रंगमंच तथा विभिन्न कला माध्यमों पर केंद्रित सांस्कृतिक दल "दस्तक" की ब्लॉग पत्रिका.

शनिवार, 18 जनवरी 2014

16 वें भारत रंग महोत्सव का दसवां दिन

अमितेश कुमार का यह आलेख रंगविमर्श ब्लॉग से साभार. अमितेश से amitesh0@gmail.com पर संपर्क किया जा सकता है.

सोलहवें भारंगम का उल्लेख अगर किया जायेगा तो पारम्परिक शैलियों की प्रस्तुतियों के लिये. आधुनिक प्रस्तुतियां एक के बाद एक मंच पर दम तोड़ दे रही है. साधारण प्रस्तुतियां दर्शकों को कोफ़्त में डाल रही है, चयन प्रक्रिया संदेह के घेरे में आ गई है और सवाल उठने लगा है कि क्या ऐसी प्रस्तुतियों से ही भारंगम को अंतरराष्ट्रीय मंच बनाया जाएगा? लेकिन इसी बीच पारंपरिक शैलियां दर्शकों को आनंदित कर रही हैं और ये बता रही हैं कि शैली पुरानी नहीं होती बल्कि वह् भी नवीनता से अपने को लैस करते रहती है और इन शैलियों में हस्तक्षेप कर इन्हें परिष्कृत कर व्यापक दर्शकों तक रंगमंच को पहूंचाया  जा सकता है. ऐसी ही एक प्रस्तुति भारंगम के ओपेन लान में हुई. लान की व्यवस्था को बद्ल दिया गया था. बीच में मंच बनाया गया था जिसके चारो ओर दर्शक थे. मंच के एक सिरे पर वादक मंडली बैठी थी और एक कोने से पात्र प्रवेश-प्रस्थान कर रहे थे. सुमंगलीला नाम की इस प्रस्तुति पर हिंदी सिनेमा का असर भी था. नायक की देह भाषा हिंदी सिनेमा के नायकों की तरह थी. इस नाटक में एक चमात्कारिक दृश्य भी दिखा, नायक को राक्षस के द्वारा कैद कर लिया गया है, अचानक वह कैद से छूट कर राक्षस पर हमला बोल देता है लेकिन राक्षस  उसे मार देता है. नायिका विलाप करने लगती है लेकिन अचानक उसे लगता है कि वह सपना देख रही थी. सपना के इस दृश्य का दर्शको आभास भी बाद में हुआ. यह दिखाता हुआ कि प्रस्तुति कैसे दर्शकों को अपने गिरफ्त में लिये रहती है, और मनचाही जगह पर उन्हेम ले जाती है. अभिनय शैली में मेलोड्रामा भी मौजूद है.  प्रस्तुति में तादात्मय स्थापित करने की क्षमता थी कि मणिपूरी नहीं समझने वाले दर्शक भी आनंदित हो रहे थे. कम से कम साधनों से लार्जर दैन लाईफ़ छवियां निर्मित की जा रही थी. आधुनिक रंगमंच को इन शैलियों से अभी बहुत कुछ सीखना है जो हेठी में रहती है लेकिन ये शैलियां आधुनिक रंगमंच से सीखती रहती हैं.
 ‘द डायरी आफ एन फ्रैंक’ चीन के केंद्रिय नाट्य प्रशिक्षण अकादमी की प्रस्तुति थी. प्रस्तुति यथार्थवादी शैली की है. मंच को एक डिनिंग रूम के स्पेस मे बदला गया है, जहां अधिकांश कार्यव्यापार होता है. पूरे स्पेस को विशाल पर्दे से ढंका गया है जिसे पर विडियो प्रोजेक्शन होता है. इस प्रोजेक्शन में हम द्वितीय विश्वयुद्ध की कुछ छवि देखते हैं जिसमें यहुदियों पर आये संकट की भी झलक है. अभिनेता यथार्थवादी शैली के अभिनय का प्रदर्शन कर रहे थे, चीनी अभिनेताओं  की देह भाषा यूरोपियों की तरह लग रही थी, अभिनय में संयम था और हड़बड़ी नही थी. आम तौर पर छात्र प्रस्तुति होने का जो दबाव या प्रशिक्षण की झलक  अभिनय में मिलती है वह नहीं थी. इसके लिये इस प्रस्तुति की सराहना की जानी चाहिये. गौरतलब है कि यथार्थवाद ही वह शैली है जो दुनिया के रंगमंच में एक सी पाइ आती है. एक तरफ़ यह जहां औपनिवेशिक विरासत का प्रतिनिधित्व करता है दूसरी तरफ़ आधुनिकता और समाजवादी समानता की आकांक्षा का भी प्रतिनिधित्व करता है. ‘द डायरी आफ एन फ्रैंक’ एक चर्चित कृति रही है. जो दूसरे विश्व युद्ध के समय  यहूदियों की स्थिति की विपन्नाता और उन पर हो रहे अत्याचार को एक किशोरी की डायरी के माध्यम से प्रकाशित करती है. एन फ्रैंक की डायरी को उसके पिता ने प्रकाशित करवाया था. यह पच्चीस महीनों के अंदर घटित घटनाओं के प्रभाव को एक कमरे में बैठ कर दर्ज करती है. दूसरे विश्वयुद्ध की घटनाओं का यहुदियों पर पड़ने वाला प्रभाव इस में दर्ज है इससे वह भय साफ़ पता चलता है जिसके साये में ये जी रहे थे. यहूदियों की जीजिविषा का भी पता चलता है. इस डायरी पर फिल्म भी बन चुकी है. प्रस्तुति स्थिति की भयावहता का वातावरण रचने में कामयाब होती है. एक ही घर में जहां राशन दिन पर दिन घटता जा रहा और लोग बढ़ गये हैं, जहां लगातार यहुदियों के मारे जाने, विस्थापित होने की खबरे आ रही हैं वहां  मानविय संवेदना कैसे बची रहती है. एन फ्रैंक इसकी केंद्रीय प्रतीक है वह  पूरानी चीजों को मिला जुला कर घर के सदस्यों को उनके व्यक्तित्व के हिसाब से उपहार देती है. कठिन परिस्थितियों में उसने व्यवहार भूलाये नहीं है, विपदा के समय ही हल्की फूल्की घटनाएं घर में होती रहती है जो उनके जीवन के तनाव को कम करती है. 

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