बात बस से निकल चली है
दिल की हालत संभल चली है
अब जुनूं हद से बढ़ चला है
अब तबीयत बहल चली है
-- फैज़
दिल की हालत संभल चली है
अब जुनूं हद से बढ़ चला है
अब तबीयत बहल चली है
-- फैज़
3 फरवरी सन 1911 को, जिला सियालकोट(बंटवारे से पूर्व पंजाब)के कस्बे
कादिर खां के एक अमीर पढ़े लिखे ज़मींदार ख़ानदान में जन्मे फैज़ अहमद फैज़ आधुनिक काल
में उर्दू अदब और शायरी की दुनिया का वो रौशन सितारा हैं जिनकी गज़लों और नज़्मों के
रौशन रंगों ने मौजूदा समय के तकरीबन हर शायर को प्रभावित किया है.
सुल्तान फातिमा और सुल्तान मोहम्मद खां के बेटे
के रूप में उन्हें एक सौभाग्यपूर्ण बचपन मिला. उनकी तालीम की शुरुआत चार बरस की
छोटी सी उम्र में हुई जब उन्होंने कुरान कंठस्थ करना शुरू किया. इस शैक्षिक सफ़र
में मैट्रिक और इंटरमीडिएट की परीक्षा फर्स्ट डिविज़न से पास करने के बाद गवर्नमेंट
कॉलेज, लाहौर से बी.ए. और फिर अरबी में बी.ए. ऑनर्स करा. तपश्चात गवर्नमेंट कॉलेज,
लाहौर से ही, सन 1933 में अंग्रेजी और 1934 में ओरिएंटल कॉलेज, लाहौर से अरबी में
फर्स्ट डिविज़न के साथ एम. ए. की डिग्री हासिल करी.
उनके विद्यार्थी जीवन की एक विशेष घटना का जिक्र
एक किताब में पढ़ा था, आप भी सुनिये, हुआ ये की जब वो गवर्नमेंट कॉलेज, लाहौर में
पढ़ते थे तो प्रोफेसर लेंग साहब जो उन्हें अंग्रेज़ी पढाया करते थे, फैज़ की योग्यता
से इतना प्रसन्न थे की उन्होंने परीक्षा में फैज़ को 150 में से 165 अंक दिये और जब
एक विद्यार्थी ने आपत्ति उठाई की आपने फैज़ को इतने अंक कैसे दिये तो उन्होंने उत्तर
दिया "इसलिए कि मैं इससे ज़्यादा दे नहीं सकता था"
सन 1935 में एम. ए. ओ. कॉलेज, अमृतसर में
प्राध्यापक के तौर पे नियुक्ति के साथ मुलाज़मत का सिलसिला शुरू हुआ. 1940 से 1942
तक उन्होंने लाहौर के हेली कॉलेज में अंग्रेज़ी पढ़ाई. इसी दौरान एक ब्रिटिश
प्रवासी महिला मिस एलिस जॉर्ज के साथ निकाह किया.
इस दरमियान उनकी कुछ और साहित्यिक गतिविधियाँ भी
चलती रहीं. 1938 से 1939 तक उन्होंने उर्दू की प्रसिद्द साहित्यिक पत्रिका
'अदब-ए-लतीफ़' का सम्पादन किया. इसके अलावा फैज़ अंग्रेज़ी दैनिक 'पकिस्तान टाइम्स'
और उर्दू दैनिक 'इमरोज़' और साप्ताहिक 'लैलो-निहार' के प्रधान सम्पादक भी
रहे.
द्वितीय विश्व युद्ध के दौरान, सन 1942 में
कैप्टन के पद पर फ़ौज में भारती होकर फैज़ लाहौर से दिल्ली आ गये और 1947 तक कर्नल की
हैसियत से फ़ौज में रहे. 1947 में भारत-पाक विभाजन के बाद उन्होंने फ़ौज से इस्तीफ़ा
दे दिया और लाहौर चले आये.
विभाजन के कारण हिन्दुस्तान और पाकिस्तान दोनों
ही जगह काफ़ी अशांति थी और ख़ास तौर पर पाकिस्तान की स्थिति बहुत अस्थिर थी. इस
दौरान भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी ने सैयद सज्जाद ज़हीर को कुछ अन्य नेताओं के साथ
पाकिस्तान में इंक़लाब करने भेजा था. सज्जाद ज़हीर के फैज़ से घनिष्ठ संबध थे और फैज़
क्यूँकि फ़ौज में अफ़सर रह चुके थे इसलिए पाकिस्तान के फौजी अफसरों के साथ उनके गहरे
सम्बन्ध थे. 1951 में सज्जाद ज़हीर और फैज़ को दो अन्य फौजी अफसरों के साथ रावलपिंडी
कॉन्सपिरेसी केस के सिलसिले में गिरफ्तार कर लिया गया और मार्च 1951 से अप्रैल 1955
तक वो जेल में रहे.
फैज़ का लेखन वक़्त और हालातों के साथ विकसित हुआ.
फैज़ की शुरूआती दौर की रचनायें काफ़ी हद तक हल्की फुल्की, बेफिक्र, ख़ुशहाल, प्यार
और ख़ूबसूरती से सजी हुई थीं, पर समय के साथ उनका लेखन काफ़ी गंभीर और सियासी और
सामाजिक हालातों से प्रभावित होता गया. काफ़ी हद तक उन्नीसवीं शताब्दी के मशहूर
शायर मिर्ज़ा ग़ालिब की ही तरह फैज़ का बात कहने का लहज़ा भी तल्ख़ और रुखा हो गया, जो
अक्सर आम आवाम और विशिष्ठ वर्ग के बीच विवाद छेड़ता हुआ सा प्रतीत होता था.
उनका पहला कविता संग्रह 'नक्श-ए-फ़रियादी' 1941
में लखनऊ से प्रकाशित हुआ था. 'ज़िन्दाँनामा' उनकी जेल के दिनों की शायरी का संग्रह
है. अपनी तमाम उथल-पुथल भरी ज़िन्दगी में भी फैज़ लगातार लिखते रहे और उनके संग्रह
प्रकाशित होते गये, और फैज़ हिन्दुस्तान और पाकिस्तान दोनों ही मुल्कों में उर्दू
ज़ुबां के सबसे ज़्यादा पढ़े जाने वाले शायरों में शुमार हो गये.
1962 में फैज़ 'लेनिन शान्ति पुरस्कार' से नवाजे
जाने वाले पहले एशियाई बने. 1984 में उनकी मृत्यु से पूर्व उन्हें नोबेल पुरस्कार
के लिये भी नामांकित किया गया था. फैज़ को दमे का रोग था जो बढ़ते बढ़ते लाइलाज हो
गया था और 20 नवम्बर 1984 को वो इस दुनिया को अलविदा कह के हमेशा के लिये रुखसत हो
गये.
तो ये था एक संक्षिप्त सा परिचय एक बुलंद शक्सियत
का. संक्षिप्त इसलिए कह रही हूँ की अगर लिखने बैठूं तो जाने और कितना कुछ है उनके
बारे में लिखने को, पर वो इस ब्लॉग का मकसद नहीं है. हमें तो उनकी लेखनी से आपको
रु-बा-रु करवाना है. तो आइये साथ मिल कर इस महफ़िल-ए-शेर-ओ-सुखन की इब्तिदा करते हैं
फैज़ के लिखे हुए पहले शेर से -
लब बन्द हैं साक़ी, मेरी आँखों को पिला
दे
वो जाम जो मिन्नतकशे-सहबा नहीं होता
[ 1928 में कॉलेज ऑफ़ सियालकोट की साहित्यिक संस्था 'अख़वानुस्सफ़ा' के तरही मुशायरे में पढ़ी गयी ग़ज़ल का पहला शेर. फैज़ तब इंटरमीडिए के छात्र थे ]
वो जाम जो मिन्नतकशे-सहबा नहीं होता
[ 1928 में कॉलेज ऑफ़ सियालकोट की साहित्यिक संस्था 'अख़वानुस्सफ़ा' के तरही मुशायरे में पढ़ी गयी ग़ज़ल का पहला शेर. फैज़ तब इंटरमीडिए के छात्र थे ]
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