रंगमंच तथा विभिन्न कला माध्यमों पर केंद्रित सांस्कृतिक दल "दस्तक" की ब्लॉग पत्रिका.

रविवार, 6 नवंबर 2011

हिंदी रंगमंच को नए रास्तों की तलाश


हृषिकेश सुलभ 

हृषीकेश सुलभ

रंगमंच एकांतिक कला नहीं है। यह कई कलाओं का समुच्चय है। रंगमंच अपनी ग्रहणशीलता के कारण विभिन्न कलाओं का नि:संकोच उपयोग करता है। यह ग्रहणशीलता रंगमंच को विनम्र बनाती है। यहां कला के अहं और कला की कुंठाओं को जगह नहीं मिलती। यहां तमाम अहं और कुंठाओं की आहुति दी जाती है। रंगमंच कला का सर्वाधिक शक्तिशाली जनतांत्रिक स्वरूप है। रंगमंच का जनतांत्रिक होना ही उसके आस्वादन को आत्मीय और गहरा तथा उससे जुडाव को उत्कट बनाता है। यहां रचने की प्रक्रिया और आस्वादन, सब में अन्य लोग सहभागी होते हैं। यहां एकालाप है पर वह अपने लिए नहीं, दूसरों के लिए है। रंगकर्मी को अन्य कलारूपों के प्रति सहृदय रहना होता है। रंगमंचीय प्रस्तुति के भीतर आवश्यकतानुसार अन्य कलारूपों को स्वीकार करने या समाहित करने की विनम्र कोशिशें रंगमंच की रचनात्मक शर्त है। यहां कुछ भी गोपन या निजी नहीं होता। रंगमंच की रचनात्मकता में निज का महत्व कम है। जीवन का कोई ऐसा सुख-दु:ख, मन की कोई ऐसी पीडा या उल्लास, जो दूसरों के काम न आ सके, रंगमंच के लिए उपयोगी नहीं हो सकता। यहीं पर रंगमंच अपने कलात्मक उत्कर्ष को भी प्राप्त करता है। जैसे जनतंत्र अन्तर्विरोधों से भरा हुआ होता है, वैसे ही रंगमंच की कला भी अन्तर्विरोधों से भरी हुई होती है। जनतंत्र के अन्तर्विरोध ही जनतंत्र के लिए नई राहों की खोज करते हैं। रंगमंच के अन्तर्विरोधों से रंगकर्म के लिए नए रास्ते आविष्कृत होते हैं।

मेरे मन में यह सवाल बार-बार उठता है कि हिंदी रंगमंच गंभीर विमर्शो से क्यों कतराता रहा है? गहरे सामाजिक सरोकारों से जुडे होने के बावजूद रंगमंच की दुनिया में समाज की आंतरिक हलचलों पर बातचीत क्यों नहीं होती? प्रशिक्षित और स्वनामधन्य रंगकर्मियों के बीच भी जीवन और जगत के महत्वपूर्ण प्रश्नों से टकराने की बौद्धिक क्रियाओं के प्रति गहन उपेक्षा-भाव देखने को मिलता रहा है। क्या यही कारण है कि रचनात्मकता की दुनिया में हिंदी रंगमंच को वह प्रतिष्ठा और स्थान अब तक नहीं प्राप्त हो सका है, जो साहित्य, संगीत और चित्रकला को प्राप्त है। विश्व इतिहास इस बात का साक्षी है कि जब-जब सामाजिक परिवर्तन के महत्वपूर्ण मोड आए हैं सृजन की दुनिया ने, विशेषत: साहित्य ने ऐसे पूर्वाभास या पूर्व संकेत दिए हैं, जिनसे जन-जीवन के आंतरिक संघर्षो, समाज के उद्वेलनों और मानव-मन के तनावों का विश्लेषण किया जा सके। इन विश्लेषणों से वैचारिक द्वंद्व उभरता है, विचारों के घात-प्रतिघात की प्रक्रिया सामने आती है और विमर्श की भूमि तैयार होती है। समाज में हो रहे परिवर्तनों तथा विकास की प्रक्रियाओं और दिशाओं को खोजना सृजन की दुनिया के लिए एक जरूरी शर्त है। यह तभी संभव है जब हम नई अंतर्दृष्टिओं की, नए परिप्रेक्ष्यों की, संवेदना के नए तत्वों की पहचान करें। हिंदी रंगमंच ऐसे बौद्धिक आवेगों और आग्रहों से कटा हुआ है। उनका यह कटा होना उसे पीछे धकेलता है और एक ऐसी रूढि या जडता को जन्म देता है, जिसमें तात्कालिक लाभ या सफलता को ही श्रेष्ठता का चरम या उपलब्धि का शिखर मान लिया जाता है।

हमारा देश एक नई किस्म की औपनिवेशिक दासता के युग में जी रहा है। यह औपनिवेशिक दासता बाजार और पूंजी के माध्यम से हमारी सांस्कृतिक पहचान को मिटा रही है, हमारी सांस्कृतिक भूख की प्रकृति को बदल रही है। हिंदी रंगमंच या तो इस दासता को स्वीकार कर अपने जीवित रहने का भ्रम फैला रहा है या फिर परंपराजीवी होकर संघर्ष करने की भूल कर रहा है। परंपराजीवी होकर इस दासता से संघर्ष संभव नहीं है। हमारे रंगमंच का बहुलांश समाज के वाह्यजगत और अंतर्जगत में तेजी से बदल रहे भूमि संबंधों, अर्थव्यवस्था के विघटन, संरचनात्मक बदलावों और वर्ग परिवर्तनों से टूटती-बनती नई व्यवस्थाओं, जातीय चेतना के उभारों-उद्वेलनों आदि को लेकर रचनात्मक जिज्ञासा के साथ विमर्श करने की ऐतिहासिक अनिवार्यता और आवश्यकता की अनदेखी कर रहा है, मुंह चुरा रहा है। मैं जिस रंगमंच की बात कर रहा हूं, वह महानगरों में केंद्रित है और जिसके सूत्रधार प्रभावशाली माने जाने वाले रंगकर्मी हैं। ठीक इसके विपरीत जनपदीय नगरों-कस्बों और गांवों में एक अनगढ रंगमंच है। यह रंगमंच विमर्श तो नहीं करता पर जीवन के ऐसे संवेदनशील यथार्थ को अपना लक्ष्य बनाता है, जहां करवट लेते नए समय की हलचलें हैं, संवेदना की आ‌र्द्रता है, संघर्षो की तपिश है और पीडा-अवसाद के बीच से उबरकर जीवित रहने का हुनर है। इस रंगमंच को भी महानगरों के रंगमंच का खोखलापन अब प्रभावित करने लगा है। जिन्हें सुविधा-साधन-प्रशिक्षण प्राप्त है उनका रंगमंच विदेशी पूंजी, यश और वैभव के लिए लार टपका रहा है। जिनके पास कुछ नहीं है, उनका रंगमंच जीवित बचे रहने के लिए संघर्ष कर रहा है।

रंगमंच की दुनिया से जुडे लोग बौद्धिक आवेगों, क्रियाओं और विमर्शो को अपने लिए आवश्यक नहीं मानते। वे रंगमंच की दुनिया में केवल व्यावहारिक प्रशिक्षण और क्रियाओं के महत्व को स्वीकार करते हैं और उसी पर ध्यान देते हैं। इस उपेक्षा-भाव ने रंगमंच को बहुत घाटा पहुंचाया है। हिंदी रंगमंच की अधिकांश प्रस्तुतियों के नाट्यालेख अपने पहले निर्देशक के बाद किसी दूसरे निर्देशक की राह निहारते रह जाते हैं। अगर किसी दूसरे निर्देशक ने उसका मंचन किया भी तो उसे असफलता ही हाथ लगती है। जिन रंगमूल्यों की वाहवाही लूटी जाती है, वे रंगमूल्य भविष्य के लिए फिसड्डी साबित होते हैं। तात्कालिक सफलता के फार्मूलों ने हिंदी रंगमंच पर साहित्यिक मूल्यों वाले स्तरीय नाट्यालेखों की उपस्थिति को क्षीण किया है। एक श्रेष्ठ नाट्यालेख को साहित्य और रंग, दोनों मूल्यों की कसौटी पर खरा उतरना होता है। साहित्यिक मूल्यों की पहचान और रंगमंच पर उसके पुनराविष्कार के लिए बौद्धिक आवेगों से रचनात्मक अनुशासन प्राप्त होता है। रचनात्मक अनुशासन के अभाव में हिंदी रंगमंच का बहुलांश आज परजीवी हो चुका है। अधिकांश प्रस्तुतियां रंगकर्मियों की सिसृक्षा का प्रतिफल न होकर, रंगकर्म के नाम पर चलने वाली परियोजनाओं से धन अर्जित करने की लालसा की उपज हैं।

अब यह आवश्यक हो गया है कि हिंदी रंगमंच अपने अंत‌र्द्वन्द्वों से टकराए और अपने लिए नए रास्तों की तलाश करे। रंगमंच को आज मात्र मनोरंजन के साधन के रूप में विकसित नहीं किया जा सकता। आज आवश्यकता है कि इसे शिक्षा के साथ जोडा जाए। शिक्षा से जुडते ही रंगमंच के नए आयाम खुलेंगे। रंगमंच के सरोकारों को लेकर जब तक दृष्टि साफ नहीं होगी, रंगमंच जब तक भाषा और कथ्य के स्तर पर स्थानीय नहीं होगा; उसे जीवित रख पाना मुश्किल है।

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