शनिक के आगमन और महाप्रयाण की तिथियां हैं ये। इन तिथियों को आप यूं ही गुजर जाने दें, पर भिखारी ठाकुर की नजर आप पर ही है -
बीतत बाटे आठ पहरिया हो, डहरिया जोहत ना।
कोई हमरा जरिया में भिरवले बाटे अरिया हो, चकरिया दरिके ना।
दुख में होत बा जतसरिया हो, चकरिया दरिके ना।
कहत भिखारी मनवा करेला हर घरिया हो, उमरिया भरिया ना।
रहितें त देखतीं भर नजरिया हो, उमरिया भरिया ना ……..
कोई हमरा जरिया में भिरवले बाटे अरिया हो, चकरिया दरिके ना।
दुख में होत बा जतसरिया हो, चकरिया दरिके ना।
कहत भिखारी मनवा करेला हर घरिया हो, उमरिया भरिया ना।
रहितें त देखतीं भर नजरिया हो, उमरिया भरिया ना ……..
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें