रंगमंच तथा विभिन्न कला माध्यमों पर केंद्रित सांस्कृतिक दल "दस्तक" की ब्लॉग पत्रिका.

सोमवार, 31 अक्तूबर 2011

सोने-चांदी से लदी थी फैज की शायरी



फैज अहमद फैज साहब उस युग के शायर हैं जिस युग में राइटर आम आदमी से दूर रहता था। वो गालिब नहीं थे, नागाजरुन नहीं थे। कहते हैं कि लेखक का जो वर्ग होता है वो उसके लेखन से झलकता है। फैज अपर मिड्ल क्लास के परिवार में जन्मे थे। उनकी हमदर्दियां जरूर आम आदमी के साथ रही हो। लेकिन उन हमदर्दियों की भाषा आम आदमी जैसी नहीं थी।
जिस तरह से हमारे भारतीय संस्कृति में कबीरदास पहुंचे थे, नामदेव पहुंचे थे, अलीमा अहमद इलाहाबादी पहुंचे थे, काजी नसरूल इस्लाम पहुंचे थे। फैज से पहले रघुपति सहाय फिराक गोरखपुरी और यगाना चंगेजी आजम आम आदमी की दुनिया में आ चुके थे। फिराक गोरखपुरी और यगाना चंगेजी ने उर्दू की परम्परागत को तब्दील किया और इस तब्दीली में उन्होंने फैज से पहले उसे शिद्दत के साथ पेश किया था जिसने उर्दू शायरी को अंदर ही अंदर से जागृत की। वो नए विचारों के शायर हैं।
फैज न सिर्फ अच्छे परिवार में जन्मे बल्कि उन्होंने अच्छी शिक्षा भी प्राप्त की थी। वो उनके साथ थे जिनके साथ उनकी दोस्ती थी। उनकी सोच उनकी शायरी में दिखती थी। उनकी शायरी में वो गुस्सा भी नहीं दिखता है जो नाजिम हिकमत में दिखता है, धूमिल के यहां मिलता है। उनकी शायरी में बढ़ते हुए एक ऐसी स्त्री का रूप सामने आता है जो सोने-चांदी से लदी है, अच्छे कपड़े पहनी है, लेकिन खिड़की में बैठी हुई अपने झरोखे से आम आदमी को झांक रही है। उनकी शायरी अज्ञेय की तरह से ड्राइंग रूम से ड्राइंग रूम तक की यात्रा करती है।
निदा फाजली .प्रस्तुति: नवीन कुमार

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