रंगमंच तथा विभिन्न कला माध्यमों पर केंद्रित सांस्कृतिक दल "दस्तक" की ब्लॉग पत्रिका.

बुधवार, 28 दिसंबर 2011

'लगातार अच्छे नाटक होंगे तो दर्शक अपने-आप चले आएंगे'


संगीत नाटक अकादमी पुरस्कार से सम्मानित भानु भारती ने 1973 में राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय से ग्रैजुएशन करने के बाद टोकियो यूनिवसिर्टी से पारंपरिक जापानी रंगमंच का प्रशिक्षण प्राप्त किया। उन्होंने पचास से भी अधिक नाटकों का निर्देशन किया है और हाल में फिरोजशाह कोटला में अंधायुग का मंचन कर फिर से चर्चा में हैं। उनसे राजेश चन्द की बातचीत... 


अपने तीन दशकों की रंगयात्रा को आप किस रूप में परिभाषित करेंगे? 
अंधायुग को छोड़ दें तो, मैंने आम तौर पर स्थापित नाटककारों को, खासकर उनको, जो 60-70 के दशक में श्रेष्ठ नाटककार के तौर पर जाने गए, बिल्कुल नहीं खेला। मेरी व्यावसायिक रंगयात्रा सन् 74 से शुरू होती है। व्यावसायिक निदेर्शक के रूप में मेरा पहला नाटक था- मणि मधुकर का 'रसगंधर्व'। वह मणि मधुकर का भी पहला नाटक था और तब तक नाटककार के रूप में उनकी पहचान नहीं बनी थी। उसके बाद मैंने भुवनेश्वर का नाटक 'तांबे के कीड़े' किया। इस यात्रा में आप पाएंगे कि लगातार जो है उसके पार कुछ तलाशने, सृजित करने की मेरी कोशिश रही है और ऐसा केवल स्क्रिप्ट को लेकर नहीं है। 

प्रस्तुति शिल्पों के भी जितने प्रयोग आपको मेरे काम में मिलेंगे उतने दूसरे रंग निर्देशकों में शायद ही मिलेंगे। लेकिन इसके पीछे किसी को चौंकाने या स्वयं को सिद्ध करने की मंशा नहीं है अपितु एक बेचैनी है - रंगमंच को हमेशा अपने समय को परिभाषित करने में सक्षम बनाने की। हम जिस दौर में जिंदा हैं वहां कुछ भी कह पाना या कि किसी भी तरह की निश्चितता लगभग असंभव-सी हो गई है। ऐसे में मुझे लगता है कि किसी एक नाट्य स्थापत्य या शिल्प के साथ दाम्पत्य सूत्र में बंधकर नहीं रहा जा सकता। 

हिंदी रंगमंच क्या सच में एक परजीवी रंगमंच है? 
मैं ऐसा नहीं मानता। हिंदी समाज में रंगमंच के लिए भरपूर जिज्ञासा और अवकाश मैंने हमेशा पाया है लेकिन दुर्भाग्यवश हिंदी रंगकर्म में एक तो निरंतरता की कमी है, दूसरे जो अधिकांश नाटक खेले जा रहे हैं, उनकी जड़ें हमारे समाज और संस्कृति में नहीं हैं। ज्यादातर नाटकों से कोई भावनात्मक या कि रचनात्मक लगाव हिंदी दर्शकों का बन नहीं पाता। लेकिन जब-जब नाट्य प्रस्तुतियों ने लोगों से एक रचनात्मक रिश्ता बनाया तब-तब दर्शकों का भरपूर समर्थन उन्हें मिला। आगरा बाजार, चरणदास चोर, चंद्रमा सिंह उर्फ चमकू, कथा कही एक जले पेड़ ने, यमगाथा, अंधायुग के कुछ प्रयोग इसके अच्छे उदाहरण हैं। 

आजकल रंगमंच में तड़क-भड़क खूब बढ़ रहा है। आप इस पर क्या कहेंगे? 
आधुनिक हिंदी रंगमंच में एक कमी उसके आरंभिक दौर से रही है। कोई भी भाषा अपने सांस्कृतिक परिदृश्य से कट कर अपनी जीवंतता नहीं बनाए रख सकती। ब्रज, अवधी, भोजपुरी, उर्दू, राजस्थानी-ये ऐसी भाषाएं हैं जिनसे आधुनिक हिंदी ने पहचान बनाई। लेकिन कॉस्मोपॉलिटन और कमर्शल दबावों के चलते एक ऐसी हिंदी पिछले दो-तीन दशकों में विकसित हुई है जिसमें जुमलेबाजी तो की जा सकती है, लेकिन कोई गहरा सांस्कृतिक- बौद्धिक विमर्श संभव नहीं हो पाता। नाटक की भाषा कविता का रचाव-बसाव चाहती है। इसमें वैसी भाषा चाहिए जो हमें कबीर के यहां मिलती है। लेकिन दुर्भाग्य से उसका संस्कार न तो हमारे नाट्य प्रशिक्षण केंदों में है और न ही हमारे रंगकमिर्यों में है। इस लिहाज से अगर मैं देखूं तो केवल एक हबीब तनवीर नजर आते हैं जिनके नाटकों में भाषा को लेकर उस तरह की सजगता है, अन्यथा तो ज्यादातर में भाषा को लेकर लापरवाही है। 

आजकल ड्रामा फेस्टिवल अकसर हो रहे हैं। इन्हें लेकर आप क्या सोचते हैं? 
साल में एकाध उत्सव कर लेने से रंगमंच का भला नहीं होने वाला। जब तक रंगकर्म में निरंतरता नहीं होगी, अच्छा रंगमंच संभव नहीं होगा। लोग अक्सर दर्शकों की कमी का रोना रोते हैं लेकिन मेरा अनुभव यह है कि जब भी कोई अच्छा नाटक खेला गया है और दर्शकों तक उसकी पहुंच हुई है, उसे सराहाना मिली है। हिंदी में दर्शकों का अभाव नहीं है, अभाव है रंगमंच की निरंतरता का। गाहे-बगाहे किसी नाटक के दो-चार प्रदर्शन दर्शकों को जुटाने के लिए नाकाफी हैं। जब तक हिंदी में व्यावसायिक टोलियों की गुंजाइश नहीं बनेगी, तब तक न तो अभिनेताओं की रोजी-रोटी का प्रबंध होगा और न ही अच्छे रंगमंच का विकास संभव होगा। दर्शक हैं और रंगमंच के लिए एक जबरदस्त भूख भी समाज में है। यह बात मैं केवल दिल्ली या बड़े शहरों के संदर्भ में नहीं कह रहा। अच्छे नाटकों का अभाव दर्शकों को बार-बार निराश करता है। 

मौजूदा दौर में ठहराव, समस्याएं और प्रश्न ही दिखाई पड़ते हैं या कोई नई यात्रा या बेचैनी भी दिखाई देती है? 
मैं केवल अपनी बात कह सकता हूं। मैं अपने समय में सार्थक रंगमंच की तलाश के लिए बेचैन रहता हूं और मेरी प्रस्तुतियों में आपको इसका अहसास जरूर होता होगा। अभी हाल में जो नाटक मैंने लिखा और खेला 'तमाशा न हुआ' उससे भी मेरी इस बात की ताकीद होती है।

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