रंगमंच तथा विभिन्न कला माध्यमों पर केंद्रित सांस्कृतिक दल "दस्तक" की ब्लॉग पत्रिका.

बुधवार, 8 फ़रवरी 2012

रंग महोत्सवों की बाढ़ के फायदे - नुकसान

मृत्युंजय प्रभाकर 
कला माध्यमों में रंगमंच सबसे ग्लैमरविहीन रहा है। कारण यह था कि संगीत, नृत्य और सिनेमा के तो बड़े महोत्सव देश भर में आयोजित होते रहते थे लेकिन नाटक के महोत्सव उस बड़े स्तर पर कम ही आयोजित होते थे। कल तक शौकिया रंगकर्मी अपनी मेहनत से कोई नाटक तैयार कर भी लेते थे तो उन्हें एक-दो प्रदर्शन के बाद अपने नाटक बंद करने पड़ते थे क्योंकि ऐसा कोई मंच नहीं था जहां वे अपने नाटकों को बार-बार प्रस्तुत कर सकें। लेकिन रंगमंच का यह सूखा अब खत्म हो गया है। आज देश भर में नाट्य महोत्सवों की बहार आ गई है। सरकारी, अर्धसरकारी और कॉरपोरेट सभी लोगों के सहयोग से नाट्य महोत्सव देश भर में सालों भर आयोजित हो रहे हैं। हाल ही में राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय द्वारा दिल्ली में आयोजित भारत रंग महोत्सव हो, पृथ्वी थिएटर, मुंबई का महोत्सव हो, नांदीकार, कलकत्ता का महोत्सव हो या सुदूर केरल में आयोजित होने वाला अंतर्राष्ट्रीय नाट्य महोत्सव हो, ये सभी देश के बड़े रंग महोत्सवों में शुमार हैं। इनके अलावा भोपाल, जबलपुर, रायपुर, रायगढ़, चंडीगढ़, पटना, बेगूसराय से लेकर देश के सुदूर अंचलों तक छोटे-बड़े पैमाने पर नाट्य महोत्सव आयोजित किए जा रहे हैं। महोत्सवों की इसी भीड़ में एक और नाम "मेटा" थिएटर फेस्टिवल है जिसे महिन्द्रा जैसा बड़ा कॉरपोरेट घराना आयोजित कराता है। 
भारत सरकार का संस्कृति मंत्रालय भी महोत्सवों के आयोजन पर कुछ ज्यादा ही ध्यान दे रहा है। देश भर में संस्थाओं को महोत्सव आयोजित करने के लिए आर्थिक सहायता प्रदान किया जा रहा है। इससे प्रयोजित होकर भी छोटी-छोटी संस्थाएं अपना नाट्य महोत्सव आयोजित कर रही हैं। अब ऐसे में क्या यह मान लेना चाहिए कि रंगमंच अब केंद्र में आ रहा है? क्या रंगमंच के प्रति समाज, सरकार और दर्शकों का रवैया बदला है? इससे भी बड़ा सवाल यह है कि इन महोत्सवों से आखिर रंगकर्म, रंगकर्मियों और दर्शकों को क्या फायदा मिल पा रहा है।
इस बात से कोई इनकार नहीं कर सकता कि नाट्य महोत्सवों के कारण अब रंगकर्मियों, निर्देशकों और रंग समूहों को भागीदारी का अवसर ज्यादा मिल पा रहा है। इसका सीधा फायदा उन रंगकर्मियों को मिल रहा है जो पहले संसाधनों के अभाव में एक-दो शो करके ही नाटक बंद कर देने को मजबूर हो जाते थे। नाटक अगर अच्छा बन पड़ा है तो उसे शो मिल जाते हैं। लेकिन क्या यह भी इतना आसान रह गया है। यह कहना तो आसान नजर आता है लेकिन अधिकांशतः नाट्य महोत्सवों में शामिल नाटकों की फेहरिस्त इस बात की चुगली करती है कि नाटकों के चयन के कई दूसरे मापदंड ज्यादा हावी होते हैं। ज्यादातर छोटे और सरकार पोषित महोत्सवों में उन्हीं लोगों के नाटक भागीदारी करते दिखाई देते हैं जो कहीं से भी सरकारी कमिटी के हिस्से हैं या उसे अपने तरह से प्रभावित करने की क्षमता रखते हैं। कई सारे महोत्सव तो सीधे तौर पर एक-दूसरे को उपकृत करते नजर आते हैं। इससे होता यह है कि कुछ नाम हर महोत्सव में देखने में आ ही जाते हैं। नाट्य महोत्सवों से जुड़ा यह एक भयावह सच है जो दर्शाता है कि हालात उतने भी अच्छे नहीं हैं जितने दिखाई देते हैं। 
इन महोत्सवों से दर्शकों को जो सीधा फायदा होता दिखता है वह यह कि उन्हें एक ही जगह पर तरह-तरह के नाटक देखने को मिल जाते हैं। इस तरह वह कई तरह के नाटकों का आस्वाद ले सकते हैं। भिन्न-भिन्न रंगकर्मियों का काम अपने शहर में होते हुए देख सकते हैं। लेकिन चूंकि महोत्सव में आने वाले नाटकों का चयन अपने आप में एक विवादित प्रश्न है इसलिए दर्शक भी वही देख पा रहे हैं जो आयोजकों या प्रयोजकों की पसंद हैं। इसमें दर्शकों की कोई राय नहीं है। ऐसा नहीं है कि किसी खास शहर में दर्शकों से पूछकर महोत्सव आयोजित किए जाते हों कि वह कैसे नाटक देखना पसंद करते हैं। हां, यह जरूर हुआ है कि दिल्ली और दूसरे बड़े शहरों में दर्शक अब नाटकों के प्रति भी रुझान रखने लगे हैं। 
जहां तक रंगकर्म का सवाल है। इसे इससे जो भी फायदा हुआ है वह मूलतः शैलीगत ही है। रंगकर्मी एक-दूसरे का काम देखकर सीखते हैं। सो एक साथ ज्यादा से ज्यादा रंगमंच देख पाना निश्चित ही उनके लिए लाभकारी अनुभव है। पर इसका नुकसान यह है कि "कॉपी कैट" निर्देशक बढ़े हैं। रंगकर्मी किसी खास निर्देशका का कोई नाटक देखकर अपने छोटे शहर में जाकर हूबहू वही सब कर अपना सिक्का जमाने की कोशिश करते हैं। वह अपनी जगह, वहां के दर्शक, वहां की संस्कृति, समाज, समस्याओं और जरूरतों को जरा भी ध्यान में नहीं रखते। इसलिए कई बार ऐसा लगता है कि यह नाटक तो कहीं भी हो सकता है। नाटकों के लिए स्थानीयता एक बड़ी शर्त है। यह अब नाटकों से गायब हो गया है। आप कहीं रहकर भी यूनिवर्सल थिएटर कर सकते हैं जिसका अपनी संस्कृति से कोई लेना-देना नहीं होता है। हालांकि यह भी कोई नया चलन नहीं है। इस तरह देखें तो नाट्य महोत्सवों के अपने फायदे और नुकसान दोनों नजर आते हैं।

मृत्युंजय प्रभाकर बहुमुखी प्रतिभा से संपन्न. पटना रंगमंच से लंबे समय तक जुडाव. वर्तमान में दिल्ली प्रवास और नई दुनियां अखबार में कला के विभिन्न माध्यमों पर लगातार लेखन तथा सहर नामक सांस्कृतिक दल का संचालन . उनसे naisehar@gmail.com पर संपर्क किया जा सकता है. 

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