राम गोपाल बजाज |
जाने- माने रंगकर्मी रामगोपाल बजाज मानते हैं कि समाज में रंगमंच को विशेष जगह नहीं मिल पाई है। सरकार भी इसे लेकर उदासीन है। शिक्षा में अभिनय कर्म को शामिल नहीं किया गया, न ही शहरों की योजनाओं में थियेटर को स्थान मिला। पर इन सबके बावजूद बजाज निराश नहीं हैं। वह मानते हैं कि अभिनय के प्रति प्रेम, समर्पण और प्रतिबद्धता के कारण आज भी अनेक नौजवान इस क्षेत्र में आ रहे हैं। पेश है हिंदी रंगमंच के वर्तमान परिदृश्य पर बजाज से अनुराग वत्स की बातचीत...
एक ऐसे समय में जब अभिनेता होने का कुल मतलब फिल्मी ऐक्टर्स हैं, थियेटर का अभिनेता होने के क्या मायने हैं?
थियेटर का अभिनेता फिल्म के अभिनेता से जुदा
नहीं होता। माध्यम का फर्क जरूर होता है। पर जिस नुक्ते से आप सवाल पूछ रहे हैं, उसका
सीधा जवाब तो यह है कि थियेटर का अभिनेता होना आज के दौर में एक जिद्दी और जोखिम
भरा फैसला है। ऐसे अभिनेताओं के लिए समाज में अब भी जगह नहीं बन पाई है। वे अभिनय
कर्म के प्रति प्रेम, समर्पण और प्रतिबद्धता की वजह से ही थियेटर
करते हैं। उनके अभिनय कर्म की पहचान और सराहना बमुश्किल हो पाती है। उन्हें इस
हताश कर देनेवाली कसौटी से अपने को रोज गुजारना पड़ता है कि फिल्म या टेलिविजन में
काम कर आए लोग ही अभिनेता हैं, दूसरे नहीं।
ऐसी स्थिति क्यों बनी?
कई बुनियादी समस्याएं हैं जिनकी ओर ध्यान नहीं
दिया गया। जिस देश में नाट्यशास्त्र रचा गया, उस
देश की शिक्षा व्यवस्था ने अपने पूरे कार्यक्रम में अभिनय कर्म को जगह नहीं दी।
उसके लिए अलग से स्कूल और अकादमी बनाने की बजाय उसे शिक्षा की मुख्यधारा से जोड़ना
चाहिए था, जो
अब तक नहीं हो सका है। दूसरे, समाज की नई बसावट में रंगशालाएं नहीं हैं।
स्टेडियम हैं,
स्वीमिंग पूल और वाटिकाएं भी, पर
जहां नाटक हो सके, वैसी
जगहें टाउन प्लानर के दिमाग में नहीं है। जिन कुछ ऑडिटोरियम का आप नाम जानते हैं, वहां
आपको इतनी महंगी कीमत पर जगह उपलब्ध कराई जाती है कि आप वहां नाटक करने के पहले
दसियों बार सोचते हैं।
आप एनएसडी के निदेशक रहे। यानी एक ऐसी स्थिति
में जहां से आप बदलाव के बारे में सोच सकते थे.
हां, हमने
कोशिश की। बच्चों के थियेटर का महोत्सव 'जश्ने
बचपन' मेरे
कार्यकाल में शुरू हुआ और अब महत्वपूर्ण माने जाने वाले 'भारतीय
रंग महोत्सव'
की शुरुआत भी हमलोगों ने की। रंग महोत्सव में देश के कोने-कोने से नाटक आए, जिसने
लोगों को यह अहसास दिलाया कि देखो नाटक है। मैंने एनएसडी में रहते हुए एकल अभिनय/पाठ की भी शुरुआत की, क्योंकि
नाटक के अभावग्रस्त क्षेत्र में यह कम साधनों में बेहतर नाटक करने की एक युक्ति
थी। आरंभिक विरोध के बाद इसे मान्यता मिली, इसका
मुझे संतोष है। फिर भी मैं कहूंगा, अकेले एनएसडी या संगीत नाटक अकादमी से बदलाव
नहीं आएगा।
एकल पाठ और अभिनय आपकी विशिष्टता रही है। इसकी
ओर कैसे प्रेरणा हुई?
बचपन से साहित्य में रुचि थी। मेरे कुछ मित्र
थे जिनकी आशु रचनाओं को मैं तब बड़े चाव से पढ़ा करता था। कविता या कहानी के भीतर
की नाटकीयता को स्वरों के आरोह-अवरोह से पकड़ने-उभारने की शुरुआत उन्हीं दिनों हुई। थियेटर करते हुए बचपन
का यह शगल बहुत काम आया और बाद में मैंने इसे अपने ढंग से
विकसित करने की कोशिश की।
करीब सत्तर की उम्र, सैकड़ों नाटकों में अभिनय, निर्देशन और अध्यापन के कुल अनुभव को आप किस तरह
बयां करेंगे?
इसे आप अपने प्रश्न में बड़ा करके बता रहे हैं, पर
विशाल सांस्कृतिक और मानवीय कर्म के आगे यह आयु, अनुभव
और किया-धरा बहुत कम है। अभी आगे बहुत सा कम करने का मन है। भारतीय
रंग शैली और परंपरा को लेकर एक पुस्तक भी लिखना चाहता हूं। कुछेक नाटक करने का मन
है जो मुझे बहुत चुनौतीपूर्ण लगते रहे हैं। उपलब्धियां चाहे जो रही
हों, पर
मेरे निजी अनुभव में रंगकर्म को लेकर राज-समाज का जो अब तक का रवैया रहा है, वह
तकलीफदेह है। मैं फिर भी उम्मीद बांधे हूं कि यह सूरत बदलेगी।
युवाओं के साथ आप अब भी काम कर रहे हैं और आपकी
तरह धुन के पक्के ये युवा थियेटर का भविष्य हैं, इनके बारे में क्या राय है?
आज थियेटर में जो युवा आ रहे हैं, वे
बहुत प्रतिभाशाली हैं। उनकी थियेटर की समझ बहुत अच्छी है। वे संवेदनशीलता से अपने
किरदार को निभा ले जाते हैं। पर जब मैं उनकी भाषा सुनता हूं तो मुझे निराशा होती
है। उन्हें न ठीक से हिंदी आती है, न अंग्रेजी। वे अपनी मातृभाषा तक खराब ढंग से
बोलते हैं। हो सकता है इसके पीछे समाज, उसका बदलता भूगोल और वातावरण जिम्मेदार हो, पर
उन्हें इस एक चीज को ठीक करना चाहिए।
बजाज जी की बात सही है कि 'देश की शिक्षा व्यवस्था ने अपने पूरे कार्यक्रम में अभिनय कर्म को जगह नहीं दी... लेकिन अब 'राइट टू एज्यूकेशन एक्ट' से बहुत उम्मीद बनी है । इसके अनुसार अब सभी राज्यो में (cca) continuas comprihensive evaluation लागू किया जा रहा है । जिसके तहत परीक्षा प्रणाली मे सुधार आएगा । cca के प्रावधानों के तहत अब अब मूल्यांकन प्रक्रिया में अकादमिक विषयों के साथ-साथ सहशैक्षणिक पहलुओं को भी उतनी ही अहमियत दी जाएगी। जिनमे बच्चे का सम्प्रेषण थिएटर, संगीत,डांस, आर्ट - क्राफ्ट विधाएँ व इसके अलावा व्यक्तित्व के दूसरे पहलू समूह मे काम करना, संवेदनशीलता इत्यादि शामिल है । यहाँ यह बात महत्वपूर्ण है कि अगर थियेटर व दूसरी कलाओं का सतत मूल्यांकन किया जाएगा तो इसमे यह बात निहित है कि उसे सतत शिक्षण प्रक्रिया मे भी रखा जाएगा। अभी इस और शुरुआत हो रही है । अभी स्कूलों को इसे समझने में देर लग रही है लेकिन देर सवेर इसे होना ही है । अगर थियेटर मे ज़िंदगी शामिल है तो इसका शिक्षा मे आना लाजिमी है । हा यह बात सही है कि वर्तमान में शिक्षा और ज़िंदगी का आपस मे कोई तालमेल नहीं है।
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