रंगमंच तथा विभिन्न कला माध्यमों पर केंद्रित सांस्कृतिक दल "दस्तक" की ब्लॉग पत्रिका.

बुधवार, 15 जनवरी 2014

16 वें भारत रंग महोत्सव का नौवां दिन

अमितेश कुमार का यह आलेख रंगविमर्श ब्लॉग से साभार. अमितेश से amitesh0@gmail.com पर संपर्क किया जा सकता है. 

नाटक में कथ्य की प्रासंगिकता और गंभीरता होने के बावजूद कथ्य की प्रस्तुति के बरताव पर भी ध्यान दिया जाना जरूरी है ताकि कथ्य की गंभीरता दर्शकों तक संप्रेषित हो. बेहतर बरताव का अभाव गंभीर प्रयास को भी अनुल्लेखनीय कर देता है. रानावि में चल रहे सोलहवें भारंगम मेंह्म मुख्ताराकी प्रस्तुति के साथ ऐसा ही हुआ. स्त्री संघर्ष की कथा को बयान करते समय इस बात का विशेष ध्यान रखा जाना चाहिये कि संघर्ष केवल बाहरी नहीं होता वह भीतरी भी होता है और फिर यह बाहरी संघर्ष है किससे है? क्या वह संघर्ष के वृहत्तर आयामों से जुड़ रहा है? और फिर ऐसी लड़ाई जिसने व्यापक पैमाने पर वैश्विक संघर्ष की प्रेरणा दी हो उस संघर्ष को न्यूनीकृत करके सीमित अर्थ में बदल देना उचित नहीं है. साथ ही उस प्रश्नों को भी उठाया जाना चाहिये था जो स्त्री संघर्ष के वैश्विकता से जुड़े हैं. रंगमंच पर इसका विशेष ध्यान रखा जाना चाहिये क्योंकि यह एक ही समय में स्थानीय होते हुए भी वैश्विक होता है. इसलिये अच्छी रंगमंचीय मंशा भी कमजोर पड़ जाती है. उषा गांगुली निर्देशित रंगकर्मी की प्रस्तुतिहम मुख्ताराके साथ कुछ ऐसा ही हुआ. प्रस्तुति पाकिस्तान की प्रख्यात महिला मुख्तारन माई की कहानी पर अधारित है. जिसने अपने दमन के विरोध किया और अपने सम्मान की लड़ाई लड़ी और अंततः पाकिस्तान के सर्वोच्च न्यायालय ने उसे पराजित कर दिया लेकिन तब तक वह अपना सम्मान, लड़ने का हौसला और  वैश्विक पैमाने पर नारी संघर्ष की प्रेरणा जीत चुकी थी. यह प्रस्तुति उसके संघर्ष की कथा कहती है लेकिन इसे एक समुदाय के विरुद्ध लड़ाई में बदल देती है. यह प्रस्तुति यह जानने का प्रयास भी नहीं करती कि वह अपने समुदाय और अपने भीतर से कैसे लड़ रही है. अपने समुदाय के भीतर उसकी स्वीकार्यता, न्यायालय के चक्कर लड़ाने मे झेली गई प्रताड़ना और इतने अमानवीय अत्याचार से उभरने का उसका आंतरिक द्वंद्व प्रस्तुति में नहीं उभरता. साथ ही स्त्री को अपने अस्तित्व के लिये अपने आस पास के पुरूषों  या पितृसत्ता से कैसी लड़ाई लड़नी पड़ रही है इसको भी रेखांकित नहीं किया गया है.यह मुख्तार माई और एक बर्बर कबीले के संघर्ष में बदल जाता है और अंत में कुछ संवादों के जरिये इस नाटक को सामयिक घटनाओं से जोड़ा दिया गया. प्रस्तुति  परिकल्पना प्रभावी थी , शुरूआत में चेहरे को ढंके हुए महिलाओं की गति और इसी तरह बीच बीच में अभिनेताओं का गति संयोजन, कोरस, पात्र और दृश्य परिकल्पना की इकाई बनने की बीच की आवाजाही का अच्छा संयोजन किया गया था. नाटक की शुरूआत ने इसके प्रति संभावना जगाई लेकिन अंत तक जाते इसने अपनी संभावनाओं को ध्वस्त कर दियानाटक के कथ्य का तनाव इकाईयों में परिकल्पित दृश्यों के कारण बीच बीच में टूटता रहा और एक समग्र प्रभाव निर्मित नहीं कर पया. अच्छी मंशा, अच्छा कथ्य, अच्छी परिक्ल्पना, अच्छा संगीत और प्रासंगिक होने के बावजूद प्रस्तुति को बेहतर होने से जिन चीजों ने रोक फ़िया वो थी अभिनय और कथ्य की गहराई का अभाव. मुख्तार नाई की व्यथा और उसके संघर्ष कि कठोरता उसकी भूमिका को अभिनिति करने वाली अभिनेता के चेहरे पर दिखी ही नही. निर्देशक उषा गांगुली अपनी ही परिकल्पना में बाहरी तत्व की तरह दिख रही थी यद्यपि वह सूत्रधार के महत्वपूर्ण किरदार मे थी लेकिन अभिनय में उनकी शिथिलता और थकान प्रस्तुति के दौरान दिखती रहीसंभवतः अभिनय के लिये कथ्य के उपयुक्त मार्गदर्शन  नहीं था. नाटक आपेरा शैली से प्रभावित था अंत को लंबा कर दिया गया जो यह बता रहा था कि अब मुख्ताराएं हारने के लिये नहीं लड़ने के लिये तैयार हो रही है. मंच पर अंधेरे में अभिनेताओं ने अपने हाथ में टार्च लेकर अपने चेहरे पर रोशनी डाली थी जो उनके चेहरे की दृढ़ता को दिखा रहा था लेकिन इस अंत को लंबा कर दिया गया जिसने इस प्रभाव को कम कर दिया. यह प्रस्तुति भी उन प्रस्तुतियों में से एक थी जिस पर सोलह दिसंबर की घटना का प्रभाव था , नाटक के अंत में इससे जुड़ा एक संवाद भी बोला गया. नाटकों का तातकालिक कारणॊं से प्रभावित होना उचित है लेकिन केवल इसी के कारण अन्य तत्वों की उपेक्षा अनुचित है

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