देवेन्द्र राज अंकुर |
आपने कहानी के रंगमंच को क्यों अपनाया? क्या इसके पीछे नाटकों की कमी बड़ी वजह रही?
बिल्कुल नहीं। नाटकों की कमी न पहले थी न आज है। मैं
साहित्य का छात्र था और साथ ही नाटक भी किया करता था। 1972 में
एनएसडी से बाहर आने पर मैंने सोचा कि क्या कहानियों को बिना रूपांतरित किए मंच पर
प्रस्तुत किया जा सकता है? 1975 में मैंने रंगमंडल के साथ निर्मल वर्मा की तीन
कहानियों का मंचन 'तीन एकांत' नाम
से किया, जो
बेहद सफल रहा। आज मैं हिंदी के अलावा तमिल, तेलुगू, कुमायूंनी
जैसी भाषाओं में देश-विदेश में 450 से
ज्यादा कहानियों का मंचन कर चुका हूं। मुझे खुशी है कि एक जमाने में कहानी के
रंगमंच के धुर विरोधी रहेकारंत जी और राजेंद्र नाथ जैसे रंगकर्मिओं ने भी इसे
अपनाया ।
इन दिनों एनएसडी में दाखिले के लिए आवेदन करने
वालों की संख्या लगातार घटती जा रही है। इसका कारण क्या है?
ऐसा कई बार पहले भी हो चुका है। 1984-85 में
जब दूरदर्शन आया था तब भी आवेदकों की संख्या घटी थी। वैसे भी एनएसडी के लिए
आवदेकों की संख्या कभी भी 1000 से ज्यादा नहीं रही है। दूसरी बात यह है कि
पुणे के फिल्म इंस्टीट्यूट में अभिनय का पाठ्यक्रम दोबारा शुरू हो गया है। ऐसे में
जिन्हें फिल्मों में ही जाना है वो सीधे पुणे चले जाते हैं।
रंगकर्मियों के फिल्मों में पलायन को आप किस
रूप में देखते हैं?
जब अभिनेताओं को अलअलग माध्यमों
में काम करने का मौका मिले तो वे क्यों न करें। एनएसडी के रंगकर्मियों का फिल्मों
में जाना शुरू से हो रहा है। 1961 में
पहले बैच के छात्र मधु नायक दक्षिण भारतीय फिल्मों के सुपर स्टार रहे हैं। ओम पुरी, सई
परांजपे, नसीरुद्दीन
शाह, दीपा
शाही, राज
बब्बर से लेकर स्वानंद किरकिरे तक लंबी सूची है। चूंकि हिंदी क्षेत्र में फिल्में
नहीं बनतीं इसलिए लगता है कि पलायन हो रहा है। दक्षिण भारत में रंगकर्मी एक साथ
फिल्म और थियेटर दोनों में सक्रिय हैं। हिंदी में भी नसीरुद्दीन शाह और स्वानंद
किरकिरे जैसे कलाकार दोनों माध्यमों में काम कर रहे हैं।
रंगमंच अपने पैरों पर क्यों नहीं खड़ा हो पा
रहा है? आखिर क्यों यह सरकारी मदद या निजी स्पॉन्सरशिप
का मोहताज है?
रंगमंच जैसी विधा कभी भी अपने पैरों पर खड़ी
नहीं हो सकती। यह बेहद अर्थ साध्य और सामूहिक कला है। नाटक और रंगमंच का पूरा
इतिहास उठाकर देख लीजिए। यह भारत ही नहीं पश्चिम में भी बिना सरकारी या निजी
सहायता के कभी आगे नहीं बढ़ पाया है। नाटक घर में तो बैठकर किया नहीं जा सकता।
इसमें ऑडिटोरियम से लेकर कॉस्ट्यूम तक बहुत खर्च होता है। फिर नाटक को एक समय में
एक ही जगह दिखाया जा सकता है। फिल्म तो एक बार बनने के बाद एक साथ लाखों जगह दिखाई
जा सकती है। लेकिन नाटक में यह सुविधा नहीं होती। इसलिए नाटक का खर्च टिकट की
बिक्री से नहीं निकाला जा सकता।
एनएसडी में प्रशिक्षण के बाद रंगकर्मी अपने
क्षेत्र की ओर क्यों नहीं लौट रहे हैं ?
अगर छोटे शहरों के रंगकर्मी वापस अपने शहरों में नहीं लौटना चाहते तो इसमें एनएसडी क्या कर सकता है? हम हर तरह के रंगमंच की जानकारी देते हैं पर वापस लौटना तो कलाकार पर निर्भर करता है। एनएसडी रंगकमिर्यों की रोजी-रोटी की गारंटी नहीं ले सकता। वैसे यह समस्या हिंदी क्षेत्र में ही ज्यादा है। रतन थियम, जयश्री, प्रसन्ना वगैरह तो अपने क्षेत्रों में ही थियेटर कर रहे हैं। हिंदी वाले ही दिल्ली नहीं छोड़ना चाहते।
हिंदी क्षेत्र में बंगाल, महाराष्ट्र या दक्षिण भारत की तरह रंग दर्शक क्यों नहीं विकसित हो पाए या यूं
कहें कि हिंदी रंगमंच की अपनी परंपरा क्यों नहीं विकसित हो पाई?
इसके कई ऐतिहासिक कारण हैं। हिंदी क्षेत्र
राजनैतिक रूप से हमेशा अस्थिर रहा है। विदेशी आक्रमणकारी उत्तर भारत की ओर से ही
आए। महाराष्ट्र, दक्षिण भारत और बंगाल अपेक्षाकृत काफी शांत
रहे। ऐसे में वहां रंगमंच और दूसरी कलाओं के विकसित होने का ज्यादा मौका मिला।
वहीं हिंदी क्षेत्र में दौड़ते-भागते गाने बजाने वाली कला ही विकसित हो पाई। यही वजह है कि
सांस्कृतिक रूप से उस तरह विकसित ही नहीं हो पाया।
इंटरनेट,
ब्लॉग
और सोशल नेटवकिंर्ग के इस दौर में थियेटर के अस्तित्व पर क्या खतरा नहीं है?
देखिए, जितनी भी मशीन आ जाए, तकनीक आ जाए रंगमंच अपनी जीवंतता की वजह से जीवित रहेगा। तकनीक की उम्र बहुत छोटी होती है। पेजर कब मोबाइल में बदल गया और डेस्कटॉप कंप्यूटर लैपटॉप से होते हुए मोबाइल में समा गया, पता ही नहीं चला। लेकिन रंगमंच हजारों साल से तमाम हमलों के बावजूद जिंदा है और आगे भी रहेगा। इसकी वजह है रंगमंच की सामूहिकता और सामाजिकता।
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