रंगमंच तथा विभिन्न कला माध्यमों पर केंद्रित सांस्कृतिक दल "दस्तक" की ब्लॉग पत्रिका.

रविवार, 19 जनवरी 2014

16वें भारत रंग महोत्सव का 13वां दिन

अमितेश कुमार का यह आलेख रंगविमर्श ब्लॉग से साभार. अमितेश से amitesh0@gmail.com पर संपर्क किया जा सकता है. 

हमारे समय में आदिवासी जीवन या उनके परिवेश पर आया संकट नया नहीं है इसके स्रोत एतिहासिक हैं. आधुनिक समय के इस संकट का करीबी रिश्ता अंग्रेजी शासन से जुड़ता है जब उसने जंगल की सामग्रियों की राज्य की संपति घोषित कर दिया, जमीन का बंदोबस्त करके स्थानीय सामंत पैदा किये जिसके तले मेहनतकश जातियां जो इन जमीनों या वनोपजों पर निर्भर थी, उनके शोषण का मार्ग खोल दिया. आदिवासियों को पता चला कि ये नदिया उनकी नहीं है ये तेंदू पत्ते उनके नहीं है. लकड़ी के लिये सरकार की इजाजत लेनी पड़ेगी. झूम खेती वह नहीं कर सकते. उनकी दिनचर्या और पेशेवर जीवन का तरीका राज्य के नियमों के हिसाब से अपराध हो गया. लेकिन इस सबके साथ अंग्रेजों ने इसाई मिशनरी को इनके जीवन में प्रवेश कराया जो इन्हें अंग्रेजी शासन के अनुकूल करने  और व्यापक पैमाने धर्मांतरण कराने की कोशिश की जो हुआ भी. लेकिन उत्पीड़न और शोषण ने आदिवासियों समुदायों को विद्रोह के लिये भी प्रेरित किया. बिरसा मुंडा इन विद्रोहों के अग्रणी नायक है जिन्हें भगवान का दर्जा दिया गया है. हृषिकेश सुलभ रचित और संजय उपाध्याय निर्देशित प्रस्तुति ‘धरती आबा’ बिरसा मुंडा के बहाने आदिवासियों की स्थिति और उनकी संघर्ष चेतना को दिखाता है. प्रस्तुति बिरसा के बनने के कारणों में जाती है कि बिरसा को धरती आबा बनने की जरूरत क्यों पड़ी ? फिर वह उसके संघर्ष की व्यापकता को प्रस्तुत करता है. जंगलों पर साहबों दिकुओं का कब्जा,  अंग्रेजों के कानून जिसने जगंल के लोगों से जंगल को छीन लिया है से बिरसा व्यथित हो जाते हैं. अपने लोगों की व्यथा उसे विद्रोह के लिये प्रेरित करती है और उनका विद्रोह पहले अपने ही भगवान और अंधविश्वासों से होता है. क्योंकि वह जानते है कि ये सब आदमी के द्वारा बनाये गये हैं. और भूख से बड़ा कोई भी नहीं है. प्रस्तुति इस बात पर जोर देती है कि नायक और भगवान समाज द्वारा गढ़े जाते हैं और वे ऐसे लोग होते हैं जो अपने समाज के दुखों को दूर करने का प्रयास करते हैं. बिरसा जीते जी भगवान बन जाते हैं. जंगलों में आदिवासियों को संगठित कर अन्याय का प्रतिकार करते हैं. प्रस्तुति में ऐतिहासिक तथ्यों का भी व्यापक ब्यौरा है. प्रस्तुति का संचालक सूत्रधार है जो धानी की भूमिका में भी बदलता रहता है. धानी बिरसा के संघर्षों का साक्षी भी है. धानी की भूमिका में शुभ्रो और बिरसा मुंडा की भूमिका में सुमन ने उम्दा अभिनय किया है.  अन्य अभिनेता इनका उस तरह साथ नहीं दे पाते.  नाटक का संगीत पक्ष उम्दा है, यह संजय उपाध्याय की शैली की विशेष बात है. रंग संगीत को वह नाटकीय आख्यान के अनिवार्य अंग की तरह बरतते हैं.  संगीत में आदिवासी धुनों और गीत हैं जो  कथ्य के साथ साथ परिवेश को आधार देते हैं. उल्लेखनीय पक्ष है सारंगी की आवाज जो नाटक के मार्मिक स्थलों को गहराई देती है.  नाटक में ऐसे अनेक कार्यव्यापार है जिसको नेपथ्य में होना चाहिये था. मंच पर इनका कुशल संयोजन नहीं होने से यह अनावश्यक भाग दौड़ की तरह लगता है. प्रस्तुति में वर्तमान से जुड़ने की जबरदस्त संभावना है लेकिन यही यह कमजोर पड़ जाती है. आदिवासियों को उनके परिवेश से बेदखल करने के लिये नये नये कानून राज्य द्वारा आरोपित किये जा रहे हैं. बिरसा के लौटने का यह अनुकूल समय है, जब उनका समुदाय  राज्य और उग्रवादियों के बीच फंस गया है. उन्हें बिरसा के नेतृत्व की जरूरत है. प्रस्तुति इसके रेखांकन में विफ़ल है.
भारंगम में इस बार नाट्य प्रदर्शनों के साथ  नाटक जगत से जुड़ी अन्य गतिविधियां भी हो रही हैं, इस क्रम इसी क्रम में महेश दत्तानी की किताब ‘मी एंड माइ प्लेज’ का विमोचन एल.टी.जी. प्रेक्षागृह में हुआ और इसके बाद संजय महर्षि के द्वारा रंगमंच पर बनी चार वृतचित्रों  का भी प्रदर्शन किया गया.  

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