रंगमंच तथा विभिन्न कला माध्यमों पर केंद्रित सांस्कृतिक दल "दस्तक" की ब्लॉग पत्रिका.

रविवार, 6 नवंबर 2011

आइटम सॉन्ग’ है पारसी थियेटर की देन : रंजीत कपूर


यह एक पुराना आलेख है पर प्रसंगिकता पुरानी नहीं. ये शायद प्रभात खबर में छापा था. सो आभार सहित प्रस्तुत है. 


हिन्दी फ़िल्मों की सफ़लता के लिए पासपोर्ट बन चुके आइटम सॉन्गकी जडें दरअसल पारसी थियेटर तक जाती है और आज भले ही सिनेमा और रंगमंच से इस प्राचीन शैली के अभिनय के तत्व गायब हो गये हों लेकिन इस नाट्य शैली के गाने गाकर अपनी भावनाओं से दर्शकों को उद्वेलित करने की अदा आज भी कायम है.


हमारी आधुनिक हिन्दी फ़िल्में पश्चिम के रियलिज्मसे प्रभावित दिखने लगी है लेकिन आज भी यह पारसी थियेटर की, गाना गाकर बात कहने की परंपरा को कायम रखे हुए है. पारसी थियेटर में गाना एक अहम तत्व था और इसमें अभिनेता अपनी गूढ भावनाओं को अभिव्यक्त करने के लिए गाने का सहारा लेते थे. आज भी हिन्दी सिनेमा में फ़िल्म निर्देशक, अभिनेताओं की भावनाओं की अभिव्यक्ति देने के लिए गाने का इस्तेमाल करते हैं जिस परंपरा को पारसी थियेटर ने दर्शकों के मन में स्थापित किया था.

वर्ष 1853 में अपनी शुरुआत के बाद से पारसी थियेटर धीरे धीरे एक मोबाइल थियेटर का रूप लेता चला गया और लोग घूम घूम कर नाटक देश के हर कोने में ले जाने लगे. पारसी थियेटर के अभिनय में मेलोड्रामाअहम तत्व था और संवाद अदायगी बडे नाटकीय तरीके से होती थी. आज भी फ़िल्मों के अभिनय में पारसी नाटक के तत्व दिखाई देते हैं.

अभिनेता रघुवीर यादव ने बताया, पारसी थियेटर में एक अभिनेता के लिए एक अच्छा गायक होना बेहतर माना जाता था क्योंकि आधी कहानी गानों में ही चलती थी. पारसी थियेटर का ही प्रभाव है कि आज हमारे हिन्दी फ़िल्मों में गाने का भरपूर प्रयोग किया जाता है. गानों के बगैर आज भारतीय दर्शक फ़िल्म को अधूरा मानते हैं. एक समय में सम्पन्न पारसियों ने नाटक कंपनी खोलने की पहल की और धीरे धीरे यह मनोरंजन का एक लोकप्रिय माध्यम बनता चला गया. इसकी जडें इतनी गहरी थीं कि आधुनिक सिनेमा आज भी इस प्रभाव से पूरी तरह मुक्त नहीं हो पाया है.

अभिनेता अन्नू कपूर ने कहा, औपनिवेशिक काल में भारत के हिन्दी क्षेत्र के विशेष लोकप्रिय कला माध्यमों में आज के आधुनिक रंगमंच और फ़िल्मों की जगह आल्हा, कव्वाली मुख्य थे. लेकिन पारसी थियेटर आने के बाद दर्शकों में गाने के माध्यम से बहुत सी बातें कहने की परंपरा चल पडी जो दर्शकों में लोकप्रिय होती चली गयी. बाद में 1930 के दशक में आवाज रिकॉर्ड करने की सुविधा शुरू हुई और फ़िल्मों में भी इस विरासत को नये तरह से अपना लिया गया. 

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