रंगमंच तथा विभिन्न कला माध्यमों पर केंद्रित सांस्कृतिक दल "दस्तक" की ब्लॉग पत्रिका.

बुधवार, 15 जनवरी 2014

16 वें भारत रंग महोत्सव का आठवां दिन

अमितेश कुमार का यह आलेख उनके ब्लॉग रंगविमर्श से साभार. अमितेश कुमार से amitesh0@gmail.com पर संपर्क किया जा सकता है. 

भारंगम में जिन पारंपरिक शैलियों का प्रदर्शन किया जा रहा है वे अपने आकर्षण में दर्शकों को बांध रही है, उन्हें आनंदित कर रही है और रंगकर्मियों की भी इन शैलियों की प्रासंगिकता का अनुभव हो रहा है. पुरूलिया छऊ का प्रदर्शन खुले रंगमंच पर ऐसा ही रहा. मंच पर नर्तकों की उर्जा और उनकी लयबद्धता, पृष्ठभूमि में चल रहा संगीत, गायन और संवाद सबको रस में डूबो रहा था. गौरतलब है कि पुरूलिया छऊ  नृत्य की एक शैली है यह नृत्य और संगीत की कला है जिसका नाटकीय विन्यास होता है. मुखौटे और वेश-भूषा इस शैली की पहचान है. पात्र और चरित्र के अनुसार अलग मुखौटों की रूढ़ी है जिनसे पात्रों की पहचान होती है. नर्तक अपनी देह, मुखौटे को अभिव्यक्त करने के लिये गरदन का इस्तेमाल करते हैं. मंच पर कलाबाजी लेना और युद्धकला का प्रदर्शन भी कथावाचन के दौरान होता है. प्रदर्शन में एक ही वादक ढोल भी बजाता है और संवाद भी बोलता है. अलग अलग पात्रों के संवाद बोलता हुआ एक ही आदमी अपनी भंगिमा लगातार बदल कर विविध पात्रों की अभिव्यक्ति करता है.  प्रस्तुति में रक्तबीज और दुर्गा की कहानी चल रही है जिसमें ब्रह्मा, रक्तबीज को वरदान देते हैं कि उसके रक्त की एक बिंदू से उसका रूप निकलेगा और वह किसी पुरूष के हाथ नहीं मरेगा. रक्तबीज स्वर्ग पर हमला कर विजय प्राप्त कर लेता है, उसे हराने के लिये त्रिदेव दुर्गा की सृष्टि करते हैं. दानवों के पराक्रम और देवों की भीरूता को प्रस्तुति में उभारा गया और देवों कि मुर्खता पर कथा के दौरान टिप्पणी भी की गई, देवों की लाचारी से हास्य भी उभरता है. विशेष तौर पर जब कृष्ण पूछते हैं कि आखिर ऐसा वरदान किसने और क्यों दिया? तब ब्रह्मा छुपते नजर आये. प्रस्तुति की दृश्य सरंचना भव्य थी, विभिन्न रंगों  के मुखौटे , परिधान और नर्तकों की उर्जा ने उत्सव का वातावरण रच दिया था.
बर्तोल्त ब्रेख्त के नाटक ‘एक्सेप्शन एंड द रूल’ के नाट्यातंरण ‘सौदागर’ (रूपांतरकार- श्रीकांत किशोर) का मंचन रंग विदूषक, भोपाल द्वारा बंशी कौल के निर्देशन में हुआ. प्रस्तुति  विदूषकों शैली में थी जो उनकी परिचित शैली है. प्रस्तुति कुछ ढिलेपन के साथ शुरू होती है, अभिनेताओं के सर्कस जैसे करतब और अतिशय हास्य नाटक को प्रहसन में तब्दील कर ही रहे थे लेकिन अंतिम हिस्से में जज बने अभिनेता ने स्थिति संभाल ली और नाटक संतोषजनक रहा. यह ब्रेख्त के उन नाटकों में है जो वर्ग चेतना के साथ लिखा गया और वर्ग टकराव को उभारा गया है. यह दिखाया गया है  शोषक वर्ग विभिन्न पेशों में बंटे होने के बावजूद अपने वर्ग हित को बचाने के लिये एकजुट हो जाते हैं.  ये नियम कानून को अपने हिसाब से तोड़-मरोड़ कर शोषितों के विरुद्ध खड़ा होते हैं. शोषितों के न्याय पाने की आकांक्षा को ये नष्ट कर देते हैं. ब्रेख्त इसमें सामाजिक कार्यव्यापार की  स्वाभाविकता को प्रश्न चिह्न लगाकर उसके तल में चल रहे घृणित कार्यव्यापार का उद्घाटन करता है. नाटक की प्रस्तुति करने की युक्ति को महाकाव्यात्मक विधान में है, मंच पर ही आर्केस्ट्रा और कोरस का दल बैठा हुआ है जो नाटक की स्थितियों पर टिप्पणी करता है और सूत्रधार की भूमिका निभाता है. पात्रों में तीन तिलंगे रोचक किरदार है जो सत्य का उद्घाटन करते हैं जिन पर शोषक वर्ग ने पर्दा डाअला हुआ है.  नाटक एक सौदागर के बारे में है जो खान की तलाश में जा रहा है. खान की इस तलाश को खदानों की लूट की सामयिकता से जोड़ा गया है. खान तक पहले पहूंचने के क्रम में वह अपने गाईड और कूली से डरा रहता है. उनकी एकता को तोड़ने के लिये पहले गाइड को निकालता है और बाद में कुली पर अमनावीय अत्याचार करता है. वह उस लाचार कुली से भी भयभीत है. शोषक वर्ग दरअसल अपने लिये एक अदृश्य खतरा रचते हैं. जिससे  अपने को बचाने के लिये वह शोषकों की हत्या को वाज़िब ठहरा देते हैं. ऐसे ही डर में सौदागर कुली की हत्या कर देता है. लेकिन इस अपराध में उसे सजा नहीं हो मिलती. जज तथ्यों और सबूतों को सौदागर के पक्ष में तोड़ मरोड़ कर न्याय की हत्या कर देता है.  ब्रेख्त के नाटक का यह परिचित अंत है जहां पर सुखांत पर नाटक खत्म करने की बजाए एक असंतोष पर नाटक छोड़ते हैं. लेकिन प्रस्तुति इस असंतोष को उभरने नहीं देती. यह प्रस्तुति इस बात पर जोर देती है कि ब्रेख्त के नाटकों की राजनीतिक चेतना को दबाकर की गई प्रस्तुति प्रभावी नहीं होगी.

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