रंगमंच तथा विभिन्न कला माध्यमों पर केंद्रित सांस्कृतिक दल "दस्तक" की ब्लॉग पत्रिका.

मंगलवार, 14 जनवरी 2014

16 वें भारत रंग महोत्सव का सातवां दिन

अमितेश कुमार का यह आलेख उनके ब्लॉग रंगविमर्श से साभार. अमितेश कुमार से amitesh0@gmail.com पर संपर्क किया जा सकता है. 

भारंगम में कश्मीर के तीन नाटकों की उपस्थिति है. दो भांड पाथेर की और एक आधुनिक नाटक. भांड पाथेर कश्मीर की पारंपरिक कला है. कश्मीर की राजनीतिक स्थिति की वजह इन कलाओं की सततता पर भी  संकट आ गया है. पिछले कुछ वर्षों से इस कला में फिर से जान फूंकने का काम कुछ रंगकर्मी कर रहे हैं. और आधुनिक रंग युक्तियों से भी इसका मेल कराया जा रहा है. एम.के.रैना का नाम इसमें प्रमुख है जो आजकल अपने रंगकर्म का अधिकांश समय पाथेर के कलाकारों के साथ बिताते हैं. कुछ वर्ष पहले उन्होंने इन्हीं कलाकारों के साथ शेक्सपीयर के नाटक ‘किंग लीअर’ की प्रस्तुति की थी इस बार वे पारंपरिक नाटक ‘गोसाईं पाथेर’ के साथ हैं. प्रस्तुति ईश्वर के अस्तित्व के स्वीकार के प्रश्नों से जुड़ा है. ईश्वर को कुछ लोग हठयोग के जरिये पाना चाहते हैं कुछ भौतिकता और आध्यात्मिकता के बीच से रास्ता निकालते हैं.  प्रस्तुति में हम देखते हैं कि साधना के कठीन मार्ग का अनुसरण कुछ साधु कर रहे हैं जिनकी खिल्ली एक परिवार और उसके सदस्य उड़ाते हैं जिनके यहां ये मेहमान है. इनकी आवभगत यह इस  लिये कर रहे हैं कि इन्हें विश्वास है कि साधु इन्हें कुछ दे कर जायेंगे. इस परिवार में एक पिता और तीन बच्चे है इनकी स्थिति दयनीय है. बच्चे चाहते हैं कि पिता मर जाए और उन्हें संपति मिले जिस पर कब्जा जमा कर पिता बैठा है.  , अंततः बच्चे पिता को मरने के लिये मजबूर कर देते हैं. इसका मौका मिलता है एक अपरिचित युवक के आने से  गांव की एक लड़की को दोबारा  देखने के लिये रुका है. लड़की उस पर आशक्त है लेकिन युवक अपने साथ ले जाने के लिये उसे कुछ शर्त रखता है. राख मलने, कपड़े और गहने त्यागने का यह शर्त आद्ध्यात्मिक रूपक में बदल जाता है.  अपरिचित अचानक गायब हो जाता है और  उसे वापस बुलाने के लिये  अपरिचित   पिता मरने को तैयार हो जाता है. नाटक के साधारण से लगने वाले कथानक में ईश्वर, मोक्ष, भक्ति, प्रेम जैसे दार्शनिक समस्याओं पर बहस होने लगती है और इसी समय में इसके पात्र नितांत सांसारिकता में भी उलझे हुए हैं. अपने हास्य जनित अभिनय से सभी पात्र एक दूसरे की टांग खीचते रहते हैं और इसका चरमोत्कर्ष तब है जब पिता की मृत्यु के बाद बेटे  उसकी बुराइयों को गा गा कर रोते हैं.  ऐसा  हास्य बोध भारतीय समजा में और इसकी पारंपरिक कलाओं में ही मिलता है.  
भांड पाथेर की पारंपरिक शैली में निर्देशक ने आधुनिक रंगमंचि की युक्तियों को जोड़ा है. प्रवेश, प्रस्थान, मुवमेंटके  साथ कर्टेन काल को आधुनिक रंगमंच के हिसाब से ढाला गया है.  प्रकाश व्यवस्था के कथ्य के किसी विशेष पाठ को उभारने में सहयोग करती है. लेकिन प्रोसेनियम का रंगमंच इस प्रस्तुति के अनुकूल नहीं लगता इसका उपयुक्त मंचन खुले में हि होना चाहिये. कई अवसरों पर लगा कि अभिनेताओं की गति बाधित हो रही है. नाटक के कथानक और गति को भी नियंत्रित किया गया क्योंकि ऐसे नाट्य रूपो में अभिनेता सामयिक मुद्दों को जोड़कर उन पर टिप्पणी करते हुए नाटक का विस्तार करते रहते हैं. इस प्रस्तुति में भी पात्र सामयिक मुद्दों पर टिप्पणी करते हैं.  मंच की व्यवस्था में  पीछे संगीत मंडली बैठी है और अगले हिस्से में कार्य व्यापार हो रहा है. भांडों की प्रख्यात स्फूर्ति और हाजिरजवाबी का अनुमान इस प्रस्तुति से लग जाता है.  अभिनेताओं से मालूम हुआ कि इस कला को पर्याप्त सरंक्षण नहीं मिल रहा है और कलाकार बहुत ही विपिन्न स्थिति में रह रहे हैं. कश्मीर की स्थिति के बीच इन कलाओं की स्थिति पर भी विचार करना चाहिये.

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