रंगमंच तथा विभिन्न कला माध्यमों पर केंद्रित सांस्कृतिक दल "दस्तक" की ब्लॉग पत्रिका.

बुधवार, 14 दिसंबर 2011

हम सब बिनायक -आनन्द पटवर्धन


डॉक्टर बिनायक सेन से मेरी पहली मुलाकात सन् 1986 में हुई थी। छत्तीसगढ़ मुक्ति मोर्चा के प्रख्यात नेता शंकर गुहा नियोगी ने छत्तीसगढ़ के खान मजदूरों को मेरी फ़िल्म ‘‘बॉम्बे अवर सिटी‘‘ दिखाने हेतु मुझे आमंत्रित किया था।

नियोगी कोई साधारण मज़दूर नेता नहीं थे। वास्तव में वे भिलाई इस्पात कारखाने में कर्मचारी थे और उनकी सोच तत्कालीन सेवा शर्तों की राजनीति करने वाले संगठनों से बिल्कुल भिन्न थी। दरअसल वे उन अभिवंचित और दिहाड़ी मज़दूरों के लिए काम करते थे जो प्रायः न्यूनतम मज़दूरी पर जीवन को ख़तरे में डालकर काम करते हैं, और इस कारण छत्तीसगढ़ मुक्ति मोर्चा में जो आशावाद और ऊर्जा थी, वह देखने लायक थी। रोज़ शाम को जब सारे कामग़ार एक बड़ा दायरा बनाकर बैठते थे तथा वैचारिक एवं व्यावहारिक मुद्दों पर बहस करते थे तो यह लोकतांत्रिक व्यवहार का नायाब दृश्य होता था इस बात का गवाह केवल मैं ही नहीं हूँ। कितने नवोन्मेषी विचार होते थे उनके यह मैंने खुद भी देखा था। मुझे मालूम है जब आदिवासी कामग़ार अपने संघर्षों के लिये किसी आत्मीय प्रतीक की प्रबल ज़रूरत महसूस कर रहे थे, तब छत्तीसगढ़ मुक्ति मोर्चा ने एक गुमनाम नायक की स्मृतियों को पुनर्जीवित किया। ये नायक थे- शहीद वीर नारायण सिंह, उन्नीसवीं सदी के एक आदिवासी, जिन्हें 1857 में अंग्रेजों ने इसलिये फाँसी दे दी क्योंकि उन्होंने अमीरों का अनाज अपने लोगों को खिला दिया था।

1981 में, नियोगी से प्रभावित होकर डॉक्टर बिनायक और दो अन्य डॉक्टर छत्तीसगढ़ के खनिज कामग़ारों के बीच काम करने आए। अपनी सोच के औजारों-उपकरणों से लैस होकर उन लोगों ने 15 बिस्तरों वाला एक शहीद अस्पताल शुरु किया, एक सादा पर अत्यंत प्रेरक संस्थान-निर्माण से लेकर प्रबंध तक खनिज कामगारों के श्रमदान से संचालित। ’80 के दशक के मध्य तक यह अस्पताल विकसित होकर 50 बिस्तरों वाला बन चुका था, जिसका अपना एक स्वच्छ ऑपरेशन थियेटर भी था।

अस्पताल के दैनिक कार्यों में जो स्नेह और संरक्षण की भावना थी उसने इस संस्थान की एक विशिष्ट पहचान बनाई। चिकित्सक एवं कर्मचारी सचमुच एक-दूसरे के स्वास्थ्य का ख़याल रखते थे।

क्रांति, जिसकी अगुवाई नियोगी और उनके साथी कामरेडों ने की थी, माक्र्स और एंगेल्स की किताबों से प्रेरित थी, पर साथ ही यह गांधी के अहिंसक आंदोलन से भी प्रेरणा ग्रहण कर रही थी। यह दोनों से सबक भी ले रही थी कि कैसे विश्व स्तर पर अपनाई जा रही विकास की प्रक्रियाओं के परिणामस्वरूप पर्यावरण में हो रहे ह्रास को समझने में वामपंथ असफल रहा है। ’80 के दशक के प्रारंभ में भारत में जब परंपरागत वामपंथ बनाम नक्सलवाद के टकराव और नक्सलवाद के दमन के दौर में वामपंथ से मोहभंग हो रहा था, एक वैकल्पिक दृष्टिकोण की तलाश भी प्रारंभ हो चुकी थी। छत्तीसगढ़ में नियोगी और छत्तीसगढ़ मुक्ति मोर्चा, गुजरात, महाराष्ट्र एवं मध्यप्रदेश में मेधा पाटकर और नर्मदा बचाओ आंदोलन एक नये हरित वाम आंदोलन (ग्रीन लेफ्ट मूवमेंट) के पथप्रदर्शक प्रतीत होने लगे थे, जो हथियारबंद संघर्ष की बजाय जन संगठन एवं जन गोलबंदी को अपने प्राथमिक हथियार मानते थे। यह लाल हरा (रेड ग्रीन) एक प्रभावकारी शक्ति थी जिसके भविष्य में नेतृत्वकारी होने की उम्मीद सभी कर रहे थे।

‘‘बॉम्बे अवर सिटी‘‘ एक फ़िल्म जो मुम्बई के स्लम में रहने वाले लोगों की रोज़मर्रा की जद्दोज़हद को दिखाती है, का प्रदर्शन अप्रत्याशित रूप से सफल रहा था। अपने अपर्याप्त संसाधनों के बावज़ूद यूनियन ने 10,000 रुपये खर्च करके इस अवसर के लिये एक 16 एम॰ एम॰ का प्रोजेक्टर ख़रीदा था-यह उस प्रगतिगामी सोच का, जो अपने कामगा़रों की शिक्षा और उसके विकास को मूल्यपरक बनाती है-का भी एक अन्यतम उदाहरण है। उस शाम करीब एक हज़ार कामगार उस मुक्ताकाशी प्रदर्शन में शरीक हुए और देर रात तक चर्चा होती रही जिसमें यूनियन ने तय किया कि इस फ़िल्म का एक प्रिंट अपने लिये रखा जाये ताकि हमारे जाने के बाद भी प्रदर्शन जारी रह सकें। मैंने उनसे दुबारा आने का वादा किया, पर मुझे इस बात का दुख है कि मैं अपना वादा नहीं निभा सका।

इतिहास पीछा नहीं छोड़ता। मेरे जैसे लोग जो अबतक कामगारों के मुद्दों पर काम कर रहे थे, धार्मिक कठमुल्लावाद से लड़ते हुए घिर गये थे-एक ऐसा कठमुल्लावाद जिसने आखि़रकार बाबरी मस्जिद ढाह दी और नफ़रत तथा हिंसा का ज़हर घोल दिया। एक तरह से नियोगी भी इसी उफनते ज्वार के शिकार बने। जब भाजपा  छत्तीसगढ़ क्षेत्र में सत्तासीन  हुई तो इसने उस वैश्विक दृष्टि का प्रबल विरोध किया जो धार्मिक अलगाव के खि़लाफ़ सफलतापूर्वक वर्गीय एकता को दृढ़ करती थी।

नियोगी और छत्तीसगढ़ मुक्ति मोर्चा के कई और भी प्रबल दुश्मन थे। कामगारों के बढ़ते आत्मविश्वास ने यूनियन को शराबखोरी जैसी सामाजिक बुराइयों से लड़ने का हौसला दिया। यूनियन ने शराब पीने वाले कामगारों के लिये एक छोटा अर्थदण्ड निर्धारित किया, पर अविश्वसनीय तरीके से और चुपचाप यह वसूला गया धन उन कामगारों की पत्नियों को वापस कर दिया जाता था। क्षेत्र में शराब के उपभोग के स्तर में आ रही लगातार गिरावट से शराब माफिया को गहरी चोट पहुँच रही थी। अन्य शक्तिशाली दुश्मनों में मज़दूरों के वे ठेकेदार भी शामिल थे जिन्होंने अपनी प्रभुत्वशाली जीवनशैली खो दी थी, और उन सबसे भी जो एक उद्धत शक्ति थी-उद्योगपतियों और राजनेताओं का गठजोड़-वह किसी भी क़ीमत पर एक मजबूत कामग़ार आंदोलन को बर्दाश्त नहीं कर सकती थी।

27 सितम्बर की रात को, शंकर गुहा नियोगी जब अपने घर में सो रहे थे, उनकी गोली मारकर हत्या कर दी गयी। जिन लोगों ने इस हत्या को अंजाम दिया था, आजतक उन्हें सज़ा नहीं मिली, जबकि पूरा इलाका जानता है वे लोग कौन थे। अतिरिक्त जिला एवं सत्र न्यायालय ने छः लोगों को दोषी पाया, जिनमें से एक जिसने गोली चलाई थी, को मृत्युदण्ड तथा अन्य पाँच जिनपर हत्या की साज़िश रचने और धन मुहैया कराने का आरोप था, को आजीवन कारावास की सज़ा सुनाई। इनमें दो जाने-माने उद्योगपति भी शामिल थे, जिनका भाजपा से निकट संबंध था। जब भाजपा सत्ता में आई, मध्यप्रदेश उच्च न्यायालय ने सबूतों के अभाव में दोषियों को बरी कर दिया।

अनाथ छत्तीसगढ़ मुक्ति मोर्चा ने, योग्य नेता जनक लाल ठाकुर एवं नियोगी के अन्य सहयोगियों के नेतृत्व में बहादुराना संघर्ष जारी रखा। डॉक्टर बिनायक और उनकी पत्नी इलिना छत्तीसगढ़ मुक्ति मोर्चा से जुड़कर और यही रहते हुए स्वास्थ्य के क्षेत्र में तथा आगे चलकर नागरिक आंदोलन में काम कर रहे थे। डॉक्टर बिनायक सेन बाद में लोक स्वातंत्र्य संगठन (पी यू सी एल) की छत्तीसगढ़ इकाई के महासचिव भी बने।

नियोगी की हत्या और उदारीकरण के तर्क ने क्षेत्र के आदिवासियों एवं कामगारों को तेजी से विकृति और दमन की तरफ धकेल दिया। इस सन्नाटे में, नक्सलवादी आंदोलन की शक्ल में हथियारबंद संघर्ष को विकसित होने का मौका मिला। प्रत्युत्तर  में राज्य ने नक्सलवादी आंदोलन के खि़लाफ़ ‘‘सलवा जुडुम‘‘ नामसे अपना कुख्यात अभियान शुरू किया-नागरिकों को प्रशिक्षण, हथियार एवं अन्य साजो-सामान देकर एक अर्द्धसैनिक बल के रूप में नक्सलवाद से चैकस मुठभेड़ कराने का। लोक स्वातंत्र्य संगठन के महासचिव की हैसियत से डॉक्टर बिनायक सेन ने राज्य और अर्द्धसैनिक बलों की दुरभिसंधि द्वारा छत्तीसगढ़में फैलाये जा रहे आतंक की सूचनाएँ एकत्र कीं और रिपोर्ट प्रकाशित कराया। राज्य ने इसका प्रतिशोध लिया। उसने उनकी गिरफ़्तारी का वारंट जारी कर दिया और आरोप लगाया कि बिनायक ने रायपुर सेंट्रल जेल में बंद माओवादी नेता से मुलाकात की और पत्रों के आदान-प्रदान में मदद पहुँचाई, जबकि सच्चाई यह है कि लोक स्वातंत्र्य संगठन ने इस मुलाकात के लिये जेल अधिकारियों से प्रशासनिक स्वीकृति ली थी। डॉक्टर बिनायक फिलहाल एक नक्सली के तौर पर जेल में बंद हैं।

लोग एक अच्छे डॉक्टर  के सरोकारों के साथ एकजुट हो रहे हैं। समूचे देश के हर कोने से समर्थन में आवाजें उठ रही हैं। एमनेस्टी इंटरनेशनल ने मामले को अपने हाथ में लिया है। देश और देश से बाहर की स्वास्थ्यकर्मी बिरादरी से भी प्रतिक्रियाएँ आ रही हैं डॉक्टर बिनायक सेन जैसे दुर्लभ डॉक्टर के पक्ष में-उस डॉक्टर के जो गरीब और दबे-कुचले लोगों के बीच रहकर उनके लिये काम करते हैं। हमारी हुंकार बहरे कानों पर वज्रपात करेंगी। मैं उन तथ्यों को सामने लाना चाहता हूँ और कहना चाहता हूँ कि डॉक्टर  बिनायक एक नेकदिल और संवेदनशील व्यक्ति हैं, जिनसे मिलने का मुझे गौरव है। यदि डाॅक्टर बिनायक एक नक्सलवादी कहे जा रहे हैं, क्योंकि उन्होंने राज्य के अत्याचारों का प्रलेखन किया, तो मुझे भी इसी रूप में गिना जाये और गिना जाये उन हज़ारों-हज़ार लोगों को भी जिन्होंने उनकी रिहाई के पत्र पर हस्ताक्षर किये और जो लड़ रहे हैं इस पृथ्वी पर निरंतर अन्याय के खि़लाफ़-जब तक कि उसका अस्तित्व है-अहिंसक रूप से और निर्भय होकर।

(अंग्रेजी से अनुवाद- राजेश चन्द्र)

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