रंगमंच तथा विभिन्न कला माध्यमों पर केंद्रित सांस्कृतिक दल "दस्तक" की ब्लॉग पत्रिका.

सोमवार, 28 नवंबर 2011

दार्शनिक संरचना के सौ साल


एक सदी तक जीवित रहे स्त्रास उन बिरले चिंतकों में से थे जिनके विचार और सिद्धांतों को दार्शनिकों और समाजशास्त्रियों की पीढ़ियां अपनाती रही और अपने मूल्यों की कसौटी में परखती रही. 28 नवंबर 1908 को उनका जन्म ब्रसेल्स में हुआ था.
दर्शन की दुनिया में स्ट्रक्चरलिज़्म यानी संरचनावाद के मुख्य चिंतकों में से एक लेवी श्ट्रॉस ने मिथकों का एक निराली और जटिल व्याख्या पेश की और मिथकीयता और रिवायतों को एक ऐसे आदिम बिंदु पर जाकर परखा जहां उन्हें मनुष्य अस्तित्व, मनुष्य विकास और मनुष्य चेतना की समान गुत्थियों का एक व्यापक नेटवर्क नज़र आया. उस पैटर्न को परखने वाले वे पहले दार्शनिक चिंतक थे. आदिम समाजों का उनका अध्ययन बताता है कि किसी आदिवासी समाज के मनुष्य मस्तिष्क की विशेषताएं पश्चिमी सभ्यता से मिलती जुलती हैं और समस्त समुदायों का व्यवहार लोक परंपरा और लोक कथा की स्मृतियों के ताने बाने से निर्धारित होता है.
लेवी श्ट्रॉस का कहना था कि मैं इसीलिए यह नहीं दिखाना चाहता हूं कि मनुष्य मिथकों में कैसे सोचते हैं बल्कि मैं यह बताना चाहता हूं कि मिथक कैसे मनुष्य मस्तिष्क औरविचार प्रणाली का संचालन करते हैं, उन्हें इस बात का ज़रा भी पता लगे बिना. लेवी श्ट्रॉस मार्क्सवाद से प्रभावित थे. और अपने चिंतन में उन्होंने मार्क्सवादी दर्शन परंपरा में नए आयाम जोड़े. तीन दशकों से भी ज़्यादा समय तक श्ट्रॉस अपने सिद्धांत के लिए अमेज़न के लोक समाज और अमेरिकी इंडियन कबीलों के बीच अध्ययन करते रहे. उन्होंने विपरीत मान्यताओं को एक साथ पिरोया और उसी उलटबांसी में मनुष्य अस्तित्व की निराली झांकियां पेश की. वे कच्चा बनाम पक्का, प्राकृतिक बनाम सांस्कृतिक, और जीवन बनाम मृत्यु की उलटबांसियों के सहारे समाज के व्यवहार को परख रहे थे.
लेवी श्ट्रॉस ही थे जिन्होंने अमेरिकी इंडियन मिथकों और सिंड्रेला की मशहूर कहानी में साम्य और तुलनाएं तलाश लीं.
उन्होंने दिखाया कि किस तरह अमेज़न की कुछ जातियां अपने गांवों को विरोधी धड़ों में विभाजित कर देती थीं और फिर शादी जैसे सामाजिक व्यवहारों से उनका सम्मिलन हुआ.
 
श्ट्रॉस ने लातिन अमेरिका में विविध लोक कथाओं की छानबीन की और दिखाया कि अपने फ़ॉर्म में वे कैसे एक दूसरे से जुड़ी हैं.

मिशेल फ़ूको और जाक देरिदां जैसे दिग्गज बौद्धिकों ने लेवी श्ट्रॉस के तरीकों का इस्तेमाल अपने सामाजिक विश्लेषणों में किया. फ्रांस के ही एक और महान दार्शनिक ज्यां पाल सार्त्र अलबत्ता लेवी श्ट्रॉस से कई मुद्दों पर मुठभेड़ और बहस करते रहे. व्यक्तिगत आज़ादी के सवाल पर सार्त्र श्ट्रॉस से टकराते रहे. सार्त्र श्ट्रॉस की इस व्याख्या से भी संतुष्ट नहीं थे कि 
दुनिया में मनुष्य का कोई अपना स्टेटस नहीं है और उनका अस्तित्व अनजाने अंधेरों में गुम हो जाएगा. अस्तित्ववादी सार्त्र के पास श्ट्रॉस के ऐसे मनुष्य के लिए कोई जगह नहीं थी.

श्ट्रॉस एक ऐसे समय में अखिल दुनिया में महा रिश्तेदारी और कहना चाहिए मनुष्यों का ऐसा गठबंधन, ऐसा विरल पड़ोस खोज रहे थे और उसे बाक़ायदा प्रतिपादित भी कर रहे थे, जब दुनिया विश्व युद्धों, और शीत युद्ध के तनावों से त्रस्त थी. भुखमरी, बेकारी अकाल, सूखा और बाढ़ और तूफ़ान जैसी विपदाएं तो उसकी छाती पर गिरती ही रहीं.
श्ट्रॉस इसी विपन्न संत्रस्त और कटी हुई दुनिया को एक महामिथक के इधर उधर बिखरे ताने बाने में जोड़ रहे थे, ये उनका सृजित एक मानवीय ढांचा था. और इस तरह वे अपनी जटिल व्याख्याओं के अंडरकरेंट में ये भी बताना चाहते थे कि एक विश्व अंतत एक कुटुम्ब ही था और है. मनुष्यों के इस लोक गठजोड़ को समझने वाले श्ट्रॉस ने अपनी सबसे प्रसिद्ध आत्मकथात्मक किताब ट्रिसटेस ट्रोपिकस में उस वेदना और दर्द का भी ज़िक्र किया कि आखिर आदमी ने ही तो परंपरा, लोक और आदिमता के ढांचों को छिन्न भिन्न किया और आदमी ने ही आखिर तमाम इकाइयां मिटाकर उन्हें ऐसे स्टेट में बदला जहां उनका इंटीग्रेशन नामुमकिन था. शायद इसी अफ़सोस में क्लोड लेवी श्ट्रॉस को ये मानने में भी कोई हिचक नहीं थी कि दुनिया का आरंभ मनुष्य जाति के बगैर हुआ है और उसका अंत भी निश्चित रूप से उसके बिना ही होगा.

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