रंगमंच तथा विभिन्न कला माध्यमों पर केंद्रित सांस्कृतिक दल "दस्तक" की ब्लॉग पत्रिका.

शनिवार, 7 जुलाई 2012

गीत गाने पर मौत की सजा


गजाला 

ऐसा नहीं है कि ये हालत केवल पाकिस्तान में है | कट्टरवाद एक वैश्विक समस्या है | अंजना ओम कश्यप का यह आलेख जनसत्ता 6 जुलाई, 2012 से साभार यहाँ प्रस्तुत किया जा रहा है | - माडरेटर मंडली.
पेशावर की गजाला को गीत गाने की जिद की कीमत जान देकर चुकानी पड़ी। लेकिन उसका ज्यादा बड़ा गुनाह यह था कि उसने औरत होने के बावजूद गीत गाने, दुनिया के बारे में सोचने की हिम्मत की। कुछ समय पहले पेशावर के बीच बाजार में उसे गोलियों से छलनी कर दिया गया। बगल में उसे बचाने आए पिता की लाश पड़ी थी। यह सजा यहीं खत्म नहीं हुई। तालिबान का खौफ ऐसा था कि उनकी लाशें तब तक नहीं उठीं, जब तक परिवार के लोग नहीं पहुंच गए। मुगालता था कि इससे पाकिस्तान के खैबर पख्तूनवा के पठारों में गूंजते हुए सरगम सहम उठेंगे, लेकिन इसके अगले ही दिन मुत्तहिदा मजलिस-ए-अमाल की नाफरमानी करते हुए कुछ लड़कियों और लड़कों ने पेशावर के निश्तार हॉल के दरवाजे पर अमन के गीत गाए।
गीत गाने पर मौत की सजा की रिवायत खैबर पख्तूनवा में बहुत पुरानी है। 2009 की सर्दियों की सुबह स्वात की राजधानी मिंगोरा में शबाना नाम की एक लोकगायिका को पूरे परिवार के सामने उसके घर से खींच लिया गया। मौत की मुनादी पीटी गई। तमाशबीन जुटाए गए और फिर बीच चौराहे पर गोली मार दी गई थी। उसी साल पश्तो के बाबा-ए-गजल कहे जाने वाले आमिर हमजा और महान सूफी कवि रहमाना बाबा की मजार उड़ा दी गई। गजाला की हत्या से कुछ ही हफ्ते पहले अकोरा में मशहूर पख्तून कवि अजमल खटक के निर्माणाधीन स्मारक को चरमपंथियों ने सबके सामने गिरा दिया।
हालांकि खैबर पख्तूनवा में गाने-गुनगाने या थिरकने पर पाबंदी पुरुषों पर भी उतनी ही है, जितनी औरतों पर। लेकिन यह पाबंदी औरतों के मामले में ज्यादा जालिम है। पुरुषों के मामले में उनका विरोध मजारों, दरगाहों और स्मारकों तक ही है। पुरुषों को कम से कम जिंदा रहने की मोहलत चरमपंथी दे देते हैं। मसलन, दो साल पहले हास्य कलाकार आलमजेब मुजाहिद को तालिबान के गुर्गों ने उठा लिया था और फिर इस चेतावनी के साथ छोड़ दिया कि वे अब दोबारा मंचों का रुख नहीं करेंगे। मुजाहिद ने चुपचाप हंसाने के अपने हुनर का गला घोंट दिया। औरतें इस मामले में ज्यादा ताकतवर तरीके से सामने आई हैं। तालिबान के खौफ के सामने अपने सुर और साज को समेट देने के बजाय वे उसे चुनौती दे रही हैं, यह पता होने के बावजूद कि किसी भी दिन किसी चौराहे पर उनकी मौत का मजमा लगाया जा सकता है।
दरअसल, कोई भी चरमपंथी जमात सबसे कमजोर तबके के आजाद हो जाने के खयाल से भी डरती है। और तालिबान के लिए खैबर पख्तूनवा की औरतें इस तबके में सबसे पहले आती हैं। वह डर के डंडे से औरतों के अख्तियार पर राज करना चाहता है। इसीलिए जिस दिन से वह शौहर और औलाद की दुनिया से इतर अपनी तमन्नाओं की दुनिया आबाद करने के बारे में सोचती है, मौत उसके मुस्तकबिल के साथ चस्पां कर दी जाती है। लेकिन खैबर पख्तूनवा की औरतें जीवट वाली हैं। वे तमाम खतरों के बीच अपने ख्वाबों को आकार दे रही हैं। इस जिद की लौ न शबाना के जनाजे के साथ बुझी और न गजाला की गली के गमजदा हो जाने पर। उलटे तालिबान की गोलियां औरतों को अपने सपनों को लेकर जिद्दी बना रही हैं। कहते हैं, सबसे बुरे दिनों में सबसे अच्छे गीत बनाए और गाए जाते हैं। गुल पनरा, साइमा नाज, मुसर्रत मोहम्मद और उरूज मोहम्मद जैसी गायिकाओं ने ऐसे दौर में अपना मुकाम हासिल किया, जब खैबर पख्तूनवा में जिंदगी हर सांस का हिसाब मांगती थी।
आज पख्तूनवा के मंचों पर ताला लगा हुआ है। लेकिन बंद तालों के भीतर साजों के बाजार मुसलसल तरीके से आबाद हैं। निश्ताराबाद की गलियों से गुजरते हुए आपको लगेगा कि आप गीतों के कारवां का हिस्सा हैं। हर चौथे घर से आपको गजाला की आवाज सुनाई देगी। सिर्फ चौबीस साल की जिंदगी मिली गजाला को। तालिबान ने सोचा था कि गजाला की हत्या पख्तूनवा की औरतों के सपनों पर पूर्ण विराम लगा देगा। लेकिन हो रहा है इसका उलटा। लड़कियां नए सिरे से सपने देख रही हैं, औरतें गोलियों से बेखौफ होकर अमन के गीत गुनगुना रही हैं। संगीत का जोर सिसकियों के शोर पर भारी पड़ा है। गजाला और शबाना पाकिस्तान के इस हिस्से में औरत का नाम नहीं, बल्कि उसके जज्बे का नाम बन गई हैं। यह आधी आबादी का अनोखा इंकलाब है। इस विश्वास का विस्तार कि जुल्मतों के दौर में भी गीत गाए जाएंगे।

3 टिप्‍पणियां:

  1. पाकिस्तान हमेशा से ही दक़ियानूसी सोच से ग्रस्त रहा है।
    हमारे देश में तो लड़कियां मज़े से लिव इन रिलेशन में रह रही हैं और सरोगेट मदर बन कर पैसे भी कमा रही हैं। हमारे यहां कई वीर्य बैंक भी मौजूद हैं।
    पाकिस्तान इन सब तरक्क़ियों से महरूम है।
    पता नहीं पाकिस्तान कब तरक्क़ी के रास्ते पर चलेगा ?

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  2. Hamare desh se agar aapka sabab hindustan se hai to aap iss baat se muh nahi pher sakte ki bharat ke Haryana aur UP ke kitne hi gaon me auraton ko mobile rakhne ki aazadi nahi hai. Paanch baje ke baad wo ghar se akele bahar nahi nikal sakti.

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