रंगमंच तथा विभिन्न कला माध्यमों पर केंद्रित सांस्कृतिक दल "दस्तक" की ब्लॉग पत्रिका.

शुक्रवार, 19 जुलाई 2013

रंगमंच पर चलता है चंद लोगों का राज. - मृत्युंजय प्रभाकर.

अपनी मांगों को लेकर धरना पर बैठे पटना के रंगकर्मी 
दुःख होता है जब देखता हूँ कि इस अंधकारमय समय में जहाँ संस्कृति की मशाल जलती रहनी चाहिए, उसी को संस्कृतिकर्मी और संस्कृति मंत्रालय ही बुझाने में लगे होते हैं। देश भर में लोभ-लालच-प्रपंच और स्वार्थ का जो नंगा नाच जारी है, वह जीवन के हर क्षेत्र में है। लेकिन इस बात का अफ़सोस होना लाजिमी है कि जो संस्कृतिकर्मी, रंगकर्मी, साहित्यकार और कलाकार मंच और अपनी रचनाओं से हमेशा देश-दुनिया और समाज बदलाव न सही, समाज सुधार की बात तो करता ही है वह भी ऊपर से नीचे तक उसी लोभ-लालच-प्रपंच और स्वार्थ में आकंठ तक डूबा है। जितना बड़ा नाम, उतने बड़े लोभ-लालच-प्रपंच और स्वार्थ की पोटली। हम जिस दुनिया को छोड़कर कला की दुनिया में आये वह भी वैसी की वैसी निकली। कहीं जैनों, अल्काज़ियों, कपूरों का राज है तो कहीं किसी और खानदान का। नाम बदल जाने से यहाँ चेहरे नहीं बदलते। सब के सब लोभ-लालच-प्रपंच और स्वार्थ में लिप्त। पर संघर्ष बाहरी दुनिया से पहले अपने घर से शुरू होती है। वह चाहे दिल्ली हो या पटना, जयपुर हो या मणिपुर, बेंगलुरु हो या चेन्नई, अब वक़्त आ गया है की संस्कृति की आड़ में छुपे इन तत्वों की पहचान की जाये और इनसे निपटा जाये। पर इसकी यह शर्त होनी चाहिए की मुंहदेखी नहीं चलेगी। बिहार में भ्रष्टाचार पर तो बोलेंगे लेकिन दिल्ली के अपने आकाओं की कारगुजारियों पर चुप्प रहेंगे क्यूंकि यहाँ से लाभ है। यह हद दर्जे का लिजलिजापन है और इससे कुछ नहीं बदलने वाला। पटना में संस्कृति विभाग के विभा सिन्हा, संजय सिंह जैसे लोग अपराधी हैं तो उतना ही बड़ा अपराधी बीइपी में काम करने वाले अशोक तिवारी भी हैं जो कमीशन लेकर रंगकर्मियों को प्रोजेक्ट देते हैं और रंगकर्मी ही उन्हें कमीशन देते भी हैं। वहीँ दिल्ली में बैठे एनएसडी के शूरमा भी उतने ही बड़े अपराधी हैं जो दिन रात पैसे की लूट-खसोट, बाटम-बाँट और अपनों को आगे बढ़ाने में निर्लज्ज तरीके से लगे हैं। संपूर्ण संघर्ष ही रास्ता दे सकता है, वरना सब बेकार की कवायद है।

कार्ल मार्क्स ने 1851 में फ्रांस में लुइस बोनापार्ट के नेतृत्व में हुए सत्ता परिवर्तन को नेपोलेअन बोनापार्ट (लुइस का चाचा जिसने 1799 में यही कम किया था) के सन्दर्भ में रखते हुए लिखा था कि इतिहास हमेशा अपने आप को दुहराता है, पहले त्रासदी के रूप में फिर मजाक के तौर पर! बिहार में प्रेमचंद रंगशाला पर नियंत्रण और संस्कृति मंत्रालय में फैले भ्रष्टाचार को लेकर रंगकर्मियों के आन्दोलन को मैं इसी तौर पर देखता हूँ। 1987 में जिन रंगकर्मियों और संगठनों (खासकर इप्टा) के नेतृत्व में प्रेमचंद रंगशाला को CRPF से मुक्त करवाने के लिए आन्दोलन खड़ा हुआ आज वही रंगकर्मी और संगठन मंत्रालय के कर्ता-धर्ता हैं और रंगकर्मियों का आन्दोलन एक तरीके से उन्हें लक्षित करता है। आज मार्क्स के कथन को अपनी आँखों के सामने चरितार्थ होता देख रहा हूँ। बिहार और बंगाल की राजनीति में तो इसे पहले ही देख चुका हूँ अब बारी संस्कृति में इसके उद्घाटन का है। इतिहास ने यह चक्र बहुत जल्दी पूरा कर लिया है। मार्क्स की ही शब्दावली में कहूँ तो मुझे यह वर्ग परिवर्तन का मसला ज्यादा है। इस पोस्ट के माध्यम से मैं अपने पूर्व क्रांतिकारी वरिष्टों से यह मांग करता हूँ कि यदि उनके ऊपर सीधे-सीधे कुछ आरोप हैं तो उन्हें खुलकर सामने आकर अपनी बात रखनी चाहिए नहीं तो समझा जाएगा कि सच में उनका चारित्रिक पतन हो चुका है। इनमें बहुत सारे मेरे अपने लोग हैं जिनसे सीखकर ही आज जो भी बन सका हूँ, हूँ। उनका यह अवदान मैं ताउम्र मानता रहूँगा लेकिन शायद दिल के किसी कोने में उनका सम्मान न बचाए रख सकूँ। 
                                                                         आलेख मृत्युंजय प्रभाकर के फेसबुक वाल से साभार.

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें